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चुनाव:भाषा का संयम-मर्यादा और चिंतन जरूरी

ललित गर्ग

दिल्ली
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लोकसभा चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आते जा रहे हैं, कई नेताओं की ज़ुबान फिसलती जा रही है। वे राजनीति से इतर नेताओं की निजी ज़िंदगी में तांक-झांक वाले, धार्मिक भावनाओं को भड़काने वाले ऐसे बोल बोल रहे हैं, जो न आपत्तिजनक हैं, बल्कि राष्ट्र-तोड़क है। चुनावी रैलियों में जनता के सामने अपने प्रतिद्वंद्वी को नीचा दिखाने के मकसद से ये नेता मर्यादा, शालीनता और नैतिकता की रेखाएं पार करते नज़र आए हैं। गलत का विरोध खुलकर हो, राष्ट्र-निर्माण के लिए अपनी बात कही जाए, अपने चुनावी मुद्दों को भी प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया जाए, लेकिन गलत, उच्छृंखल एवं अनुशासनहीन बयानों की राजनीति से बचना चाहिए। बड़ा सवाल है कि, एक ऊर्जावान एवं दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में क्या वाकई अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल औचित्यपूर्ण है ? तारीख तय होने एवं चुनावी पारा बढ़ने के बाद नेताओं के बयानों में तीखापन एवं हल्कापन आ गया है। एक तरफ गर्मी चुभन का अहसास करा रही है, तो दूसरी तरफ राजनीतिक हलकों में भाषायी अभद्रता घाव पर नमक छिड़क रही है। नेताओं को यह बात समझनी चाहिए कि, सही तरीके से बोले गए शब्दों में लोगों को जोड़ने की ताकत होती है, जबकि गलत भाषा एवं बोल का इस्तेमाल राजनीतिक धरातल को कमजोर करता है।
राहुल गांधी की ‘शक्ति के खिलाफ लड़ाई’ संबंधी टिप्पणी ‘शक्ति से जुड़े धार्मिक मूल्यों का अपमान करने और कुछ धार्मिक समुदाय’ के तुष्टिकरण के लिए धर्मों के बीच शत्रुता पैदा करने के ‘दुर्भावनापूर्ण इरादे’ को दर्शाती है। प्रारंभ में लालूप्रसाद यादव का प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर परिवार विषयक आरोप भाजपा के लिए रामबाण औषधि बना है। कांग्रेस नेत्री सुप्रिया श्रीनेत द्वारा भाजपा प्रत्याशी कंगना रनौत को लेकर की गई पोस्ट में नायिका के चित्र के साथ भद्दी टिप्पणी महिला-शक्ति का अपमान बना है। ईवीएम के बारे में राहुल गांधी की टिप्पणी के लिए निर्वाचन आयोग से उनके खिलाफ कार्रवाई करने की मांग की जा रही है, और कहा जा रहा है कि तथ्यों के सत्यापन के बिना इस तरह का ‘दुष्प्रचार और गलत सूचना’ राष्ट्रीय अखंडता एवं लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए नुकसानदायक है।
हमारे देश की राजनीति में संयमित भाषा व अनुशासित बोल-बयान एक महत्वपूर्ण अंग है। लोकतंत्र में उसी नेता का बोल-बाला होता है, जिसकी भाषा एवं वचनों पर पकड़ मजबूत होती है। आजादी के बाद देश में जिस प्रकार राजनीति में बदलाव आता गया, उसी प्रकार नेताओं की भाषा और आरोप-प्रत्यारोप की शैली भी बदलती गई। आज कुछ दलों के नेता विपक्षी राजनेता को ‘पप्पू’ जैसे शब्दों से ताना मारते हैं, तो कोई विपक्षी नेता प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए ‘चौकीदार चोर है’ या ‘चायवाला’ जैसे शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं। क्या हमारे देश की राजनीति में मर्यादा नाम का कोई शब्द बचा है ? ऐसी अभद्र भाषा का उपयोग करने से पहले ये नेता जरा भी नहीं सोचते कि, उसका उनके दल पर क्या प्रभाव पड़ सकता है!
