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क्या ‘राम मंदिर’ की सियासी कमाई ‘एनआरसी’ में गंवा रही भाजपा ?

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

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क्या राम मंदिर से कमाई राजनीतिक जमीन भाजपा एनआरसी और सीएए में गंवा रही है ? क्या राष्ट्रीय मुद्दों का रथ राज्यों की सियासी जमीन पर पंक्चर हो रहा है ? क्या राज्यों में हो रही लगातार हार से भाजपा कोई सबक नहीं ले रही है”? संकल्पशक्ति और हठवादिता में बुनियादी फर्क क्या है”? इन तमाम सवालों के जवाब हमे झारखंड के चुनाव नतीजों के संदर्भ में तलाशने होंगे। राजनीतिक पंडितों के लिए हाल में हुए ३ राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे इसलिए भी हैरान करने वाले हैं कि ७ माह पहले भाजपा नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बम्पर बहुमत से दिल्ली में फिर से सत्तासीन हुई थी, लेकिन वो ही मतदाता राज्यों के चुनाव में दूसरे विकल्पों को अहमियत देने लगा। हरियाणा के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने जैसे तैसे जोड़-तोड़ से सरकार बना ली तो महाराष्ट्र में उसकी सहयोगी शिवसेना ने ही तलाक देकर दूसरे राजनीतिक दलों के साथ सत्ता का घर बसा लिया। भाजपा ठगी-सी देखती रह गई। झारखंड में तो भाजपा की हालत यूँ भी ठीक नहीं थी। एग्जिट पोल ने इसके संकेत दे दिए थे। फिर भाजपा को भरोसा था कि उसने जिन राष्ट्रीय वचनों को आनन-फानन में पूरा किया है,उसका प्रतिफल उसे झारखंड में मिल ही जाएगा। अपने दम पर न सही,किसी की बैसाखी के सहारे ‍हम फिर सत्ता में होंगे,लेकिन मतदाता ने साफ जनादेश देकर भाजपा के अरमानों पर पानी फेर दिया। तो फिर चूक कहां हुई ? कहां हो रही है ? पहली बात तो यह है कि पिछली बार भाजपा ने कुछ राज्यों में विपरीत ध्रुवीकरण का समीकरण सफलता से चला था,जो इस बार असफल हो गया। पिछली बार हरियाणा में एंटी जाट,महाराष्ट्र में एंटी मराठा और झारखंड में एंटी आदिवासी दावं भाजपा को खासा लाभांश दे गया था। वर्चस्वशााली जातियों से सत्ता छीन कर वंचित जातियों में सत्ता की ललक जगाने का पैंतरा फिट बैठा। परिणामस्वरूप खट्टर, फडणवीस और रघुबरदास जैसे नेता वजूद में आए,पर इस बार विधानसभा चुनाव में लंबे समय से सत्ता में रही जातियां सतर्क रहीं और उन्होने भाजपा की पुरानी चाल को या तो नाकाम कर दिया या फिर उसे सीमित कर दिया। यह हमने हरियाणा और महाराष्ट्र में देखा। जाहिर है कि,विपरीत ध्रुवीकरण का दांव उस काठ की हांडी की तरह साबित हुआ,जो एक बार ही चढ़ती है। यानी महत्वाकांक्षा को हर बार प्रति-महत्वाकांक्षा से नहीं काटा जा सकता।
