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दायित्व और भूमिका पर पुनरावलोकन की आवश्यकता

डॉ. मोतीलाल गुप्ता ‘आदित्य’
मुम्बई(महाराष्ट्र)
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हिन्दी साहित्य अकादमियाँ…

आपने देखा होगा कि, हिंदी-भाषी राज्यों में ही नहीं बल्कि लगभग सभी हिंदीतर भाषी राज्यों में भी हिंदी साहित्य अकादमी गठित की गई हैं, जबकि अन्य भाषाओं की अकादमी प्राय: उन राज्यों में हैं, जहाँ वे बोली जाती हैं।अगर हिंदी साहित्य अकादमियों का उद्देश्य हिंदी भाषा के साहित्य यानी कहानी, कविता आदि को आगे बढ़ाना ही है, तो क्या यह अन्य भारतीय भाषाओं के साथ पक्षपात नहीं है ? ऐसे में तेलुगु साहित्य अकादमी पूरे देश में क्यों नहीं होनी चाहिए ?, बांग्ला साहित्य की अकादमी पूरी देश में क्यों नहीं होनी चाहिए ?, पंजाबी साहित्य की अकादमी पूरे देश में क्यों नहीं होनी चाहिए ? अन्य भाषाओं को लेकर भी यह बात कही जा सकती है। क्या ऐसा है कि, हिंदी का साहित्य भारत की अन्य भाषाओं के साहित्य से श्रेष्ठ है ? इसीलिए उसके विकास के लिए देशभर में हिंदी साहित्य की अकादमी स्थापित की गई है ? निश्चय ही इस बात से कोई सहमत न होगा।

मुझे लगता है कि, इन बिंदुओं पर सभी को गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है कि, देश के सभी राज्यों में हिंदी साहित्य अकादमियों की स्थापना क्यों की गई ? महात्मा गांधी सहित अनेक स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा भी ऐसी अनेक संस्थाएं गठित की गईं, जिनमें हिंदी साहित्य शब्द है, जो हिंदी की कहानी, कविता आदि को आगे बढ़ाने, पुरस्कृत करने वगैरह के कार्य में लगी हुई हैं। ऐसी अनेक संस्थाओं को भारत सरकार, राज्य सरकारों और समाजसेवियों-पूंजीपतियों आदि द्वारा भी बड़े पैमाने पर आर्थिक सहयोग दिया गया।
अगर शासन द्वारा वित्तपोषित इन संस्थाओं को गठित करने का उद्देश्य हिंदी के साहित्य को आगे बढ़ाना, हिंदी के साहित्यकारों को बड़े पैमाने पर पुरस्कृत और सम्मानित करना रहा, तो क्या आपको यह नहीं लगता कि यह अन्य भाषाओं के साथ भेदभाव की बात है ? लेकिन हिंदी की ऐतिहासिक संस्थाओं की स्थापना के समय जो कुछ कहा या लिखा गया, उसे पढ़ा जाए। तत्कालीन राष्ट्रवादी नेताओं ने इन संस्थाओं को क्या काम सौंपा और किस उद्देश्य के लिए इनका मार्ग प्रशस्त किया ?, उसको पढ़ा जाए तो साफ दिखाई देता है कि, उनका उद्देश्य हिंदी की कहानी, कविता या अन्य प्रकार के साहित्य को आगे बढ़ाना नहीं था। महात्मा गांधी सहित जिन भी राष्ट्रवादी नेताओं ने इन संस्थानों में जो व्याख्यान दिए, उनमें कहानी, कविता वगैरह की बात तो नहीं की।निश्चय ही वे इतने अदूरदर्शी और पक्षपाती भी नहीं थे कि, केवल एक भाषा के साहित्य को ही आगे बढ़ाने के लिए प्रयास करते और दूसरी को छोड़ देते। उन्होंने तो हिंदी को राष्ट्रीय संपर्क भाषा के रुप में आगे बढ़ाने और इसके प्रचार-प्रसार की बात की थी।
स्वतंत्रता सेनानियों, देश प्रेमियों और भारत सरकार सहित सभी राज्यों द्वारा विभिन्न राज्यों में हिंदी की संस्थाएं व अकादमी स्थापित करने के पीछे मूल प्रयोजन क्या था ? हमें इसे समझना होगा। यही नहीं, हमें ‘साहित्य’ का अभिप्राय भी समझना होगा। सामान्य बोल-चाल की भाषा में किसी भाषा के साहित्य का अभिप्राय हमारे देश में ललित साहित्य यानी कहानी, उपन्यास, कविता, एकांकी, नाटक आदि होता है। इसलिए, साहित्य शब्द आते ही हम केवल उसी तरफ देखते हैं। अगर ऐसा है तो वैज्ञानिक साहित्य, विधिक साहित्य, ज्ञान-विज्ञान के अनेक क्षेत्रों का साहित्य क्या है ? सत्य तो यह है कि, केवल ललित साहित्य ही साहित्य नहीं है, बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में अर्जित ज्ञान-विज्ञान की प्रस्तुति भी साहित्य ही है।
