कुल पृष्ठ दर्शन : 448

You are currently viewing खुद को जीत जाना ही आत्मसंयम

खुद को जीत जाना ही आत्मसंयम

डॉ.अरविन्द जैन
भोपाल(मध्यप्रदेश)
***************************************************

‘आत्मसंयम’ का सहज और सरल अर्थ है अपने-आप पर,मन पर नियंत्रण। इसका शाब्दिक अर्थ जितना सरल प्रतीत होता है, वास्तविक जीवन में इसको प्रयोग में लाना और आत्मसात करना उतना ही कठिन है। इसकी महत्ता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि स्वयं भगवान श्रीकृष्ण को गीता में इसके बारे में विस्तार से समझाना पड़ा था। इस पृथ्वी पर जितने भी महापुरुष,ऋषि, महर्षिगण अवतरित हुए हैं,उनके जीवन का अध्ययन करने पर एक बात जो सभी में समान पाई जाती है वह यह कि उनके उत्कर्ष प्राप्ति में जो सबसे अहम कारक था,वह आत्म संयम ही था।
मानव जीवन में संयम की आवश्यकता को सभी विचारशील व्यक्तियों ने स्वीकारा है। सांसारिक व्यवहारों और संबंधों को परिष्कृत तथा सुसंस्कृत रूप में स्थिर रखने के लिए संयम की अत्यंत आवश्यकता है। संसार के प्रत्येक क्षेत्र में, जीवन के हर पहलू पर सफलता,विकास एवं उत्थान की ओर अग्रसर होने के लिए संयम की बहुत उपयोगिता है।
हम सभी जानते हैं कि मन से चंचल कुछ भी नहीं है। अपनी भावनाओं को खुला छोड़ देने से हम अपनी कई शक्तियाँ नष्ट कर बैठते हैं। शक्ति,असल में कार्य करने में व्यय करनी चाहिए,पर वह भावना के रूप में नष्ट हो जाती है। जब मन पूर्णतया स्थिर एवं एकाग्र होता है,तभी उसकी पूरी शक्ति शुभ कार्य करने में व्यय होती है। संसार के महापुरुषों का जीवन अद्भुत स्थिर रहा है। शांत,क्षमाशील,उदार एवं स्थिर मन ही सबसे अधिक कार्य कर पाता है। यही असल में आत्म संयम है। अपना मित्र वह है,जिसने अपने-आपको जीत लिया है। खुद को जिसने नहीं जीता,वह अपना ही शत्रु है।
संसार में कोई भी नियम बिना आत्म संयम के संभव नहीं है। शारीरिक संयम भी बिना उसकी सहायता के नहीं चल सकता। आधुनिक समय में चारों ओर हम मनुष्य को इंद्रियों का दास ही पाते हैं। कभी-कभी लोग छोटी-छोटी भौतिक वस्तुओं (शराब,जुआ आदि) के दासत्व में इस कदर घिर जाते हैं कि बड़ी शान से कहते फिरते हैं कि मैं इसके बिना रह नहीं सकता। मनुष्य यदि ऐसी वस्तुओं का दासत्व इस कदर स्वीकार कर ले कि उसके बिना उसे अपना जीवन दूभर प्रतीत होने लगे तो क्या ऐसे आत्मबल पर किसी बड़े लक्ष्य को हासिल कर पाएगा ? यहीं जरूरी होता है आत्म संयम।
समाचार पत्रों में नित्य प्रति पढ़ने को मिलता है कि किसी ने रेल से कटकर जीवन समाप्त कर लिया,या क्रोध के वश में भाई या पिता की हत्या कर दी और खुद भी मर गया। यह सब आत्म संयम के अभाव के कारण होता है। यदि विषम परिस्थितियों में भी मनुष्य सोच,विचार,विवेक तथा दृढ़ता से काम ले तो वह अनेक संकट विपदाओं से बच सकता है। विषम परिस्थिति में ही आत्म संयम की जरूरत पड़ती है,और इसमें अभ्यासी मनुष्य ही सफल होता है। आत्म संयम के लिए हमेश सतत प्रयास करने की जरूरत है। हम अपनी वासनाओं,बुराइयों और बुरी आदतों पर काबू पाने के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहें,तभी हम आत्म संयमित कहलाएंगे। इस पथ पर चलने वाला हमेशा सफल होता है एवं समाज को बदलने का माद्दा रखता है।
आत्म संयम के कठिन रास्ते पर चलने वालों को कुछ बातों का ध्यान रखना चाहिए-हर दिन अपना आत्म निरीक्षण करते रहना चाहिए। अपने दोष,बुराइयों को जान- बूझकर छिपाना या उस पर पर्दा नहीं डालना चाहिए। अपनी बुराइयों को सहर्ष स्वीकार करना चाहिए। उसे दूर करने का प्रयास करना चाहिए।

