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`मातृभाषा` को संभालने की जरूरत

प्रो. गिरीश्वर मिश्र

दिल्ली

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यूनेस्को ने २१ फरवरी को ‘मातृ भाषा दिवस’ मनाने का निश्चय करने के बाद भारत सरकार ने भी इसका फरमान जारी किया है और इसके आयोजन के निर्देश दिए हैंl शैक्षिक संस्थानों द्वारा आयोजित किए जाने वाले कृत्यों की सूची में अब यह भी शामिल हैl ऐतिहासिक रूप से यह दिन पड़ोसी बांग्ला देश में भाषा के संरक्षण के प्रश्न को ले कर आमजनों की चिंता,छात्रों के आंदोलन और बलिदान की स्मृति से जुड़ा हुआ हैl यह अवसर जीवन में भाषा की केन्द्रीयता पर सोचने को मजबूर करता है,और उसके समादर के लिए प्रेरित करता हैl

भारत एक बहु भाषाभाषी देश हैl यहां की अनेक भाषाओं का बड़ा ही समृद्ध और गौरवशाली साहित्य हैl यह भाषाई बहुलता हमारी बड़ी विरासत है,जिसकी रक्षा और सम्वर्धन सबका दायित्व बनता हैl चूंकि,‘भाषा’ और ‘बोली’ के बीच की सीमा रेखा धूमिल-सी है,इसलिए कुल कितनी भाषाएं हैं,यह कहना टेढ़ा काम हैl तथापि इस बात पर लगभग सहमति-सी है कि,१२५ मुख्य भाषाएं और ८०० सहायक भाषाएं भारत में बोली जाती हैंl इस तरह ये सभी मातृ भाषाएं हैंl इस सिलसिले में संविधान की ८वीं अनुसूची का जिक्र अक्सर आता है,जिसमें २२ भाषाओं की सूची दी गई हैl सरकारी भाषाओं के अधिनियम में,जो १९६३ में बना और १९६७ में संशोधित हुआl संघ की भाषा,संसदीय कार्य,केन्द्रीय और सरकारी काम आदि और कुछ कार्यों हेतु उच्च न्यायालय में भाषा विषयक प्रावधान किए गए हैंl इसके उपबंध ३४३,३४४ तथा ३४८ एवं २३४९ के अनुसार अंग्रेजी और हिंदी संघ की सरकार,उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय हेतु राज भाषाएं हैंl १९६८ के संकल्प के नुसार ८वीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाएं और अंग्रेजी को अखिल भारतीय तथा उच्च केन्द्रीय सेवाओं की परीक्षा में वैकल्पिक माध्यम की अनुमति संघीय लोक सेवा आयोग के साथ परामर्श के आधार पर भविष्य में दी जाएगीl उपबन्ध ३४५ के अनुसार राज्य में प्रयुक्त कोई भाषा या हिंदी का उपयोग सम्भव हैl

कहना न होगा कि,भाषा एक विलक्षण किस्म की मानवी रचना है,पर हमारे निजी और सार्वजनिक जीवन को अदभुत ढंग से रचती रचाती चलती हैl वह हमें न केवल अभिव्यक्ति की दृष्टि से शक्तिसंपन्न बनाती है,बल्कि इसके सहारे हम सोचते हैं और नए क्षेत्र में कल्पना की उड़ान भी भरने लगते हैंl इस तरह भाषा यथार्थ की रचना करने में सहायक होती हैl निश्चय ही भाषा इस धरती पर होने वाला सबसे बड़ा आविष्कार और सामाजिक उपलब्धि है,पर इसका उपयोग हम कैसे करते हैं,यह हमारी अपनी वरीयताओं पर निर्भर करता हैl

भाषा संचार का साधन है,तथा सूचना और ज्ञान के संरक्षण का उत्कृष्ट उपाय हैl वह उपलब्ध ज्ञान को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे ले जाना भी संभव और सुलभ बना देती हैl चूंकि,भाषा प्रतीकों की एक ऎसी व्यवस्था होती है,जो समाज द्वारा स्वीकृति प्राप्त कर चुकी होती है,वह समाज के अस्तित्व के साथ विशेष रूप से जुड़ जाती है और उसकी अस्मिताएं बनाने में खास भूमिका निभाती हैंl अत: भाषा का प्रयोग ही भाषा के अस्तित्व और शक्ति को सुनिश्चित करता हैl यह अनुमान किया जा रहा है कि,प्रतिदिन जाने कितनी भाषाएँ मर रही हैं क्योंकि उके बोलने वाले मर रहे हैंl ऐसे में भाषाएँ ऊंच-नीच की एक हायरार्की में स्थापित हो कर जीती हैं और शक्तिसंपन्न भाषा दूसरी कम शक्ति वाली भाषाओं को दबा देती हैंl