राम मंदिर,धारा ३७० और तीन तलाक जैसे राष्ट्रीय मुद्दे झारखंड चुनाव के पहले उछल कर ठंडे हो चुके थे। ऐसे में भाजपा ने सीएए और एनआरसी पर दांव खेला। एनआरसी का मुद्दा झारखंड में भी अहम है,क्योंकि इसके तीन जिलों में बांगलादेशी घुसपैठियों की समस्या है,लेकिन चुनाव में मोदी जी की यह परिभाषा भी कोई खास रंग नहीं दिखा पाई कि बांगलादेशी हिंदू है तो शरणार्थी है और मुस्लिम है तो घुसपैठिया है। धारा का तो झारखंड में कोई मतलब ही नहीं था,बल्कि यहां मुद्दा तो छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम का था,जिसमें संशोधन कर रघुरबर दास सरकार ने तमाम आदिवासियों की नाराजी मोल ले ली थी। हालांकि,भारी विरोध के बाद यह अधिनियम वापस ले लिया गया था,लेकिन इससे आदिवासियों के मन में इस शंका ने घर कर ‍लिया कि भाजपा सरकार उनकी जमीनें छीन कर गैर आदिवासियों को देना चाहती है। यहां भी दल एनआरसी की तरह आदिवासियों की शंकाओं को दूर नहीं कर सका,जिसका खमियाजा उसे चुनाव में भुगतना पड़ा। झारखंड में एनआरसी लागू करने के केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह के छाती ठोंक दावे ने भी मुसलमानों में गलत संदेश दिया। कुल मिलाकर संदेश यह गया कि भाजपा सरकार खेत की कहो तो खलिहान की बात करने लगती है,इससे काम कैसे चलेगा। लिहाजा लोगों ने उस गठबंधन को मत देना बेहतर समझा,जो खेत की बात को खेत के रूप में ही समझने का दावा कर रहा था।
झारखंड के चुनाव नतीजों को भाजपा ने जनादेश के रूप में शिरोधार्य करने की रस्मी बात कही है,क्योंकि हार को स्वीकारने का यह एक शिष्ट तरीका है, लेकिन इस हार से एक बड़ा सवाल यह उभर रहा है कि क्या भाजपा अपने कोर मुद्दे खत्म कर अपनी ही सत्ताओं की समाधि नहीं बना रही है ? हो सकता है कि यह कुछ लोगों को अतिशयोक्ति लगे,लेकिन जो बुनियादी मुद्दे भाजपा ने बरसों खून-पसीना बहा कर पकाए थे,उनका इस तेजी से खत्म होना या कर देना,भाजपा को अस्त्र विहीन दल नहीं बना रहा है ? राम मंदिर सियासी मुद्दे के रूप में अब पुरातात्विक बन चुका है। सबको पता है कि देर-सबेर मंदिर वहां बनना ही है। इंतजार अगर है तो वहां मत्था टेकने की सुनहरी घड़ी का। मंदिर के लिए लहराने वाले त्रिशूल,गदाएं और पताकाएं अब शस्त्रागार में जा चुके हैं। कश्मीर में धारा ३७० की वापसी के
लिए देश की किसी भी सियासी दल को जिगर उधार लेना होगा। यानी वह मुद्दा भी खत्म-सा है। तीन तलाक का सम्बन्ध तो केवल मुस्लिम महिलाओं से जुड़ा था। यानी इन सभी मुद्दों के जरिए मत दोहन की शक्यताएं क्षीण हो चुकी थीं। ऐसे में एनआरसी ऐसा अकेला मुददा बचा था,जिस पर चुनावी दांव खेला जा सकता था,लेकिन लगता है कि यह दांव भी खाली जा रहा है। देश के लोग आमतौर पर घुसपैठियों को निकालने के पक्ष में तो हैं,लेकिन कब,कैसे और किस कीमत पर इसको लेकर एक राय नहीं बन पा रही है। इसके पक्ष में सोशल मीडिया पर चले तमाम अभियान भी राज्यों में मतदाताओं का मन मोड़ने में कामयाब नहीं रहे हैं। दरअसल,भाजपा की हालत उस बारात की तरह हो चुकी है,जो कन्यादान ले चुकी है। अब उसकी खातिरदारी में घरातियों की ज्यादा दिलचस्पी नहीं बची है। झारखंड का सबसे बड़ा सबक यही है कि राज्यों में राज्यों के जमीनी मुद्दों पर चुनाव लड़ना और सर्व समावेशी सुशासन देना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। सही मुद्दों पर भी गलत दांव लगाने का अंजाम वही होगा,जो झारखंड में हुआ।

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