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बदलता परिवेश और रिश्ते-सोचिए जरूर

अजय जैन ‘विकल्प’
इंदौर(मध्यप्रदेश)
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जीवन रिश्तों से ही चलता है, और यह इसकी साँस है, पर बदलते परिवेश, परवरिश और सुविधाओं के संस्कारों से यह सिमट रहा है। हाल ही में घटित एक घटना इसका सबूत है।
महानायक अमिताभ बच्चन, उप-प्रधानमंत्री रहे लालकृष्ण आडवाणी और मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव से लेकर महाराष्ट्र के क्षत्रप बाल ठाकरे सहित अनेक बड़े राजनेताओं, घरानों व रसूखदारों से घनिष्ठ रिश्ता रखने वाले उद्योगपति, भवन निर्माता व इलेक्ट्रॉनिक पत्रकारिता के भी प्रमुख रहे सुब्रत रॉय का हाल में हुआ निधन और उनकी चिता में पौत्र द्वारा मुखाग्नि दी जाने की घटना ऐसे अनेक सवालों को जन्म दे गई है। एक बार फिर राजा, रंक और ऊँची हस्तियों के जीवन का कड़वा सच सामने आया है। कितनी विडम्बना और आश्चर्यजनक बात है कि, जिस अमीर सुब्रत रॉय यानि ‘सहारा श्री’ ने
अपने दोनों लड़कों की शादी पूरी विलासिता और शान से करते हुए २००४ में पूरे देश की अति विशिष्ट हस्तियों को समारोह में इकट्ठा किया एवं ५०० करोड़ की भव्य शादी की (जो उस समय सबसे महँगी मानी गई), उन्हीं बेटों ने बाप को अंतिम समय में कंधा नहीं दिया। मौत के करीब २ दिन इंतज़ार के बावजूद जब रईस पिता की रईस संतानें भारत नहीं आईं तो बेटे कीजगह पौत्र ने मुखाग्नि देकर इन्हें पंचतत्व में विलीन किया।
घोर अचरज कि, संस्कारों वाले जिस भारत देश की अच्छाई और सभ्यता विदेशी अपनाते हैं, रिश्तों की दुहाई देते हैं, उसी भारत में पिता के निधन पर विदेश में बैठे बेटों ने पिता के लिए पहुँचने में असमर्थता जता दी। कारण जो भी हो, पर क्या यही जीवन का अंतिम सत्य है ? क्या इसे ही दुनिया बनाम दुनियादारी कहेंगे ? क्या एक पिता इसी लिए संतान को इस लायक बनाता है कि, वो जिन्दा तो ठीक, पर उसकी अंतिम विदाई में भी नहीं आए ?
पत्रकारिता क्षेत्र में चैनल के माध्यम से अनेक लोगों को बेहतर वेतन और सहारा देने वाले सुब्रत रॉय ने जीवन में कभी ऐसी कल्पना भी नहीं की होगी कि, उनकी मौत पर दुनिया रिश्तों का ऐसा अजीब मंजर भी देखेगी। वास्तव में यह जगहँसाई ही है। कहना गलत नहीं होगा कि, संसार में ऐसे अनेक नामी-गिरामी लोग हैं, जो फर्श से अर्श तक तो पहुँचे, नाम-पैसा खूब कमाया और विवादों के बावजूद असफलता से सफलता भी पाई, किन्तु जिन्दगी की अंतिम सच्चाई यही रही कि, अरबपति होकर भी खाली हाथ गए, बेकार मौत मिली, परिवार से साथ छूटा या फिर बे-सहारा हुए। भले ही फिर उनके जीते-जी हजारों लोग सेवा में खड़े रहे।
बात केवल इस घटना की नहीं है, बल्कि समाज के सामने यह ज्वलंत प्रश्न तो है ही कि आखिर सगी संतानें पिता के लिए ऐसा कैसे कर सकती हैं ? देश हो या विदेश, १-२ दिन में तो पहुँच पाना सम्भव है ही, फिर रिश्तों में आखिर ये बेगानापन क्यों ? जीते-जी तो फिर भी किसी सुख-समारोह को टाला जा सकता है, दूसरी बार शामिल हुआ जा सकता है, पर क्या एक परिजन की मौत को दूसरी बार देखा जाएगा, वह दुःख बाँटा जाएगा ? यकीनन नहीं, और कितनी भी तकलीफ या विपरीत हालात हों, संतान का ऐसे दुःख में आना जिम्मेदारी है, संस्कार है और नैतिकता भी। ऐसी घटनाएँ समाज के सामने रिश्तों की परत भी उघाड़ती है। दरअसल, जीते-जी पैसे के दम पर अमीर लोग जो रईसी दिखाते हैं, अपनी संतानों को विदेश में पढ़ाते हैं और उनके लिए हर सुविधा मुहैया कराते हैं, वही संतान अपनी युवावस्था में कई कारण से असली रंग दिखाती है। हालाँकि, गरीब माँ-बाप भी अनेक बार कर्जा लेकर और पेट काटकर अपनी हैसियत से परे संतान का बेहतर भविष्य बनाते हैं। बाद में उनका भाग्य-दुर्भाग्य कि, भविष्य के आसरे की वही औलाद बुरी निकले या श्रवण कुमार।
जीवन तो ठीक, पर जब अंत समय में भी संतान बुरी साबित होती है तो इससे पालन-पोषण पर भी सवाल उठता है। आखिर संतान को ऐसे-कैसे संस्कार-गुण सिखाए गए कि, अंतिम समय में ऐसा दिन देखना पड़े ! या संतान ने समझने की उम्र से समझदार होने तक आखिर क्या समझा-सीखा ? सुनकर ही हलक सूख जाता है कि, माता-पिता को कुछ हो या उनकी साँसें साथ छोड़ दे और बेटा मिलने नहीं आए, यानि वो खून के रिश्ते छोड़ दे। अरे, ऐसे समय तो पराए और दुश्मनी रखने वाले भी कंधा देने तथा दुःख बाँटने चले आते हैं, तो फिर कोई अपना ही ऐसा कैसे कर सकता है ? ऐसा करने वाली संतान की समस्या कितनी भी बड़ी हो, किन्तु माता-पिता के रिश्ते से बड़ी नहीं हो सकती, कतई नहीं। जीते-जी अगर अनबन रही तो उसे भी जिन्दा रहने पर निभाना समझ में आता है, पर दुनियादारी छोड़ चुके व्यक्ति से क्या दुश्मनी ? जिन माँ-बाप ने आपको अंश बनाकर दुनियादारी और रिश्तेदारी का संस्कार दिया, उनके अंत समय में संतान का नहीं जाना ऐसी संतान की भी बदनसीबी है, साथ ही देने वाले की भी परीक्षा।
बात का सार और सवाल यही है कि, समुद्र की तली तक भी जाकर अगर मोती नहीं मिले तो क्या मतलब है अच्छा तैरने का, इसी तरह रिश्तों की तह तक जाकर भी संतान अपनी नहीं तो क्या पाया अरबों कमाकर, जी-कर और मरकर भी…। इसलिए भले ही कुछ मत दीजिए, पर परिवेश, परवरिश और संस्कार ऐसे ही दीजिए कि, बाद में जमाना उसे देखकर नहीं रोए, बल्कि अच्छी परवरिश पर सोंचकर ऐसे व्यक्ति के जाने पर आँसू बहाए। भले ही फिर राजा हो या फकीर।