भारतीय राजनीति में स्तरहीन, हल्की और सस्ती बातें कहने का चलन काफी समय से है, लेकिन पिछले २ दशकों में यह वीभत्स रूप धारण कर चुका है। जब राम मनोहर लोहिया ने इंदिरा गांधी को ‘गूंगी गुड़िया’ कहा था तो काफी विवाद हुआ और बड़ी तादाद में लोगों ने श्री लोहिया का विरोध किया। कांग्रेस के अध्यक्ष श्री खड़गे भी काफी-कुछ बोल चुके हैं और उनका प्रमं नरेन्द्र मोदी के लिए रावण वाला बयान काफी चर्चा में रहा है, लेकिन सबसे ज्यादा हल्की बात कहते हैं मणिशंकर अय्यर। उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी के लिए बहुत ही सस्ते शब्दों का इस्तेमाल किया। उन्होंने तो ‘नीच’, ‘कातिल’ जैसे शब्दों का खुलेआम इस्तेमाल किया था, जिसमें उनकी हताशा साफ झलकती है। कड़वे एवं गलत बयानी के मामले में कांग्रेसियों की तो सूची काफी लंबी है। आम आदमी पार्टी के नेता एवं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने तो सारी हदें पार कर दी। जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला ने ईवीएम की निंदा ‘चोर’ के रूप में की थी। सभी ने मौका देख बेहद हल्के शब्दों का इस्तेमाल किया, जिससे उनकी खीझ एवं बौखलाहट का पता चलता है, लेकिन दिलचस्प बात यह है कि श्री मोदी और उनके दल ने ऐसे अमर्यादित शब्दों और टिप्पणियों को अपने लाभ के लिए इस्तेमाल किया। उन्होंने अपने करोड़ों समर्थकों के सामने इन शब्दों और उन्हें बोलने वालों के खिलाफ माहौल बना दिया। नरेन्द्र मोदी को चाय वाला कहकर उनका उपहास उड़ाने वाले विपक्षियों को तो उन्होंने अपने कार्यों और उपलब्धियों से आईना दिखा दिया। आज ‘चाय वाला’ शब्द मेहनतकश लोगों के सम्मान का प्रतीक बन गया है।
आज मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के फेर में राजनीति को रसातल में धकेलने की मानो होड़ मची हुई है। क्षणिक रोमांच एवं तत्काल चुनावी लाभ के लिए मर्यादा को तार-तार करने वाले इन नेताओं को आत्म-चिंतन की सख्त जरूरत है। मर्यादित भाषा में विभिन्न दलों और नेताओं की आलोचना इस देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की खूबसूरती है। बेलगाम भाषा से क्षणिक प्रचार और सुर्खियाँ बटोरना सम्भव है, लेकिन अतीत में ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं जो ये दर्शाते हैं कि ऐसे नेताओं को जनता भी कुछ समय बाद ही भूल जाती है। भले ही चुनाव का वक्त आसमान से तारे तोड़ लाने के वायदे करने का वक्त है, खामियों को दबाने और उपलब्धियों के बखान का वक्त है, लेकिन यह करते हुए भाषा की शालीनता की जरूरत है।
यह वक्त मतदाता के जागने एवं विवेक से मतदान करने का भी है। वह अच्छे-बुरे का फर्क करके तार्किक आधार पर अपने बेशकीमती मत का उपयोग करे। विडंबना ही है कि, अमृतकाल से गुजरते देश में मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग विष और अमृत के भेद को पूरी तरह महसूस नहीं कर पाया है। भारतीय राजनीति में दागियों का दखल और धनबल का बढ़ता वर्चस्व यही बताता है कि, हमारा मतदाता इन संवेदनशील मुद्दों के प्रति जागरूक नहीं हो पाया है।

विशेषतः दक्षिण भारत की राजनीति में भाषा को राजनीतिक औजार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। तमिलनाडु के नेता इसी भाषाई आग्रह के साथ कब और क्या बोल दें, यह कोई नहीं जानता। इससे समस्याएं पैदा हो जाती हैं। इस तरह के बयानों से बना-बनाया खेल बिगड़ जाता और निजी छवि भी धूमिल हो जाती है। फिर अगर आप बड़े पद पर हैं और हजारों लोग अनुकरण करते हैं तो भाषा संयम और मर्यादा अत्यंत जरूरी हो जाती है। हकीकत यह है कि, यह प्रवृत्ति पूरे देश में बढ़ रही है। कौन-सा नेता, कब वाणी का संयम खो दे, कहा नहीं जा सकता।