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अंकों से परे प्रतिभा को भी आँकिए

अजय जैन ‘विकल्प’
इंदौर(मध्यप्रदेश)
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आजकल जिंदगी की लड़ाई और पेशेवर बनने-बनाने की होड़ ऎसी चल पड़ी है कि, हर जगह आगे ही रहने या होने का मतलब बना दिया गया है। यूँ कहें कि १०० में से १०० या ९९ अंक (प्रतिशत) की ही इज्जत और आपका सम्मान है, बाकी ६०-७० वाले को तो अजीब-सी नजर से देखा जा रहा है। अब ऐसा देखने वालों को कौन समझाए कि, जीवन में प्रतिशत बनाम अंक इतने मायने नहीं रखते, जितनी स्वयं की प्रतिभा यानि व्यावहारिक अक्ल-बुद्धि।
ऐसे अनेक धुरंधर संसार के हर क्षेत्र में मिल जाएंगे, जिनकी अंकसूची-उपाधि (डिग्री) और प्रतिशत बहुत-बहुत अधिक है, पर वे भी कई मनपसंद काम नहीं कर सके हैं तो कुछ को विफलता और इसी से सफलता का शिखर भी मिला है। इसके ठीक उलट भी है कि पढ़ाई की तो छोड़िए, कई ने तो शालाघर की बात सोंची ही नहीं, पर बड़ी सफलता पाई। कैसे ? तो बात यही हुई ना कि इनकी अक्ल पढ़ाई से तेज नहीं हुई, बल्कि जीवन संघर्ष ने ही उसे डिग्री जैसा और बेहतर बना दिया। कहने वाली सीधी-सी बात यह है कि, जीवन में कागज पर आए अंक ही सब-कुछ नहीं हैं और ऐसा हठ करना भी नहीं चाहिए कि बस १०० प्रतिशत लाने वाला ही समझदार-प्रतिभाशाली और बुद्धिमान होता है। अरे अपनी बुद्धि से सफलता की बगिया तो उन्होंने भी तैयार की है, जो १०० प्रतिशत अंक लाना तो दूर, पेट और परिवार की समस्याओं के आगे पढ़ने के लिए किसी विद्यालय का मुँह ही नहीं देख पाए तथा देखा भी तो बीच में से ही लौटना पड़ा। फिर भी वो कई बार कई क्षेत्रों में विजयी हुए। मतलब तो यही हुआ ना कि, जैसे जीवन में धन बहुत कुछ है, लेकिन अंततः सब-कुछ नहीं है, रिश्ते-सम्बन्ध और बुद्धि ने इसे अनेक बार हराया है। इसी तरह जिंदगी में अंक, सफलता का शीर्ष और सुविधाएँ बहुत कुछ हैं, किन्तु सब-कुछ या कुल ही नहीं।

दरअसल, भौतिक दौड़ में हमने अपने मन को इन अंकों और सफलता से मिलती सुविधाओं के सामने हरा लिया है। ‘मन की बात’ अर्थात सब कुछ जानकर-समझकर भी हम प्रतिभा को अंकों के पत्थर से रोज थोड़ा-थोड़ा कुचल रहे हैं। जब भी कोई परिणाम यानि परीक्षा-फल आता है तो हम यानि समाज उस पत्थर-हथौडे़ को लेकर भगवान श्रीकृष्ण के विराट स्वरूप में प्रतिभा-मेधावी-मेधा को दरकिनार कर खड़े हो जाते हैं। उसके कम फल-अंक पर जमानेभर का कोरा ज्ञान भी देने में पीछे नहीं रहते किन्तु, यहाँ भूल जाते हैं कि, ईमानदारी से मेहनत-कोशिश करना अच्छी बात है, करनी ही चाहिए, लेकिन प्रयास करने वाला अंतिम सत्य भगवान और संसार की भौतिक व्यवस्था तो नहीं है ना। उसने कोशिश की, अब अगर कम अंक प्राप्त हुए हैं तो उसके मन पर अपनी जबरिया कड़ी प्रतियोगिता का बोझ मत उतारिए। जरा उसकी जगह खुद को रखकर भी तो देखिए, क्योंकि सफलता तो उसको भी पसंद ही है ना और सभी कामयाबी ही चाहते हैं। उसका लक्ष्य भी बड़ा अधिकारी या किसी बड़े संस्थान का बड़ा बनना सपना है, पर याद रखिए कि अनेक बार १०० प्रतिशत प्रयत्न करने भी सबको सब-कुछ नहीं मिलता है। इसका मतलब यह नहीं कि जो सबसे शीर्ष (ऊपर) से असफल हुआ, यानि ८५ प्रतिशत पर ही रुक गया, वो प्रतिभावान नहीं है। जरा सोचिए और बुद्धि के पैमाने पर इसे नापिए, मापिए और निष्पक्षता से परखिए भी कि, ८५-९० फीसदी अंक लाना भी क्या मजाक का खेल है ? यादि आपका बचपन, मन और जमीर जिंदा है तब तो उत्तर यही मिलेगा कि, प्रतिभा के भी मायने होते हैं। इसके विपरीत दिमाग ने यह राय दी कि, नहीं ये सब फालतू की बात है, अंक तो ९९-१०० प्रतिशत ही मिलने चाहिए, तो विश्वास कीजिए कि आप मशीन बन चुके हैं, जिसे बस लक्ष्य और सफलता का स्वार्थ है, बाकी व्यावहारिक समझ से कोई मतलब नहीं। कम अंक की सफलता पर भी शुभकामनाएं देते हुए हमें यह बात अच्छी तरह समझनी और अन्य को समझानी भी होगी कि, कई बार प्रारंभिक पढ़ाई ज्यादा अच्छी नहीं होने पर भी विद्यार्थी यानि बच्चे के अंक अनुमान से अधिक सफलता ले आते हैं, तो कई बार बहुत अच्छी सुविधा, मार्गदर्शन और माहौल भी अंक नहीं दिला पाता है, भले ही फिर पिछ्ली स्पर्धा और परीक्षा में उसे ९८ फीसदी अंक आए हों। ऐसे में क्या आप उसे मूर्ख या अप्रतिभाशाली मान लेंगे ? निश्चित ही नहीं मानेंगे, तो फिर फल आने पर प्रतिभा को अंक से तौलिए पर ऐसा नहीं कि, उसके ९९-१०० की अपेक्षा ७०-८५ प्रतिशत से सफल होने की खुशी भूल जाएँ। उसको लक्ष्य अनुसार अर्जुन बनाना बुरा नहीं हैं, पर बस चूकने पर उसकी प्रतिभा और किसी भी द्रोणाचार्य को कम मत आँकिए। उसके मन में ऐसा कोई छोटा-सा भी क्षोभ मत लाइए, जो भविष्य की सफलता को रोके। उसे सफलता की मिठाई खिलाते हुए प्रेरणा बने रहिए, हिम्मत दीजिए, उत्साहित कीजिए और हौंसले से आगे बढ़ाईए, ताकि वो आपके ‘मन की बात’ समझ सके, पर उसके ‘मन की बात’ वाली प्रतिभा को भी समझिए, क्योंकि बुद्धि है तो ही परिणाम आएंगे।

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