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अपने-आपमें खो जाना चाहती हूँ

कविता जयेश पनोत
ठाणे(महाराष्ट्र)
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मैं अपने-आपमें खो जाना चाहती हूँ,
बहुत हो चुका समझौता खुद से
अपने जीवन के चंद लम्हों को,
अपना…सिर्फ अपना बनाना चाहती हूँ।
अब कोई ख्वाब टूटे,
अब कोई आह दिल से निकले
उससे पहले मैं अपने-आपको,
दुनिया से दूर,अपना बनाना चाहती हूँ।
अब में अपने जीवन की कल्पनाओं को,
अपनी हर एक भावना को
अपने जीवन के चित्रों में सजाना चाहती हूँ,
मैं उन्हें यथार्थ की धरा पर लाना चाहती हूँ।
मैं कौन हूँ,क्या पहचान है मेरी,
ये तो मैं नहीं जानती सही अर्थ में
लेकिन इंसानियत के नाम को,
सार्थक बनाना चाहती हूँ।
दानवता के बढ़ते चलन में,
मन के हर एक कोने को
करुणा के अमृत से भर,
मानव होने का परिचय दिखाना चाहती हूँ।
‘वसुदेव कुटुम्बकम’ की भावना अपना,
स्वार्थ और मतलबी रिश्तों की डोर से,
खुद को आजाद कर,
विस्तृत विश्व कुटुम्ब से,बंध जाना चाहती हूँ।
इसीलिए-
जीवन सार्थक बनाना चाहती हूँ।
मैं अपने-आपमें बंध जाना चाहती हूँ,
जीवन के चंद पलों को अपना बनाना चाहती हूँ॥

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