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दीपावली पर पटाखे भारत की परम्परा नहीं

संदीप सृजन
उज्जैन (मध्यप्रदेश) 
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भारतीय संस्कृति उत्सव प्रधान है और उत्सव की प्राचीन परम्परा उल्लास और उच्चता से जुड़ी हुई है,जब जीवन में उल्लास हो और तन और मन की उच्चता हो वह समय उत्सव है। दीपोत्सव की परम्परा अनादि काल से भारतीय संस्कृति की अक्षुण्ण पहचान है,वैदिक काल हो या उत्तर वैदिक काल हो दीपावली के साथ कोई न कोई प्रसंग और सामाजिक या धार्मिक परम्परा जुड़ी हुई है। काल प्रवाह में इस परम्परा में कई नई व्यवस्थाएं और परम्पराएं सम्मिलित हुई है।
वैदिक वांग्मय में दीपोत्सव मनाने के लिए केवल घी के दीए जलाए जाने का उल्लेख है और विशेष प्रायोजन से खाद्य तेल के दीए जलाने का उल्लेख मिलता है। वर्तमान आधुनिक युग में कृत्रिम विद्युत और मोमबत्ती तक यह परम्परा आ चुकी है। यहाँ तक तो ठीक है,लेकिन प्राचीन परम्परागत संस्कृति में पटाखों का प्रवेश एक विकृति है।
दीपावली पर पटाखों के उपयोग के प्रमाण मुगलकाल से मिलते हैं,मुगलकाल से पहले भारत में पटाखों का उपयोग नहीं होता था। केवल बारुद का उपयोग वन्य पशुओं को भगाने के लिए किया जाता था,लेकिन जब मुगल साम्राज्य भारत में स्थापित हुआ तो मिट्टी के पात्र और कागज में लपेट कर पटाखों की शुरुआत भारत में हुई। मुगल अपने यहाँ विवाह आदि अवसरों पर धमाकों के लिए बारुद का उपयोग करते थे और उत्सव मनाते थे। चूंकि उस काल में मुगल ही भारत के शासक थे तो यथा राजा तथा प्रजा के अनुसार भारत के मुगल आश्रित सेवकों ने उनका अनुसरण करना प्रारंभ किया। चूंकि दीपावली भारत का सबसे प्रमुख त्योहार माना जाता है तो इस त्योहार पर उल्लास प्रकट करने के लिए मुगल काल में पटाखों से धमाके करने की परम्परा शुरू हुई,जिसका शनै-शनै भारत की जनता ने भी अनुसरण किया।
प्राचीन काल में जनसंख्या का घनत्व कम था,और पर्यावरण प्रदूषण बिलकुल भी नहीं था जिसके कारण बारुद से हुआ वायु और ध्वनि प्रदूषण कुछ समय में समाप्त हो जाता था,लेकिन वर्तमान समय में प्रदूषण चरम पर है और आज तो कोरोना के भयावह प्रभाव से सारा विश्व परेशान है। आज जब साँस संबंधी रोगों से बचाव के लिए सरकार बार-बार जनता से अनुरोध कर रही है। और हम भी पिछले ८-१० महीनों से यह महसूस कर रहे हैं कि कोरोना का सबसे ज्यादा प्रभाव श्वसन तंत्र पर हो रहा है,ऐसे में रसायन से बने पटाखे से निकलने वाला धुंआ और कोरोना के लिए आग में घी डालने जैसा है।
प्रतिवर्ष करोड़ों रुपए के पटाखे जलाए जाते है,जो व्यवहारिक रूप से धन में आग लगाने जैसा है। कुछ लोगों का तर्क है कि पटाखे खुशी प्रकट करने का माध्यम है तो वे यह जानें कि पटाखों का पहला कारखाना शिवकाशी में सन १९४० में लगा था। इससे पहले भारत में पटाखे नहीं बनते थे,तो क्या इससे पहले लोग खुशी व्यक्त नहीं करते थे ? इसके पहले उत्सव नहीं मनाए जाते थे ? पटाखों के कारण समाज या देश को कोई बड़ा लाभ होता है, ऐसा भी नहीं है। आज के समय में जब जीवन और स्वास्थ्य से संघर्ष कर व्यक्ति धन कमा रहा है,तो उस धन को आग लगाना मूर्खता से कम नहीं है। हमें चाहिए कि जनहित और स्वहित दोनों को दृष्टिगत रखते हुए पटाखों का उपयोग स्वेच्छा से ही हम नहीं करें। दीपावली दीप जलाकर मनाएँ स्वयं सुरक्षित रखें परिवार और समाज को भी सुरक्षित रखें।

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