संयम के लिए नैतिक बल की बुद्धि जरूरी है। संयम साधना में संगति एवं स्थान का काफी प्रभाव पड़ता है। खराब चरित्र एवं दुर्विचार वाले व्यक्तियों एवं ऐसे स्थान जहां असंयम का वातावरण होता है, संयम साधना में सफलता नहीं मिलती है। वहीं, अच्छे लोगों की संगत एवं सात्विक वातावरण में रह कर इसे पाया जा सकता है।
आत्म संयम के पथ पर चलना कोई साधारण कार्य नहीं है। बुरी आदतें एवं वासनाएं अच्छे-अच्छों के धैर्य को हिला कर रख देती हैं। निराशा घर कर जाती है। धैर्य जवाब देने लगता है। इसके लिए अटूट साहस की जरूरत है। साहस एवं धैर्य के सहारे निरन्तर प्रयास करने पर संयम साधना की प्राप्ति अवश्य होती है। याद रखना होगा कि असंभव कुछ भी नहीं होता,बस फौलादी जिगर चाहिए। कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। कहते हैं कि,संयम उस मित्र के समान है,जो ओझल होने पर भी मनुष्य की शक्ति-धारा में विद्यमान रहता है।
यह भी अहम है कि,असली संयम का संबंध भीतरी समझ से होता है। संयम द्वारा अपनी बिखरी शक्ति को एक निश्चित दिशा दी जाती है। लक्ष्य का निश्चय होते ही वैसे पदार्थ और व्यक्ति निरर्थक लगने लगते हैं,जो लक्ष्य प्राप्ति में सहायक नहीं होते, बल्कि बाधक होते हैं। इस संदर्भ में की जाने वाली सतत विचार प्रक्रिया सहज संयम का कारण बनती है।

परिचय- डॉ.अरविन्द जैन का जन्म १४ मार्च १९५१ को हुआ है। वर्तमान में आप होशंगाबाद रोड भोपाल में रहते हैं। मध्यप्रदेश के राजाओं वाले शहर भोपाल निवासी डॉ.जैन की शिक्षा बीएएमएस(स्वर्ण पदक ) एम.ए.एम.एस. है। कार्य क्षेत्र में आप सेवानिवृत्त उप संचालक(आयुर्वेद)हैं। सामाजिक गतिविधियों में शाकाहार परिषद् के वर्ष १९८५ से संस्थापक हैं। साथ ही एनआईएमए और हिंदी भवन,हिंदी साहित्य अकादमी सहित कई संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आपकी लेखन विधा-उपन्यास, स्तम्भ तथा लेख की है। प्रकाशन में आपके खाते में-आनंद,कही अनकही,चार इमली,चौपाल तथा चतुर्भुज आदि हैं। बतौर पुरस्कार लगभग १२ सम्मान-तुलसी साहित्य अकादमी,श्री अम्बिकाप्रसाद दिव्य,वरिष्ठ साहित्कार,उत्कृष्ट चिकित्सक,पूर्वोत्तर साहित्य अकादमी आदि हैं। आपके लेखन का उद्देश्य-अपनी अभिव्यक्ति द्वारा सामाजिक चेतना लाना और आत्म संतुष्टि है।

Leave a Reply