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भारतीय राजनीति में ‘चरण स्पर्श रोग’

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

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भारतीय राजनीति और भारतीय मानस का एक लाइलाज लक्षण यह भी है कि जिस काम से बचने को कहा जाए,वही हर हाल में किया जाए। ऐसी ही लाइलाज बीमारियों में से एक है पैर छू संस्कृति। यूँ भारतीय परम्परा में यह बुजुर्गों,श्रेष्ठिजनों,गुरूओं और विद्वानों के प्रति सम्मान करने का प्रतीक है,लेकिन राजनीति में यह और भी कई आयाम समेटे रहता है। दरअसल इस सनातन परम्परा पर चर्चा करने के मूल में मप्र के एक कैबिनेट मंत्री के बंगले पर लगी वह तख्‍ती है,जिसमें साफ-साफ लिखा है कि पैर छूना मना है। यह तख्‍ती लगवाने वाले मंत्री डाॅ. गोविंद सिंह मुखर और जुझारू राजनेता माने जाते हैं और अपने विधानसभा क्षेत्र लहार से विपरीत राजनीतिक लहरों में भी जीत कर आते रहे हैं। वे यहां तक किसी के पैर छूकर पहुंचे हैं या नहीं,यह साफ नहीं है,लेकिन सत्ता में एक ऊंचे आसन पर बैठकर उन्होंने दूसरों से पैर न छुआने का जो संकल्प किया है,वह वाकई अनुकरणीय है। भारत में हिंदू और उससे जुड़े दूसरे धर्मों में चरण स्पर्श करना,आशीर्वाद लेना सुसंस्कृत होने का प्रतीक है। एक संस्कृत श्लोक है कि-जो व्यक्ति रोज बड़े-बुजुर्गों के सम्मान में प्रणाम और चरण स्पर्श करता है,उसकी उम्र,विद्या,यश और शक्ति बढ़ती जाती है। यह भी माना जाता है कि पैर स्पर्श करने से सम्बन्‍धित व्यक्ति की कॉस्मिक ऊर्जा का संचार पैर छूने वाले व्यक्ति में होता है। अर्थात यह एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में सकारात्मक ऊर्जा के संचार का प्रतीक है। वरिष्ठों के पैर न छूना हमारे यहां अशिष्टता का लक्षण है। कई लोगों का मानना है कि अपने से बड़े तथा श्रेष्ठ लोगों के पैर छूने से मन प्रसन्न रहता है। साथ ही पैर छूने के लिए दूसरे के आगे झुकना पड़ता है। इससे झुकने वाले व्यक्ति का मन का अहंकार स्वत: तिरोहित हो जाता है। इस झुकने में आदर के साथ-साथ कृतज्ञता का भाव भी निहित है। दूसरे शब्दों में कहें तो चरण स्पर्श करने की प्रक्रिया मनुष्य को देवत्व की अोर ले जाने की पहली पायदान है। शायद यही वजह है अधिकांश भारतीय सार्वजनिक रूप से चरण स्पर्श करने में संकोच नहीं करते। वो हाथ मिलाने,गले मिलने या ‘हलो-हाय’ करने से ज्यादा कम्युनिकेटिव चरण स्पर्श को मानते हैंलेकिन जब बात सियासत की आती है तो परंपराओं का विपर्यास होने लगता है। हिंदुओं की यह संस्कार सूचक परम्परा भारतीय राजनीति में अब एक अनिवार्यता बन गई है। इसने कुछ हद तक धार्मिक दीवारों को भी भेद दिया है। लिहाजा,चरण स्पर्श की रिवायत राजनीतिक क्षेत्र में नई ‘ऊंचाइयों’ तक जा पहुंची है। कहना गलत नहीं होगा कि,हमारे यहां राजनीति का श्रीगणेश ही चरण स्पर्श से होता है। नौसिखिया कार्यकर्ता पहले दिन से ककहरा सीखता है कि कब,कहां,किसके और कितनी बार चरण स्पर्श करने हैं,ताकि बड़े भैया, दादा भाई,पंडितजी,ठाकुर साहब,राजा साहब,महाराजा साहब इत्यादि श्रेष्ठीजनों की कृपा कैसे अर्जित की जा सके। यहां राजनीति करने,राजनीति सीखने के लिए किसी विचारधारा या चिंतन शैली को आत्मसात कर,उस पर अमल करने अथवा उसके आधार पर लोगों को संगठित करने से ज्यादा महत्वपूर्ण है आकाओं के पैर पड़ते रहना। दरअसल कृपा बरसवाने का सबसे छोटा रास्ता है चरण स्पर्श। निरापद भाव से सियासत में आगे कूच की गारंटी है चरण स्पर्श। फिर चाहे सार्वजनिक मंच हो,सभा हो,झुंड हो,भीड़ हो,एकांत हो,गाड़ी में सवार हों या