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श्रुतिमधुर शब्दोंके चितेरे महाकवि कालिदास

गोपाल चन्द्र मुखर्जी
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
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जयतु: महाकवि कालिदास।
सुदीर्घकाल से निरंतर परिश्रम करते हुए चयन किए गए सुंदर,श्रुतिमधुर एवं अर्थवाहक शब्दों का जाल बुनकर साहित्य को रचित या सृजित किया जाता है। नीरस शब्दों को मधुमय रसासिक्त कर साहित्य को श्रुतिमधुर किया जाता है। सिर्फ गुणीजनों के कारण व साधना से सुंदर साहित्य प्रकाशित होता है। जैसे नीरस पत्थर से या शुखा धातु या तारों से भी निकलते हैं मधुर सप्त स्वर या ध्वनि,उसी अनुरूप नीरस चमड़ी या खाल से निर्मित वाद्ययंत्र से भी ताल उत्पन्न होती हैl सिर्फ उन्हीं को ही श्रेष्ठता का ताज प्राप्त होता है,जिन्होंने साधनालब्ध अध्ययन से निपुणता को प्राप्त किया हो। ऐसे ही निरंतर साधना का सुफल मिला था महाकवि कालिदास जी को,एवं जीवन में अपार श्रेष्ठता भी मिली।
महाकवि कालिदास जी की श्रेष्ठता की प्राप्ति के पूर्वार्ध जीवन में उनकी शिक्षा,ज्ञान व विद्या की परिधि के विषय पर प्रारंभिक काल से ही प्रचलित धारणा के अनुसार या दंतकथाएं विश्व के सर्वजनों को ज्ञात है।
आज के दिन भी विश्व के लोग महाकवि कालिदास रचित साहित्य की सुधा-रस का अमृतपान नहीं कर पाते,यदि स्वयं वागदेवी ज्ञान विद्यादायिनी माँ सरस्वती देवी जी से वरदान या कृपा लाभ कालिदास को प्राप्त नहीं होता! सिर्फ यह नहीं,आज से करीबन दो हजार वर्ष से भी ज्यादा समय पूर्व तत्कालीन विशाल भारतवर्ष को मिला था एक सम्राट विक्रमादित्य। वह एक सर्वगुणी,परम प्रतापी, प्रभावशाली शासक एवं गुणीजनों के प्रेमी-गुणग्राही रहे। सम्राट विक्रमादित्य के राज दरबार में उनके द्वारा तत्कालीन श्रेष्ठ गुणीजनों को संग्रहित कर नवरत्न सभा गठित किया गया। इसमें कालिदास का स्थान पाना असम्भव था,यदि उन पर देवी सरस्वती की कृपा नहीं होती!
आज भी विश्व के सर्वत्र साहित्य के रसिकजन निरंतर महाकवि कालिदास रचित महाकाव्यों की अमृत सुधा से परिपूर्ण साहित्यरस का पान कर रहे हैं,
कालिदास जी के सन्दर्भ से एक छोटी-सी कहानी सिर्फ नवीनजनों के लिए पेश कर रहा हूँ,ताकि कालिदास के शब्द प्रयोग का एक नमूना पता लग सके। सम्राट विक्रमादित्य जी क़ी राजसभा में तत्कालीन विभिन्न विषय में परम ज्ञानी,गुणी,विद्वानजनों का स्थान रहा। सम्राट ने उन्हीं लोगों में से श्रेष्ठ ९ जनों का चुनाव करते हुए सभा गठित की थीं। तत्कालीन विख्यात विद्वान जनों में अमर सिंह,कालिदास,वराह मिहिर,क्षपणक, घटकर्पर आदि विभिन्न क्षेत्र से श्रेष्ठ पंडित रहे। उस सभा में इन सदस्यों में स्वयं को प्रतिष्ठित व सम्राट का प्रिय बनने के लिए पारस्परिक प्रतिद्वन्दिता एवं ईर्ष्या से कालिदास भी पीड़ित रहे। सम्राट की सभा में रहे पण्डित विद्यापति जी सर्वमान्य प्रचण्ड पण्डित सर्व शास्त्रों के ज्ञानी,लेखक व अनेकानेक विधाओं में गुणी। इतने ज्ञानी या विद्वान होने के बावजूद भी वह कालिदास के प्रति ईर्ष्यान्वित रहे, क्योंकि,सम्राट कालिदास जी को नवरत्न सभा के सभी ज्ञानी-गुणी व पण्डित जनों में से सर्वाधिक पसन्द व स्नेह करते थे। कालिदास से पण्डित विद्यापति जी मन में प्रतिद्वन्दी मनोभाव का पोषण करते हैं,यह बात सम्राट को भी मालूम थी। इसलिए एक दिन सम्राट ने मनःस्थिर किया कि विद्यापति को यह समझाना ही होगा कि क्या वजह है जिसके कारण कालिदास को सम्राट सर्वाधिक पसंद करते हैं। इसलिए, सम्राट विक्रमादित्य जी सुपरिकल्पना के अनुरूप एकदिन नवरत्न सभा के समस्त सदस्यों एवं राजसभा के सभी सदस्य,मंत्री मण्डल, परिषद,सेनाप्रधान आदि सभी को लेकर नगर परिभ्रमण करने निकले। परिभ्रमण के मार्ग पर गिरे हुए एक सूखे पेड़ के दिखने पर प्रत्युतपन्नमति सम्राट विक्रमादित्य ने इस सुयोग को काम में लेने का उपयुक्त समय समझते हुए पण्डित विद्यापति जी से पूछा कि सम्मुख वह क्या पड़ा हुआ है ? पण्डित विद्यापति जी ने अपनी श्रेष्ठता को बरकरार रखने हेतु काल विलम्ब न करते हुए तुरंत जबाब दिया,-‘शुष्खमं काष्ठमं तिष्ठति अग्रे।” अर्थात,एक सूखा हुआ पेड़ सामने पड़ा हुआ है। अब,सम्राट विक्रमादित्य जी ने कालिदास से वही प्रश्न पूछा। कालिदास जी ने उत्तर पेश किया-“नीरस: तरुवर: पुरत: भागे।” अर्थात,एक रसहीन वृक्ष सम्मुख में पड़ा हुआ है। अब,सम्राट ने एक-एक कर उपस्थित सभी जनों को पूछा कि किसका उत्तर श्रुतिमधुर रहा ? उपस्थित सभी जनों ने एकराय होकर कालिदास जी के उत्तर को उच्च प्रशंसा के साथ उनकी श्रेष्ठता का समर्थन किया। तब पण्डित विद्यापति जी ने भी सर्वसम्मति से दिए गए निर्णय को उचित मानते हुए कालिदास की श्रेष्ठता को स्वीकार किया।
बस,यही रहा है महाकवि कालिदास के साहित्य या काव्य रचना में मधुर शब्दों या काव्य शैली का प्रयोग या चयनशैली एवं दूसरे के साथ कालिदास के श्रुतिमधुर शब्दों के चयन करने का अंतर। इसी शब्द मधुरस के कारण आज भी विश्व साहित्य के रसिकजनों में महाकवि कालिदास रचित रचनाएं प्रशंसा के साथ सर्वाधिक पठित हैं।

