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आचार्य द्विवेदी का संपूर्ण साहित्य मानव की प्रतिष्ठा का प्रयास

डॉ. दयानंद तिवारी
मुम्बई (महाराष्ट्र)
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जिसमें सारे मानव सभ्यता को सुंदर बनाने की कल्पना की जाती है,उसे ही तो साहित्य कहते हैं। साहित्य की हर महान कृति अपनी ऐतिहासिक सीमाओं का अतिक्रमण करने की क्षमता रखती है। अपनी संस्कृति के स्मृति संकेतों,मिथकों और भाषाई प्रत्यय से गुजरते हुए हर कविता,हर निबंध,हर उपन्यास मनुष्य के समग्र और सार्वभौमिक अनुभव को आलोकित कर पाते हैं…उसके सामने सहसा इतिहास,समय और संस्कृत की दीवारें ढह जाती है। इसीलिए साहित्य की स्वायत्तता किसी भी विधा से शक्तिशाली होती है।
सामाजिक जीवन की संरचना में साहित्यकार अन्य सामाजिक लोगों की भांति सामान्य होते हुए भी मानसिक भूमिका पर अवश्य ही उनसे विशिष्ट होता है। व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रिया में प्रतिक्रियात्मक रूप से प्रभावित होने के उपरांत अपने परिपक्व व्यक्तित्व द्वारा प्रभावित करने की यह प्रक्रिया साहित्यकार की वह मौलिक उपलब्धि है,जिसके द्वारा वह समाज के अन्य व्यक्तियों से विभिन्नता और विशिष्टता प्राप्त करता है और उसके वैशिष्ट्य की सार्थकता इस बात में है कि उसकी विशिष्ट चिंतनधारा और व्यक्तित्व से समाज को विभिन्न स्तरों पर जीवन यापन की विशिष्ठ रचनात्मक प्रेरणा मिलती है। साहित्यकार सही अर्थों में समाज को चिंतनशील,रचनात्मक प्रेरणा दे सके,उसके लिए उदात्त आदर्श की दृष्टि-पथ पर रखकर उस दिशा में निरंतर साधना करने की अपेक्षा साहित्यकार से होती है। आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के संपूर्ण साहित्य में इस सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ कृति मानव को गरिमा प्रदान करने का यह संकल्प विद्यमान है। उनके निबंधों में मानव की गरिमा अनेक स्थलों पर व्यक्त हुई है। उनके अनुसार जो जैसा है,उसे वैसा ही मान लेना मनुष्य पूर्व जीवों का लक्षण था,पर जो जैसा है वैसा नहीं,बल्कि जैसा होना चाहिए वैसा करने का प्रयत्न मनुष्य की अपनी विशेषताएं हैं। इसमें प्रयत्न की आवश्यकता होती है,प्रयत्न करना मनुष्य का स्वाभाविक धर्म है।
द्विवेदी जी का संपूर्ण साहित्य मानव की प्रतिष्ठा का प्रयास है। मानव उनके लिए सार्वभौम सत्ता है। वे साहित्य को भी मनुष्य की दृष्टि से देखने के पक्षपाती हैं। साहित्य मनुष्य के हितार्थ उपयोग में लाया गया साधन मात्र है,वह स्वयं साधन नहीं है। जीवन निर्वाह के संदर्भ में हमें सर्वप्रथम अपने सामयिक समस्याओं के समाधान खोजने होते हैं। साहित्य इन्हीं संसाधनों की खोज में हमारी सहायता करता है। कलाबाजी का वाग्जाल उन्हें पसंद नहीं। उनकी दृष्टि में जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति,हीनता,परमुखापेक्षी से बचा न सके,जो उसकी आत्मा को तेजोदीप्त न बना सके,जो उसके हृदय को पर:दु:ख कातर और संवेदनशील न बना सके,उसे साहित्य कहने में संकोच होता है।
डॉ. द्विवेदी वास्तविक अर्थों में बहुश्रुत,बहुविद् थे। उनके अध्ययन का दायरा बहुत व्यापक था।
