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रूठी हँसी की खोज

योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र)
पटना (बिहार)
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तेरासी टपे तो कुछ बूढ़े लोगों से संगति हुई। समय-समय पर गोष्ठी होने लगी। अच्छा लगा। इस तरह कई मास बीते। संगतियों को मेरी उपस्थिति भाने लगी। लोग मेरी हँसी न देखने की भी चर्चा करने लगे। सहसा एक दिन मैं उस गोष्ठी से अनुपस्थित हो गया। फिर से आने पर उनकी जिज्ञासा थी कि मैं कहाँ रहा ? मैंने बताया कि पुलिस गिरफ्त में! लोग चौंक पड़े! ऐसा संभव नहीं,वरन् असंभव है। मेरे जैसे शांत व्यक्ति के लिए, ऐसा कैसे हो सकता है ? मुश्किल से ही इसका विश्वास होता है कि,और यह हँसने की भी बात है,पर मेरी रूठी हँसी के चलते वह भी संभव नहीं है। घर आकर सोचने लगा कि आखिर मेरी हँसी कहाँ रूठ गई! रातभर सोचते-सोचते नींद आ गई। भोर होते ही मैं आदतन अपनी छड़ी लेकर बाहर निकल गया और पुरानी बातों को फिर से टटोलने लगा। हुआ यों था कि मैं रोज जो घूमने जाता था तो राह में खेलते धूल-धूसरित बच्चे मुझे ‘गाँधी बाबा-गाँधी बाबा’ कहकर मेरी ओर देखने लगते थे। शायद उन्होंने गाँधी जी का चित्र दीवार पर कहीं टंगा देखा होगा! इसी क्रम में रास्ते के बगल में खिला एक फूल तोड़कर मैंने उनमें से एक बच्चे को दे दिया था। फूल पाकर वह बहुत खुश हुआ। फूल देने का यह क्रम रोज-रोज चलता रहा। सुबह घूमने के वक्त उन बच्चों को निहारते रहना मेरी दिनचर्या हो गई थी। अंग्रेज़ी के ‘स्ट्रीट चिल्ड्रन’ की तरह वे थे; जरा-सा भी स्नेह पाकर वे निछावर हो जाते थे। काश! मेरी सन्तान भी ऐसी ही होती! वह बच्चा तो फूल पाकर फूलकर कुप्पा हो जाता था! रोज ही दूर से ही मुझे देखकर मेरी ओर दौड़ पड़ता और फूल ले लेता! पर एक दिन मैंने पाया कि वह बच्चा नहीं है और हाथ का फूल हाथ में ही लेकर मैं घर लौट गया,तथा अनमने भाव से टेबल पर रख दिया। फूल एक-दो दिन में सूखकर लकड़ी-सा हो गया। उस सूखे फूल को देखकर मेरे शरीर में जैसे आग लग जाती। शायद बच्चे के माता-पिता ने डेरा बदल लिया हो!
एक दिन मैं घूमने के ही क्रम में थाना के पास के बाजार होकर जा रहा था तो सहसा ३ वर्ष का एक बच्चा हाथ उठाते हुए मेरी ओर दौड़ता आया और जबर्दस्ती मेरी गोदी में चढ़ गया। जब तक मेरा ध्यान उस ओर जाता कि थाना के दरोगा जी मेरे पास आ धमके और कहा कि,’थाना में चलकर बैठ जाए। आपसे एक जरूरी बात करनी है।’ आज्ञाकारी बालक की तरह मैं उनके पीछे-पीछे चला। इशारा पाकर एख सिपाही ने मेरी गोद से खींच कर बच्चे को अपने पास ले लिया। मैं हक्का-बक्का रह गया। दरोगा जी ने मेरे लिए चाय-बिस्कुट मंगवाया और खोद-खोद कर बच्चे के बारे में पूछना शुरू किया,पर मैंने अनजान होने की बात उन्हें कही। दारोगा जी नहीं माने और तल्ख आवाज़ में मुझसे कहा कि, ‘बच्चा आपकी गोद में दौड़ते हुए आ गया और आप पहचान को झुठला रहे हैं,तो अब निश्चय ही मुझे आपको हाजत में बंद करना पड़ेगा!’ मेरी तो सिट्टी-पिट्टी गुम! मैं तो गर्मी,पसीने से नहा गया! तब तक बच्चे का पिता बच्चे के गुम होने का सनहा लिखाने थाना पर आ गया और बच्चे व मुझे देखकर खुशी में डूब गया तथा मैं काल- कोठरी में जाने से बच गया।
बच्चे का पिता थाना से बाहर होते ही मेरा पैर छू-छूकर प्रणाम करने लगा और कहा कि मेरे बच्चे को जितना आपसे दुलार-प्यार मिला, उसे मैं सात जनम में भी आपको चुका नहीं सकता। आप जब भी हुकुम करेंगे,मैं बेटा की तरह सेवा के लिए हाजिर हो जाऊंगा।
‘बेटा’ शब्द सुनते ही मेरी आँखें डबडबा गईं और उसको छिपाते हुए मुँह घुमा के घर की ओर की बाट पर मैं चल पड़ा। भला इससे बड़ी हँसी मन को और कहाँ मिलेगी…?