परिचय-गोपाल चन्द्र मुखर्जी का बसेरा जिला -बिलासपुर (छत्तीसगढ़)में है। आपका जन्म २ जून १९५४ को कोलकाता में हुआ है। स्थाई रुप से छत्तीसगढ़ में ही निवासरत श्री मुखर्जी को बंगला,हिंदी एवं अंग्रेजी भाषा का ज्ञान है। पूर्णतः शिक्षित गोपाल जी का कार्यक्षेत्र-नागरिकों के हित में विभिन्न मुद्दों पर समाजसेवा है,जबकि सामाजिक गतिविधि के अन्तर्गत सामाजिक उन्नयन में सक्रियता हैं। लेखन विधा आलेख व कविता है। प्राप्त सम्मान-पुरस्कार में साहित्य के क्षेत्र में ‘साहित्य श्री’ सम्मान,सेरा (श्रेष्ठ) साहित्यिक सम्मान,जातीय कवि परिषद(ढाका) से २ बार सेरा सम्मान प्राप्त हुआ है। इसके अलावा देश-विदेश की विभिन्न संस्थाओं से प्रशस्ति-पत्र एवं सम्मान और छग शासन से २०१६ में गणतंत्र दिवस पर उत्कृष्ट समाज सेवा मूलक कार्यों के लिए प्रशस्ति-पत्र एवं सम्मान मिला है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-समाज और भविष्य की पीढ़ी को देश की उन विभूतियों से अवगत कराना है,जिन्होंने देश या समाज के लिए कीर्ति प्राप्त की है। मुंशी प्रेमचंद को पसंदीदा हिन्दी लेखक और उत्साह को ही प्रेरणापुंज मानने वाले श्री मुखर्जी के देश व हिंदी भाषा के प्रति विचार-“हिंदी भाषा एक बेहद सहजबोध,सरल एवं सर्वजन प्रिय भाषा है। अंग्रेज शासन के पूर्व से ही बंगाल में भी हिंदी भाषा का आदर है। सम्पूर्ण देश में अधिक बोलने एवं समझने वाली भाषा हिंदी है, जिसे सम्मान और अधिक प्रचारित करना सबकी जिम्मेवारी है।” आपका जीवन लक्ष्य-सामाजिक उन्नयन है।

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