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आत्मा का स्वाभाविक धर्म है क्षमा

क्षितिज जैन
जयपुर(राजस्थान)
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जैन धर्म में पर्यूषण पर्व के उपरांत ‘क्षमावाणी’ पर्व मनाया जाता है,जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अन्य से जाने-अनजाने में किए गए किसी ऐसे काम के लिए क्षमा मांगता है,जिससे उन्हें दुख पहुंचा हो,चाहे वह मन से हो,वचन से अथवा कार्य से। साथ ही,वह अन्य को भी क्षमा करता है। क्षमावाणी ऐसा पर्व है,जहां हर कोई अपने अन्तर्मन के वैर, क्रोध तथा द्वेष को क्षमा की अमृत धारा से धो देता है। इसी कारण अनेक अजैन भी प्रत्येक वर्ष इस पर्व को मनाते हैं तथा उत्तम क्षमा का पालन करते हैं।
क्षमा क्रोध का विपरीत है। क्रोध एक कभी न बुझने वाली ज्वाला है,जो किसी और से अधिक क्रोधी को ही जलाती है। क्रोध के दाह में मनुष्य जलता रहता है,पीड़ित होता रहता है। अग्नि से तो मात्र शरीर जलता है,किन्तु क्रोध से अन्तर्मन और आत्मा,दोनों झुलस जाते हैं।
दूसरी ओर,क्षमा में अनंत शांति है,निराकुलता है। क्षमा कर व्यक्ति द्वेष और वैर को निकाल देता है,तथा पूर्णत: निष्कालुष हो जाता है। बिना क्षमाशील हुए सुखी होना असंभव है क्योंकि क्रोधी व्यक्ति तो सदैव ही अशांत रहेगा,उसका चित्त किसी न किसी बात को लेकर उठा-पटक करता रहेगा,तथा सुख उठा-पठक में है या स्थिरता में, इसका निर्णय आप कर सकते हैं।
बहुत से लोगों को लगता है कि क्रोध दिखाना वीरता का काम है,और क्षमा कायरों का अस्त्र है,जबकि सत्य तो इसके विपरीत है। क्रोध आत्मा की दुर्बलता है,और क्षमा आत्मा का संबल। वीर तो वह होता है जो सामने वाले व्यक्ति के लिए मन में बिना द्वेष धारण किए उसे क्षमा कर दे।
बहुत से लोग कहते हैं कि क्षमा कायरों का बहाना होता है,जिससे वे अपनी दुर्बलता को छिपा सकें,परंतु ऐसे कायरों की क्षमा झूठी होती है,यथार्थ में एक छद्म होती है,वह उत्तम क्षमा नहीं हो सकती। उत्तम क्षमा का पालन जो करता है,वह वीर ‘महावीर’ बन जाता है। बहादुरी का काम सामने वाले को गालियां देना नहीं,अपितु शांत चित्त होकर आगे बढ़ना है,उस व्यक्ति के लिए मन में कोई भी कलुषित विचार न लाना है।
यदि आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य में बात की जाए,तो क्षमा आत्मा का स्वाभाविक धर्म है। यह आत्मा क्रोध,वैर,मत्सर आदि विकारों से सदा मुक्त रहता है,भीतर से वह पूर्णत: निर्विकार रहता है और क्षमा का तो अर्थ ही है इनसे पूर्णत: मुक्त हो जाना,विकाररहित होना। इसी कारण से उत्तम क्षमा को ‘मोक्ष का साक्षात पथ’ कहा गया है,परंतु क्षमावाणी और उत्तम क्षमा का अर्थ केवल ‘मिच्छामि दुक्कड़म’ कहना और क्षमा मांगना नहीं है। इस धर्म का अर्थ कहीं गहन है,क्योंकि जैसा पहले भी कहा गया है कि क्षमा आत्मा का स्वाभाविक धर्म है,उसका मूल स्वभाव है।
चलिये इस प्रश्न का उत्तर दीजिये-“हमें क्रोध क्यों आता है ? किसी भी पर भी हमें क्रोध क्यों आता है ?” इसका साधारण-सा उत्तर यह है कि जब कोई भी वस्तु या घटना हमारे अनुकूल नहीं होती,हम क्रोध करने लग जाते हैं। कोई व्यक्ति हमारे अनुसार काम नहीं करता,तो हमें उस पर क्रोध आ जाता है। मान लीजिये कि हम रास्ते पर चल रहें हैं,और एक काँटा हमारे पैर में चुभ जाता है। हमारी पहली प्रतिक्रिया क्या होती है ? हम गुस्से से उसको पैर से निकाल ज़ोर से पटक देते हैं, और फिर उस काँटे पर क्रोध करते हैं। हमारा अच्छा खासा मूड खराब हो जाता है। विचित्र बात लगेगी न!,परंतु हम एक असंज्ञी वस्तु पर भी क्रोध निकाल देते हैं। फिर जब घर पर कोई भी पूछे,तो झल्ला कर कहते हैं,मैं तो बढ़िया चल रहा था,मरा काँटा न जाने कहाँ से आ गया। वही क्रोध हम घर पर भी निकालते हैं। इस पूरी काँटा कथा का प्रयोजन क्या है ? इसका प्रयोजन यह बताना नहीं कि,हम कितने तुनक मिजाज़ होते जा रहें हैं, लेकिन जरा ध्यान से सोचिए,काँटा तो केवल प्रतीक है,इसका अर्थ तो यह है कि इस त्रिलोक में जो भी चीज़ हमें कष्ट देगी,जिससे हमें कुछ दिक्कत होगी,वह हमारे क्रोध का भाजन होगी।
एक और उदहारण लेते हैं-किसी ने आपको अपशब्द कहे,अब आप किसी से कम थोड़े ही हैं,एक का उत्तर चार से देंगे। दो-चार व्यक्ति आपको रोकेंगे। कहेंगे-गुस्सा थूक दो भाईसाब। आप थूक कर प्रदर्शित कर देते हो कि आपको गुस्सा नहीं आ रहा,लेकिन,एक बात आप गौर करना भूल गए। आपका क्रोध केवल उस व्यक्ति के प्रति नहीं है,बल्कि हर उस व्यक्ति के प्रति है जो हमें कुछ अप्रिय कहेगा। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि हमारा क्रोध केवल उस वस्तु या व्यक्ति के प्रति नहीं, हर उस व्यक्ति या वस्तु के प्रति है जो कुछ ऐसा कर सकता है जो हमें अप्रिय हो।
अत:,क्षमावाणी केवल क्षमा मांगना नहीं है,उत्तम क्षमा धारण करने का अर्थ है समभाव धारण करना,सुख व दु:ख में एक समान रहना। जो समदृष्टि होता है,वह न अनुकूल चीजों में प्रसन्न होता है और न प्रतिकूल चीजों में दुखी होकर क्रोध करता है। हम अच्छी चीजों से खुश और बुरी से दुखी अपने राग-द्वेष के कारण होते हैं,ममत्व के कारण होते हैं,लेकिन इस आत्मा का स्वभाव तो समभाव है। यह आत्मा न सुखी होती है न दुखी,न राग करती है न द्वेष। सदा समभाव धारण किए रखती है।
अत:,इससे यह भी समझा जा सकता है कि उत्तम क्षमा समभाव को धारण करना है,राग-द्वेष,मोह-ममत्व को समाप्त करना है। इन सब विकारों के समाप्त होते ही हमारी आत्मा शुद्ध हो जाती है।
एक अंतिम बात,हमने सबसे क्षमा मांगी और सबको क्षमा किया,किन्तु क्या हमने स्वयं से,अपनी आत्मा से क्षमा मांगी ? स्वयं को क्षमा किया ? जरा सोचिए तो सही,हमने आत्मा के स्वाभाविक धर्म को न देखते हुए,राग-द्वेष,लोभ किया,गलत काम किए। इन विकारों को करना अपनी आत्मा पर क्रोध करना ही तो है,क्योंकि ये आत्मा के स्वभाव नहीं,पर भाव हैं,जिनसे उसे दु:ख पहुंचता है,और आत्मा का दुखी होना हमारा अपना दुखी होना होता है।
तो इस क्षमावाणी पर,हम सबको,सभी जीवों के प्रति उत्तम क्षमा धारण कर आत्म शुद्धि करनी चाहिए और आत्मा के स्वाभाविक धर्म को अपना लेना चाहिए। यही सुख व कल्याण का मार्ग है।

