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पागलपन

ममता तिवारी
जांजगीर-चाम्पा(छत्तीसगढ़)
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खिलखिलाता बेतहाशा उछाल आसमाँ,
अँजुरी में भरकर सारे समंदर को
छींटे बालों गिरती बूंदों झटक,
लगाए कहकहे ब-होश खड़ाl

मकड़ी जालों को लगा चाँद से सूरज तक,
दौड़ते सर्द गर्म के एहसास से दूर
पगडंडी गैलेक्सी बीचों-बीच,
चलते पर मदहोश नहीं जराl

उस दिन पर्वतों की सारी चोटियों में घूम,
पहुँच गए सभी गीले कपड़े सुखाने
बम्बूओं में रोके हुए सूरज,
बोले सूख जाए तभी ढलनाl

कहीं जाने का मन हो कोई दबाव दे,
खोल स्क्रू से हाथ-पैर के नट सारे
मम्मी हथेली दोनों आँखें रख,
मोबाइल बैग में सो रहनाl

सरसों की खेत खोजते पीले पटाके,
मिली तो दूसरे का दिमाग फोड़तेl
अब परियाँ नहीं,लड़कियाँ खोजते,
यौवन पागलपन नहीं तो क्या…!!

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