शंकरलाल जांगिड़ ‘शंकर दादाजी’
रावतसर(राजस्थान)
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कैसे अपने अंतर्मन की प्यास मिटाऊं,
अपने टूटे दिल को मैं कैसे समझाऊं।
आग लगी है मुरझाये से पगले मन में,
जलता है तन मन मैं कैसे कहो बुझाऊं।
घाव बहुत गहरे अपनों ने दिये हैं मुझको,
उठती है जो टीस कहो किसको दिखलाऊं।
इतनी तो मेरे लेखन में धार भी नहीं,
ऐसा कुछ लिख कर के मैं ऊंचा उठ जाऊं।
मेरा प्रेरणास्त्रोत रूठ गया है,
कैसे मैं अपनी चाहत को कहो मनाऊं।
मेरे मन का चैन ले गया वही लूट कर,
अंतर्मन की आग बुझाने कहां से लाऊं।
मैं अपनी कविता,ग़ज़लें जो भी लिखता था,
वही नहीं हैं पास कहो कैसे लिख पाऊं।
नहीं सहारा कोई भी मुझको दिखता है,
समझ नहीं आता मैं कैसे समय बिताऊं।
इतनी भी सामर्थ्य नहीं है कि समाज को,
अपने लेखन से मैं कुछ देकर के जाऊं।
मात शारदे रक्षा कर अपने बालक की,
मैं साधक तेरे चरणों में शीश नवाऊं॥
परिचय-शंकरलाल जांगिड़ का लेखन क्षेत्र में उपनाम-शंकर दादाजी है। आपकी जन्मतिथि-२६ फरवरी १९४३ एवं जन्म स्थान-फतेहपुर शेखावटी (सीकर,राजस्थान) है। वर्तमान में रावतसर (जिला हनुमानगढ़)में बसेरा है,जो स्थाई पता है। आपकी शिक्षा सिद्धांत सरोज,सिद्धांत रत्न,संस्कृत प्रवेशिका(जिसमें १० वीं का पाठ्यक्रम था)है। शंकर दादाजी की २ किताबों में १०-१५ रचनाएँ छपी हैं। इनका कार्यक्षेत्र कलकत्ता में नौकरी थी,अब सेवानिवृत्त हैं। श्री जांगिड़ की लेखन विधा कविता, गीत, ग़ज़ल,छंद,दोहे आदि है। आपकी लेखनी का उद्देश्य-लेखन का शौक है।