भारत के प्राय: सभी स्वतंत्रता सेनानी हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने के पक्षधर थे, क्योंकि यह देश के अधिकांश लोगों द्वारा बोली जाने वाली और उससे भी बहुत अधिक लोगों द्वारा समझी जाने वाली भाषा है। उनका उद्देश्य यह था कि, राष्ट्रीय स्तर पर सम्पर्क के लिए एक भाषा को इस प्रकार से विकसित किया जाए और उसका प्रचार-प्रसार किया जाए, ताकि देश के लोग उसके माध्यम से परस्पर संवाद कर सकें। जो भाषा देश में सर्वाधिक बोली और समझी जाती हो, उसे राष्ट्रीय सम्पर्क भाषा के रूप में आगे बढ़ाया जाए। इसी उद्देश्य को लेकर ही देश के विभिन्न राज्यों में हिंदी साहित्य अकादमी स्थापित की गईं।
इन संस्थाओं का मूल और प्रमुख कार्य था, हिंदी भाषा के प्रयोग और प्रसार को बढ़ाना, लेकिन साहित्य शब्द साथ में जुड़े होने के कारण अब ये ज्यादातर संस्थाएँ केवल कहानी, कविता आदि ललित साहित्य में उलझ कर रह गई हैं। यहाँ तक कि हिंदी के प्रचार-प्रसार का कार्य भी केवल कहानी-कविता लेखन आदि को ही माना जाने लगा है।
व्यवहार, वाणिज्य, व्यापार, शिक्षा, रोजगार, जनसूचना, न्याय तथा उनके लिए प्रौद्योगिकी आदि क्षेत्रों में हिंदी को प्रतिष्ठित किए जाने के प्रयास इन हिंदी अकादमियों की प्राथमिकता में नहीं हैं। अगर हैं भी तो, कुछ औपचारिकता के लिए। अनेक राज्यों में जनभाषा में न्याय, मातृभाषा में शिक्षा, प्रतियोगी परीक्षाओं में हिंदी आदि को लेकर संघर्ष चल रहे हैं, लेकिन इनमें इन संस्थाओं की भूमिका दूर-दूर तक नजर नहीं आती।
मेरा उद्देश्य केवल यह है कि, स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा और उसके पश्चात भारत के संविधान और विधान के अंतर्गत विभिन्न राज्यों के स्तर पर हिंदी की अकादमियों और संस्थाओं की स्थापना के मूल उद्देश्य को हम समझें। इन संस्थाओं द्वारा इस प्रकार की गतिविधियों को संचालित किया जाए, जिससे राज्य व राष्ट्र के स्तर पर हिंदी के प्रयोग व प्रसार को बढ़ावा मिले। इस प्रकार के कार्य करने वाले व्यक्तियों व संस्थाओं को प्रोत्साहित किया जाए, जो विभिन्न क्षेत्रों में हिंदी के प्रयोग व प्रसार को आगे बढ़ाने के लिए प्रयासरत और संघर्षरत हैं।
यहाँ इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि, साहित्य की जिन पुस्तकों को हिंदी साहित्य अकादमियों द्वारा प्रकाशित या पुरस्कृत किया जाता है, उनमें से कितनी साहित्य की पुस्तकें पाठकों द्वारा निजी स्तर पर खरीदी जाती हैं। यदि हिंदी साहित्य अकादमियों द्वारा प्रकाशित व पुरस्कृत साहित्यिक पुस्तकों को जनमानस खरीद ही नहीं रहा है, तो अर्थ समझा जा सकता है कि, उसके पाठक कहीं हैं ही नहीं। प्रकाशित होने के बाद ये कितनी पढ़ी जाती हैं, यह भी शोध का विषय है। ‌अकादमियों द्वारा पुरस्कृत और प्रकाशित ऐसी बहुत सारी पुस्तकें या तो नि:शुल्क वितरित होती हैं या फिर सरकारी खरीद में ही जाती हैं। कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन मोटे तौर पर आज साहित्य के पाठक दूर-दूर तक दिखाई नहीं देते।
इसका मुख्य कारण वही है, जो मूल उद्देश्य में निहित था। मूल उद्देश्य यह था कि, जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हिंदी का प्रचार-प्रसार हो तथा ज्ञान-विज्ञान सहित शिक्षा-रोजगार आदि में हिंदी प्रतिष्ठित हो। जब इन क्षेत्रों में हिंदी प्रतिष्ठित होगी तो, विद्यार्थी उसे पढ़ेंगे, और पढ़ेंगे तो उनकी रुचि हिंदी साहित्य की तरफ भी होगी। आज जब हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में वाणिज्य, व्यापार शिक्षा, रोजगार आदि से दूर होती जा रही है तो, कोई हिंदी को क्यों पढ़ना चाहेगा ? जिस भाषा को लोग पढ़ना ही नहीं चाहेंगे तो, उसके साहित्य तक तो पहुंचने का प्रश्न ही नहीं ?