समाज में किसी भाषा का सत्ता के साथ जुड़ना उसे सीधे-सीधे सामाजिक न्याय के प्रश्न से जोड़ देता हैl अक्सर भाषाओं के प्रयोक्ता की हैसियत और सामाजिक प्रतिष्ठा भाषा की हैसियत और प्रतिष्ठा बन जाती हैl यद्यपि,इसके कुछ अपवाद भी हो जाते हैं,उदाहरण के लिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने `रामचरितमानस` की रचना अवधी भाषा में की और संस्कृत के भाषिक आभिजात्य से न जुड़ कर भी वह रचना जनता-जनार्दन में ऊंची प्रतिष्ठा पा सकीl ऐसे ही जायसी,सूर,कबीर,रहीम की कविता भी जन सामान्य में लोकप्रिय और प्रतिष्ठित हुईl

आम तौर पर भाषा का भविष्य और क्षमता उसके प्रयोक्ता पर ही निर्भर करती हैl भारत में प्रायः लोग २ भाषाएँ बोलते हैं या कहें द्विभाषी या बहु भाषा-भाषी हैंl उत्तर भारत में भोजपुरी,हिन्दी और अंग्रेजी प्रचलित है,जिनका उपयोग लोग घर और बाहर अलग-अलग मौकों पर करते हैंl थोड़ा और ध्यान दें तो यह स्प्ष्ट हो जाता है कि सामाजिक यथार्थ के स्तर पर भाषा हमें जोड़ती है और तोड़ती भी हैl वह संवाद को संभव बना कर लोगों को आपस में जोड़ कर सहयोग की ओर ले चलती है,दूसरी ओर भाषा से अपरिचय-दूरी बढ़ा कर हिंसा तक पैदा कर देता हैl दुर्भाग्य से भाषाओं को आधार बना कर देश का विभिन्न प्रदेशों की इकाइयों में विभाजन की घटना ने समाज में मानसिक चहारदीवारियां खड़ी कर दीं और उत्तर-दक्षिण में गहरा भेद खड़ा कर दियाl दूसरी ओर सभी भारतीय भाषाओं के सामने विदेशी भाषा अंग्रेजी खड़ी हो गई,जिसने समाज में शक्ति और अधिकार की,ऊंच और नींच की,ज्ञान और जड़ता की,शासक और शासित की श्रेणियां बना दींl अंग्रेजी ने ऎसी गहरी खाई खोद दी,जिसे पाट पाना मुश्किल होता गयाl औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों की रीति-नीति से भारत में जो धारा चल निकली,कमोबेश वही अभी भी प्रवाहित रही हैl अंग्रेजी का एकाधिकार बन गया, वही सरकारी काम-काज,न्याय और ज्ञान सबकी भाषा बन गईl अंग्रेजी हमारी पहचान और आदर्श बन गईl हमारी महत्वाकांक्षा अंग्रेजी बोलने और अंग्रेज की तरह बनने-दिखने में ही समा गईl आज की परिस्थिति किसी से छिपी नहीं हैl वांछित भाषा न जानने के कारण आम नागरिक के लिए अपनी भूमिकाओं का निर्वाह करना प्राय: कठिन हो जाता हैl इसका परिणाम होता है कि वे उन सामान्य अधिकारों से भी वंचित हो जाते हैं,जो उन्हें नागरिक के रूप में मिलने चाहिएl उनके दैनिक कार्यों के सम्पादन की गति धीमी पड़ जाती है,और व्यवधान पड़ने से उनका नुकसान होता हैl

भाषा का सबसे घनिष्ठ सम्बन्ध शिक्षा से है,जो समाज के मानस और कौशल के विकास को निर्धारित करती हैl यह एक दुखती रग है,जिस ओर चाहते हुए भी आवश्यक ध्यान नहीं दिया जा सका हैl शिक्षा जगत और सरकारी हल्कों में मानसिक अवरोध बना हुआ है,जिससे जान-बूझ कर छात्रों की शैक्षिक उपलब्धि नकारात्मक ढंग से प्रभावित होती हैl अंग्रेजी को प्राथमिकता मिलने से गैर अंग्रेजीदां छात्र-छात्राएं व्यावसायिक जीवन में पिछड़ जाते हैंl उनमें हीनता का भाव पैदा होता हैl टूटे हुए मनोबल से काम करते हुए उनमें हिंसा का भाव भी उपजता हैl यह एक कटु तथ्य है कि,भाषाजन्य भेदभाव पीढ़ी दर पीढ़ी चलता है और उससे उबरना प्रायः कठिन होता हैl इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि उसका संचित परिणाम सामाजिक-आर्थिक विकास को बाधित करता हैl भारत के लिए नई शिक्षा नीति बन रही है,आशा की जाती है कि `सबका साथ सबका विकास` के लक्ष्य से प्रतिबद्ध सरकार मातृ भाषा को शिक्षा के माध्यम के रूप में कम-से-कम प्राथमिक स्तर पर,अनिवार्य करेगीl

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन,मुंबई)

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