परिचय-क्षितिज जैन का निवास जयपुर(राजस्थान)में है। जन्म तारीख १५ फरवरी २००३ एवं जन्म स्थान- जयपुर है। स्थायी पता भी यही है। भाषा ज्ञान-हिन्दी का रखते हैं। राजस्थान वासी श्री जैन फिलहाल कक्षा ग्यारहवीं में अध्ययनरत हैं कार्यक्षेत्र-विद्यार्थी का है। सामाजिक गतिविधि के अंतर्गत धार्मिक आयोजनों में सक्रियता से भाग लेने के साथ ही कार्यक्रमों का आयोजन तथा विद्यालय की ओर से अनेक गतिविधियों में भाग लेते हैं। लेखन विधा-कविता,लेख और उपन्यास है। प्रकाशन के अंतर्गत ‘जीवन पथ’ एवं ‘क्षितिजारूण’ २ पुस्तकें प्रकाशित हैं। दैनिक अखबारों में कविताओं का प्रकाशन हो चुका है तो ‘कौटिल्य’ उपन्यास भी प्रकाशित है। ब्लॉग पर भी लिखते हैं। विशेष उपलब्धि- आकाशवाणी(माउंट आबू) एवं एक साप्ताहिक पत्रिका में भेंट वार्ता प्रसारित होना है। क्षितिज जैन की लेखनी का उद्देश्य-भारतीय संस्कृति का पुनरूत्थान,भारत की कीर्ति एवं गौरव को पुनर्स्थापित करना तथा जैन धर्म की सेवा करना है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-नरेंद्र कोहली,रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हैं। इनके लिए प्रेरणा पुंज- गांधीजी,स्वामी विवेकानंद,लोकमान्य तिलक एवं हुकुमचंद भारिल्ल हैं। इनकी विशेषज्ञता-हिन्दी-संस्कृत भाषा का और इतिहास व जैन दर्शन का ज्ञान है। देश और हिन्दी भाषा के प्रति आपका विचार-हम सौभाग्यशाली हैं जो हमने भारत की पावन भूमि में जन्म लिया है। देश की सेवा करना सभी का कर्त्तव्य है। हिंदीभाषा भारत की शिराओं में रक्त के समान बहती है। भारत के प्राण हिन्दी में बसते हैं,हमें इसका प्रचार-प्रसार करना चाहिए।

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