फिर पैदल चल रहे हों,कोई भी समर्थक,अनुयायी,कार्यकर्ता या भक्त आकर कब किस नेता के पैर छू जाएगा,कहना मुश्किल है। कई बार तो लगता है चरण स्पर्शेच्छुओं की निगाहें मानो अगले के पैरों पर ही टिकी रहती हैं कि,कब मौका लगे और पैर छू डालूं। उधर नेताओं की नजरें भी उन ‘योग्य’ और ‘विनम्र’ कार्यकर्ताओं पर लगी रहती हैं,जो कुछ भी मांगने से पहले अपने नेताजी की दोनो टांगों का पवित्र स्पर्श कर धन्य नहीं हो जाते। जाहिर है कि ऐसा केवल निर्मल आदर अथवा श्रद्‍धा भाव के कारण नहीं किया जाता। दरअसल,यह राजनीतिक बही-खाते की एक ‘लेन-देन प्रणाली’ है,जिसमें कृपा दृष्टि की फाइल इसी ‘सेवा’ के क्लिक से खुलती है। चरण स्पर्श की इस राजनीतिक पद्धति में अधिकतम पाने का आग्रह सदैव छुपा रहता है। इसीलिए,जब बड़े नेता किसी से अपने पैर छुआते हैं तो उसमें आशीर्वाद की उदारता कम,उपकार जताने का अहं भाव ज्यादा होता है। हालांकि,कुछ नेता अपने पैर छुआते रहने से अजीज भी आ जाते हैं,लेकिन लोग हैं कि उनके पैरों को चरण पादुका मानने से बाज नहीं आते। कहने का तात्पर्य यह कि भारतीय राजनीति में पैर छूना-छुआना ऐसा रोग है,जिससे अव्वल तो कोई पिंड छुड़ाना नहीं चाहता और पिंड है कि छूटना नहीं चाहता। कुछ लोगों के मन में तो डर छाया रहता है कि जिस दिन राजनीति से ‘पैर छू संस्कृति’ बैन हो जाएगी,उसी दिन राजनीति से कृपा बरसने और बरसाने का खेल भी खत्म हो जाएगा। भारत जैसे देश में इसे सहन नहीं किया जा सकता क्योंकि,यह तरक्की और समृद्धि का ऐसा आजमाया हुआ गुर है,जो शुभ-लाभ की गारंटी देता है। लिहाजा,कार्यकर्ता नेता के,नेता और बड़े नेता के,मंत्री मुख्‍यमंत्री के,मुख्‍यमंत्री (यथा संभव) पीएम के,छोटे कर्मचारी अफसर के और छोटे अफसर बड़े अफसर के पैर छूने में संकोच नहीं करते। चरण स्पर्श की यह चेन अखंड रूप से झंकृत होती रहती है। सोचने की बात यह है कि नेताओं के ‘जबरिया’ चरण स्पर्श से कौन-सी ऊर्जा संवाहित होती है,नकारात्मक या सकारात्मक? इतना कुछ होने के बाद भी मंत्री डाॅ गोविंद सिंह ने भोपाल स्थित सरकारी बंगले पर ‘पैर छूना मना है’ लिखवाकर हिम्मत और जोखिम का काम किया है। हालांकि,इस बोर्ड को पढ़कर कितने कार्यकर्ता अनुप्राणित होते होंगे,कहना कठिन है। कुछ साल पहले हिमाचल प्रदेश के तत्कालीन मुख्‍यमंत्री जयराम ठाकुर ने अपने जन्म दिन समारोह में सार्वजनिक रूप से ऐलान कर ‍दिया था कि लोग उनके पैर न छुएं। यह शोभा नहीं देता,लेकिन लोगों ने ‘पैर छूना’ भले कम कर दिया हो,‘पैर पड़ना’ बंद नहीं किया। आखिर ठाकुर साहब ने कहना ही छोड़ दिया। कुछ इसी तर्ज पर डाॅ. गोविंद सिंह ने परिवहन कर्मचारियों के एक कार्यक्रम में साफ कहा कि वे पैर छुआकर अपना सम्मान नहीं कराना चाहते। सम्मान ही जताना है तो केवल अभिवादन करें। इसका कितना असर हुआ होगा,कहना मुश्किल है। सवाल यह है कि पैर छूने को लेकर इतनी उत्कटता क्यों? क्या हमें पैर छुए बगैर किसी का आशीर्वाद मिलने का भरोसा ही नहीं होता या फिर यह पैर छुआई महज चापलूसी का राजनीतिक संस्करण है ?,क्योंकि इस अदा में हाथ जरूर सामने वाले के पैरों पर होते हैं,लेकिन निगाहें किसी प्रतिदान की अपेक्षा में उठी रहती हैं। फिर चाहे वह मतों के रूप में हो,नोटों के रूप में हो,पद के तौर पर हो या फिर ठेके की सूरत में हो। और फिर ‘गोविंद’ को लेकर एक दिक्कत और भी है कि-‘गुरू गोविंद दोनों खड़े काके लागू पांय…? अब चरण स्पर्शाकांक्षी किस पर अमल करें,‘गुरू’ को या ‘गोविंद’ को ? डाॅ.गोविंद सिंह के बंगले पर लगी तख्‍ती इसका जवाब नहीं देती…।

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