परिचय-योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र) का जन्म २२ जून १९३७ को ग्राम सनौर(जिला-गोड्डा,झारखण्ड) में हुआ। आपका वर्तमान में स्थाई पता बिहार राज्य के पटना जिले स्थित केसरीनगर है। कृषि से स्नातकोत्तर उत्तीर्ण श्री मिश्र को हिन्दी,संस्कृत व अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान है। इनका कार्यक्षेत्र-बैंक(मुख्य प्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त) रहा है। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन सहित स्थानीय स्तर पर दशेक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए होकर आप सामाजिक गतिविधि में सतत सक्रिय हैं। लेखन विधा-कविता,आलेख, अनुवाद(वेद के कतिपय मंत्रों का सरल हिन्दी पद्यानुवाद)है। अभी तक-सृजन की ओर (काव्य-संग्रह),कहानी विदेह जनपद की (अनुसर्जन),शब्द,संस्कृति और सृजन (आलेख-संकलन),वेदांश हिन्दी पद्यागम (पद्यानुवाद)एवं समर्पित-ग्रंथ सृजन पथिक (अमृतोत्सव पर) पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सम्पादित में अभिनव हिन्दी गीता (कनाडावासी स्व. वेदानन्द ठाकुर अनूदित श्रीमद्भगवद्गीता के समश्लोकी हिन्दी पद्यानुवाद का उनकी मृत्यु के बाद,२००१), वेद-प्रवाह काव्य-संग्रह का नामकरण-सम्पादन-प्रकाशन (२००१)एवं डॉ. जितेन्द्र सहाय स्मृत्यंजलि आदि ८ पुस्तकों का भी सम्पादन किया है। आपने कई पत्र-पत्रिका का भी सम्पादन किया है। आपको प्राप्त सम्मान-पुरस्कार देखें तो कवि-अभिनन्दन (२००३,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन), समन्वयश्री २००७ (भोपाल)एवं मानांजलि (बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन) प्रमुख हैं। वरिष्ठ सहित्यकार योगेन्द्र प्रसाद मिश्र की विशेष उपलब्धि-सांस्कृतिक अवसरों पर आशुकवि के रूप में काव्य-रचना,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के समारोहों का मंच-संचालन करने सहित देशभर में हिन्दी गोष्ठियों में भाग लेना और दिए विषयों पर पत्र प्रस्तुत करना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-कार्य और कारण का अनुसंधान तथा विवेचन है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचन्द,जयशंकर प्रसाद,रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और मैथिलीशरण गुप्त है। आपके लिए प्रेरणापुंज-पं. जनार्दन मिश्र ‘परमेश’ तथा पं. बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ हैं। श्री मिश्र की विशेषज्ञता-सांस्कृतिक-काव्यों की समयानुसार रचना करना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“भारत जो विश्वगुरु रहा है,उसकी आज भी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हिन्दी को राजभाषा की मान्यता तो मिली,पर वह शर्तों से बंधी है कि, जब तक राज्य का विधान मंडल,विधि द्वारा, अन्यथा उपबंध न करे तब तक राज्य के भीतर उन शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए उसका इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था।”

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