गोवर्धन दास बिन्नाणी ‘राजा बाबू’
बीकानेर(राजस्थान)
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लोकपर्व ‘छठ पूजा’ में भगवान सूर्य नारायण और उनकी बहन षष्ठी को ‘छठी मैया’ के रूप में पूरी श्रद्धा व भावना रखकर पूजा जाता है।ऐसा माना जाता है कि,
महाभारत काल में कर्ण सूर्य भगवान की कृपा से महान योद्धा बना था, क्योंकि वह
प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देता था और उसने ही इस पर्व की शुरुआत की थी। इसी कारण वही पद्धति इस पर्व में तभी से अपनाई जा रही है।
हमारी सनातन भारतीय संस्कृति में मनाए जाने वाले सारे पर्व-त्योहार सम्पूर्ण रूप से न केवल तार्किक हैं, बल्कि विज्ञान सम्मत भी। इस तरह के सभी पर्व-त्योहार न केवल हमें हमारी संस्कृति को संरक्षित रख पाने में योगदान देने के लिए प्रोत्साहित करते है, बल्कि प्रकृति को भी हम कैसे संरक्षित रख सकते हैं, की अनूठी शिक्षा देते हैं। इस पर्व की यह खासियत है कि, इस पर्व को मनाने के लिए मंदिर या देव मूर्तियों की आवश्यकता नहीं है, इसलिए न तो किसी पंडित-पुरोहित की जरूरत होती है और न ही किसी भी प्रकार के कर्मकांडों व शास्त्रीय विधि-विधानों की। हालाँकि, जैसे सभी पर्व त्योहारों में रोग-मुक्ति, संतान प्राप्ति और सुख सौभाग्य की कामना की जाती है, उसी तर्ज पर यह पर्व भी पूर्ण श्रद्धा व भावना से व्रत-उपवास करते हुए भगवान सूर्य नारायण व षष्ठी मैया से प्रार्थना की जाती है।
इस पर्व के प्रति इतनी श्रद्धा, पूज्यभाव व आस्था है कि, बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्र के निवासी जहाँ भी रहने लग गए हों, वे इसे मनाने के लिए अपने घर परिवार के साथ पहुँचने की पूरी चेष्टा करते हैं। हालाँकि, अब यह पर्व पूरे भारत में मनाया जाने लगा है, इसलिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि यह पर्व अब राष्ट्रीय पर्व बन चुका है।
सभी तथ्यों को ध्यान में रख हम यह कह सकते हैं कि, यह पर्व एक तरह से अपने गाँव वाले घर आने का एक बहाना बन जाता है। और इसके चलते माँ अपनी सन्तान के साथ कुछ समय बिता पाती हैं। अन्यथा नौकरी-व्यवसाय के चलते गाँव आना हो नहीं पाता है, और यह क्रम छोटे बालक-बालिकाओं में अपने ग्रामीण जीवन के माहौल को समझने के साथ रूचि जागृत करने में सहायक हो पाता है। यह पर्व बालक-बालिकाओं को अपने लोक गीतों को सुनने-समझने का अवसर भी देता है।
निःसंकोच कह सकते हैं कि, यह लोकपर्व मूलतः प्रकृति की पूजा ही है, जो हम सभी को पर्यावरण बचाने और उसका सम्मान करने की प्रेरणा देता है, साथ ही वर्ष में एक बार इस पर्व के बहाने ही सही अपने घर हो आने के लिए प्रेरित भी करता है, और उस परम्परा को जिन्दा रखने के लिए भी, जो समानता की वकालत करती है।