अख्तर अली शाह `अनन्त`
नीमच (मध्यप्रदेश)
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बेटा है द्वार तरक्की का,
मधुऋतु है ये मधुशाला है।
जो जीवन करता आनंदित,
बेटा फूलों की माला हैll
है स्वर्ण भरा घट बेटा तो,
वृद्धावस्था की लाठी है।
संबल घर का जो पल-पल का,
सुख-सपनों का सहपाठी हैll
बोझा घर का जो ढोता है,
विचलित जो तनिक नहीं होता।
जो बगिया की हर क्यारी में,
उम्मीदों की फसलें बोताll
जो माँ का कृष्ण कन्हैया है,
दशरथ का रघुवर प्यारा है।
जिसने बनकर के श्रवण यहां,
जीवन का कर्ज उतारा हैll
बेटे से इज्जत बढ़ जाती,
वो इज्जत का रखवाला है।
बहिनों का सच्चा रक्षक है,
अंधियारे में उजियाला हैll
बेटे से वंश बेल बढ़ती,
वो कुल दीपक कुल तारक है।
भव से वो पार लगाता है,
सचमुच ऐसा उद्धारक हैll
क्या कहा जमाना बदल गया,
बेटा दुखों की खाई है।
मतलब से मतलब रखता जो,
ऐसी कड़वी सच्चाई हैll
जब तक कमवय वो रहता है,
चौबीस कैरेट का सोना है।
लेकिन शादी हो जाने पर,
औरत का बना खिलौना हैll
गर ऐसा है तो बेटे की,
चाहत क्यों रहती बतलाओ।
अजन्मे ही क्यों मार दिया,
जाता बेटी को समझाओll
बेटा-बेटी में फर्क मगर,
अधकचरी सोच यकीनन है।
दोनों ही एक-सा होते हैं,
दोनों जीवनधन कंचन हैll
जिनके बेटी है सिर्फ यहां,
देखा बेटे पर भारी है।
माँ-बाप के खातिर हर बेटी,
लेती हर जिम्मेदारी हैll
`अनंत` सोच अब बदलें हम,
बेटी को भी बेटा मानें।
मेहमान नहीं बेटी होती,
इस सच्चाई को पहिचानेंll