स्थिति तो यह है कि, आज के हिंदीभाषियों के भी ज्यादातर बच्चे हिंदी ठीक से लिख और पढ़ नहीं पाते। मैंने उत्तर भारत से आने वाले ऐसे अनेक युवाओं को देखा है, जो बड़ी शान के साथ कहते हैं कि वे अपनी बात हिंदी में ठीक से नहीं रख सकते या हिंदी में ठीक से नहीं लिख सकते, जबकि ५०-६० और उससे अधिक आयु के ऐसे अनेक लोग हैं, जो ज्ञान- विज्ञान, शासन-प्रशासन आदि के विभिन्न क्षेत्रों में उच्च पदों पर हैं, लेकिन उनकी साहित्य में रुचि है। कारण यह है कि, उनकी शिक्षा हिंदी माध्यम से हुई है। जब तक हिंदी पेट की भाषा बनी रही वह हृदय की भाषा भी रही, लेकिन जैसे ही उसका पेट से नाता टूटा, हृदय ने भी उसे त्याग दिया।
इसलिए आज पहले से भी बहुत अधिक जरूरी यह है कि, हिंदी का विभिन्न स्तरों पर और विभिन्न क्षेत्रों में प्रचार-प्रसार किया जाए। इसे व्यवहार, व्यापार, वाणिज्य, व्यवसाय, बीमा, बैंकिंग, जनसंचार, शिक्षा रोजगार, न्याय की भाषा बनाया जाए। विभिन्न क्षेत्रों के कार्य को भारतीय भाषाओं में प्रौद्योगिकी से जोड़ा जाए। इस कार्य में हिंदी अकादमियों की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। यही कारण है कि हिंदी अकादमियों के तमाम प्रयासों के बावजूद जनमानस हिंदी से दूर हो गया है। ऐसा ही रहा तो, आगे भी लगातार हिंदी से दूर होता जाएगा। उस स्थिति में हिंदी साहित्य के पाठक दूरबीन लगाकर ढूंढने से भी न मिलेंगे।
अगर थोड़ा ध्यान से देखें, तो हिंदी के साहित्यिक कार्यक्रमों में हिंदी साहित्य के कुछ विद्यार्थियों को छोड़ दें (जो अपने शिक्षकों के कहने पर आते हैं) तो ज्यादातर लोग ५० वर्ष से अधिक के ही होते हैं। उनमें भी अधिकांश वे होते हैं, जो रचना पाठ करने के लिए आते हैं। कुछ वर्षों बाद ये पीढ़ियाँ समाप्त हो जाएँगी तो साहित्य के नाम पर होने वाली छोटी-मोटी संगोष्ठियों का क्या होगा, यह अनुमान लगाया जा सकता है। जो बात यहाँ हिंदी को लेकर कही जा रही है, वह बात अन्य भारतीय भाषाओं और उनकी अकादमी पर भी कमोबेश वैसे ही लागू होती है। कल का इतिहास हमसे इन बातों का जवाब तो माँगेगा।
नई शिक्षा नीति के माध्यम से भारत सरकार सभी क्षेत्रों में हिंदी सहित भारतीय भाषाओं को प्रतिष्ठित करने के लिए निरंतर प्रयासरत है। ऐसे में हिंदी अकादमियों को भी परम्परागत कहानी- कविता आदि ललित साहित्य से बाहर निकाल कर विभिन्न क्षेत्रों में हिंदी के प्रयोग-प्रसार के लिए आगे आना होगा और ऐसे प्रयासों का सहयोग करना होगा। साहित्य की पुस्तकों की बजाय ज्ञान-विज्ञान की ऐसी पुस्तकों को प्रकाशित करना होगा, जिनसे विद्यार्थियों को हिंदी माध्यम से पढ़ाया जा सके। हिंदी के प्रयोग-प्रसार में लगी संस्थाओं और व्यक्तियों को सहयोग करने के साथ-साथ उन्हें प्रोत्साहित भी करना होगा।
भारत सरकार और राज्य सरकारों द्वारा भी इन भाषा-अकादमियों और सरकारी अनुदान प्राप्त भाषा संबंधी संस्थाओं की कार्य-प्रणाली तथा इनके संचालन संबंधी नियमों आदि में आज की आवश्यकताओं के अनुसार आमूलचूल परिवर्तन किए जाने की आवश्यकता है। भारतीय भाषाओं के समर्थकों और वे सभी जो ऐसे दायित्वों को संभाल रहे हैं, उन्हें भी आज के यथार्थ और आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए आगे बढ़ने के लिए उचित परिवर्तनों हेतु स्वयं को तैयार करना होगा।