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चड्डी का ग्लोबल होना

अरुण अर्णव खरे 
भोपाल (मध्यप्रदेश)
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पूरे देश में इस समय शायद मैं सबसे ज्यादा खुशी का अनुभव कर रहा हूँ,जबसे मैंने पढ़ा है कि,चड्डीशब्द को ऑक्सफ़ोर्ड ने अपनी डिक्शनरी में शामिल कर लिया है मेरी खुशी का पारावार नहीं है। अब मुझे चड्डी बोलने में शर्म नहीं आएगी। मैं सबके सामने,ब्राण्डेड शो-रूम में,बड़े-बड़े माल में और यहाँ तक कि विदेशों में भी,यदि जाने का मौका मिला तो,इस शब्द को शान से बोल सकूँगा। आप सोच रहे होंगे कि मैं इस शब्द के अंग्रेजी शब्द बन जाने से उत्तेजना की सीमा तक खुश क्यूँ हूँ,तो आपको बता दूँ कि इस शब्द के कारण के कई बार मेरी बहुत किरकिरी हुई है,बच्चों के सामने मुझे कई बार शर्मिंदा होना पड़ा है। मेरे मुँह से जब भी ‘चड्डी’ शब्द निकलता कॉन्वेण्ट में पढ़े मेरे बच्चे खुद को बेकवर्ड फ़ील करने लगते और मुझे समझाइश देते। उस मनहूस दिन को मैं कभी भूल नहीं सकता,जब डीबी सिटी शॉपिंग मॉल के एक ब्रॉण्डेड शो रूम में मैंने पंचान्वे नम्बर की चड्डी माँग कर तूफ़ान-सा ला दिया था। तत्क्षण बेटे ने मुझे घोर तिरस्कार वाले भाव से देखा था। घर पहुँच कर उसने मेरी क्लॉस लेते हुए यहाँ तक कह डाला था-“पापा आप कैसी गाँवठी भाषा बोलते हैं-वहाँ पर सब लोग किस तरह से पहले आपका और फिर मेरा मुँह देखने लगे थे। मैंने कितना इन्सल्टिंग फ़ील किया,बता नहीं सकता।”

मेरा मन हुआ था कि उसे समझाऊँ-“इसमें इंसल्ट फील करने वाली क्या बात है। चड्डी को अपनी मातृभाषा में चड्डी न कहूँ तो क्या कहूँ,तुम भी बचपन में जंगल बुक का “चड्डी पहिन कर फूल खिला है” गीत सुनकर कितना झूमने लगते थे-यदि उस जमाने में मोबाइल होता तो तुम्हें वीडियो दिखा देता” ,पर चुप रह गया,शायद दिल के किसी कोने में मुझे भी गाँवठी होने का डर बैठ गया था।इसी डर के कारण मैं फिर कभी चड्डी खरीदने नहीं गया।

मैं इस प्रकरण को लगभग भूल चुका था लेकिन आज फिर आँखों के सामने आ गया।इस बार ऑक्सफ़ोर्ड की कृपा से मैं शर्मिंदा नहीं,गौरवान्वित अनुभव कर रहा था,जिस शब्द के लिए घर में ही मुझे बैकवर्ड होने का दंश झेलना पड़ा था,वही अंग्रेजों को इतना भा गया कि उसे वैश्विक बना दिया,पर मुझे अपनी खुशी जाहिर करने का मौका ही नहीं मिल रहा था। लम्बे इंतजार के बाद आखिरकार मौका हाथ लग ही गया। वही माल,वही ब्राण्डेड शो-रूम,साथ में बेटा और मन में अंगड़ाइयाँ ले रही चड्डी खरीदने की ख्वाहिश। शो-रूम असिस्टेंट को मैं कुछ बोल पाता,उससे पहले ही बेटा बोल पड़ा-“पापा जी को पंचान्वे नम्बर की चड्डी दिखाओ।”

मैंने आश्चर्य से बेटे की तरफ देखा,उसके चेहरे पर गाँवठी होने की जरा भी शिकन नहीं थी, उलटा ग्लोबल होने का आत्मविश्वास झलक रहा था। शब्द की बदली हुई पहचान का जलवा देखकर मैं दंग था,लेकिन अपने देशज शब्द को गर्व से बोलने की हसरत मेरे दिल में ही रह गई |

परिचय:अरुण अर्णव खरे का जन्म २४ मई १९५६ को अजयगढ़,पन्ना (म.प्र.) में हुआ है। होशंगाबाद रोड (म.प्र.), भोपाल में आपका घरौंदा है। आपने भोपाल विश्वविद्यालय से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में स्नातक की शिक्षा प्राप्त की है। आप लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग में मुख्य अभियंता पद से सेवानिवृत हैं। कहानी और व्यंग्य लेखन के साथ कविता में भी रुचि है। कहानियों और व्यंग्य आलेखों का नियमित रूप से देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं सहित विभिन्न वेब पत्रिकाओं में भी प्रकाशन जारी है। श्री खरे का १ व्यंग्य संग्रह और १ कहानी संग्रह सहित २ काव्य कृतियाँ-“मेरा चाँद और गुनगुनी धूप” तथा “रात अभी स्याह नहीं” प्रकाशित है। कुछ सांझा संकलनों में भी कहानियों तथा व्यंग्य आलेखों का प्रकाशन हुआ है। कहानी संग्रह-“भास्कर राव इंजीनियर” व व्यंग्य संग्रह-“हैश,टैग और मैं” प्रकाशित है। कहानी स्पर्धा में आपकी कहानी ‘मकान’ पुरस्कृत हो चुकी है। गुफ़्तगू सम्मान सहित दस-बारह सम्मान आपके खाते में हैं। इसके अलावा खेलों पर भी ६ पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। भारतीय खेलों पर एक वेबसाइट का संपादन आपके दायित्व में है। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर भी वार्ताओं का प्रसारण हुआ है। आप मध्यप्रदेश में कुछ प्रमुख पत्रिकाओं से भी जुड़े हुए हैं। अमेरिका में भी काव्यपाठ कर चुके हैं। 

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