हिंदी साहित्य के सभी प्रबुद्घ लेखक यह मानते हैं कि हिंदी साहित्य में असली आचार्य एक ही हैं-आचार्य रामचंद्र शुक्ल। द्विवेदी जी पंडित जी कहलाते हैं,राहुल सांकृत्यायन महापंडित। यहां एक बात गौर करने की है-द्विवेदी जी पंडित कहलाते हैं,लेकिन कबीर उनके सबसे प्रिय हैं। जैसे ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ द्विवेदी जी की प्रतिष्ठा का आधार है,वैसे ही मध्यकालीन संत कवि कबीरदास पर लिखी गई किताब ‘कबीर’ भी उनकी अशेष प्रतिष्ठा का आधार है,और आज भी कबीर के साहित्य को समझने का प्रस्थान बिंदु एवं आधार है।
उन्होंने सभी विधाओं में कालजयी रचना की है। विचार और वितर्क, कल्‍पना,अशोक के फूल,कुटज,साहित्‍य के साथी,कल्‍पलता विचार-प्रवाह आलोक-पर्व उनके निबंध संग्रह हैं।
द्विवेदी जी के निबंधों के विषय भारतीय संस्कृति,इतिहास,ज्योतिष, साहित्य विविध धर्मों और संप्रदायों का विवेचन आदि है। द्विवेदी जी के इन निबंधों में विचारों की गहनता,निरीक्षण की नवीनता और विश्लेषण की सूक्ष्मता दिखाई देती है।
पुनर्नवा,बाणभट्ट की आत्‍मकथा,चारु चन्‍द्रलेख,अनामदास का पोथा उनके महत्वपूर्ण उपन्यास हैं।
सूर-साहित्‍य,कबीर,सूरदास और उनका काव्‍य, हमारी साहित्यिक समस्‍याऍं,साहित्‍य का धर्म,कालिदास की लालित्‍य-योजना आदि वे ग्रंथ हैं जिसे पढ़े और समझे बिना आज भी कोई साहित्यकार न तो लेखन का मार्ग प्रशस्त कर सकता है,न ही लेखकीय प्रतिबद्धता को समझ सकता है। प्राचीन भारत की कला विकास,नाथ सम्‍प्रदास,मध्‍यकालीन धर्म साधना,हिंदी-साहित्‍य का अदिकाल वे ग्रंथ हैं जिसे साहित्य के हर विद्यार्थी को साहित्य के समझ के लिए पढ़ना ही होता है।
उन्होंने सूर,कबीर,तुलसी आदि पर जो विद्वत्तापूर्ण आलोचनाएं लिखी हैं, वे हिंदी में पहले नहीं लिखी गईं। उनका निबंध-साहित्य हिंदी की स्थाई निधियों में से है। उनकी समस्त कृतियों पर उनके गहन विचारों और मौलिक चिंतन की छाप है। विश्व-भारती आदि द्वारा द्विवेदी जी ने संपादन के क्षेत्र में भी पर्याप्त सफलता प्राप्त की है। आचार्य द्विवेदी के साहित्य में मानवता का परिशीलन सर्वत्र दिखाई देता है। उनके निबंध तथा उपन्यासों में यह दृष्टि विशेष रूप से प्रतीत होती है।
द्विवेदी जी का व्यक्तित्व बड़ा प्रभावशाली और उनका स्वभाव बड़ा सरल-उदार था। ८ नवम्बर १९३० से द्विवेदी जी ने शांति निकेतन में हिन्दी का अध्यापन प्रारम्भ किया। वहाँ गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर तथा आचार्य क्षितिमोहन सेन के प्रभाव से साहित्य का गहन अध्ययन किया तथा अपना स्वतंत्र लेखन भी व्यवस्थित रूप से आरंभ किया। आप १९५७ में राष्ट्रपति द्वारा ‘पद्मभूषण’ की उपाधि से सम्मानित किए गए।
कबीर साहित्य के प्रखर वक्ता होने के साथ ही वे अक्खड़ व्यक्त्तिव के धनी थे। वे सच को स्वीकार करने और असत्य को नकार देने के लिए तत्पर रहते थे,इसी स्वभाव के कारण उनके समर्थकों से ज्यादा उनके साहित्यिक विरोधी तत्वों की संख्या बहुत अधिक थी।
आप जुलाई १९६० से पंजाब विश्वविद्यालय(चंडीगढ़) में हिंदी विभाग के प्रोफेसर और अध्यक्ष रहे। कालान्तर में उत्तर प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी के अध्यक्ष तथा १९७२ से आजीवन उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान(लखनऊ) के उपाध्यक्ष पद पर रहे। १९७३ में ‘आलोक पर्व’ निबन्ध संग्रह के लिए उन्हें ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। वे हिंदी साहित्य के विकास की विभिन्न धाराओं के ध्रुव हैं। हिंदी साहित्य सदैव उन्हें निबंधकार,उपन्यासकार,आलोचक एवं भारतीय संस्कृति के युगीन व्याख्याता के रूप में याद करता रहेगा।

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