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यूरोपीय मीडिया ने दिया था ‘साइक्लानिक हिन्दू’ नाम

डॉ.अनुज प्रभात
अररिया ( बिहार )
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सन् १८९३ में जब यूरोप, अमेरिका के लोग पराधीन भारत के लोगों को बहुत ही हीन दृष्टि से देखते थे, तब जापान, चीन, कनाडा की यात्रा करते हुए स्वामी विवेकानंद विश्व धर्मसभा में भाग लेने अमेरिका के शिकागो‌ पहुंचे। भारत से आने के कारण वहां के लोगों का प्रयास रहा कि, उन्हें बोलने का मौका नहीं मिले, किंतु एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें २ मिनट बोलने का अवसर दिया गया तो आरंभ के ही संबोधन-“मेरे अमेरिकी बहनों और भाईयों।” ने सबका दिल जीत लिया। उपरांत उनके विचार सुनकर वहां के लोग चकित हो गए। उनका वक्तव्य, उनकी भाषा-शैली और उनके ज्ञान से प्रभावित होकर यूरोप, अमेरिका की मीडिया ने स्वामी विवेकानंद के लिए एक विशिष्ट व्यक्ति के रूप में -साइक्लानिक हिन्दू’ के नाम से संबोधित किया और वे हिन्दू धर्म अर्थात सनातन धर्म को अपने व्याख्यानों से विवेचना करने वाले एक महान दार्शनिक के रूप में प्रसिद्ध हो गए। वे एकमात्र ऐसे संत-दार्शनिक थे, जिनके कारण वेदान्त दर्शन यूरोप व यूरोप तक पहुंचा। उन्होंने दर्शन, धर्म, इतिहास, विज्ञान, कला, वाणिज्य, साहित्य के साथ ही वेद, पुराण, उपनिषद, भागवत गीता, रामायण, महाभारत और हिन्दू धर्म शास्त्रों का गहन अध्ययन करने के साथ ही भारतीय संगीत में प्रशिक्षण लिया। उन्होंने पश्चिमी दर्शन, यूरोपीय इतिहास का अध्ययन जनरल असेम्बली इंस्टीट्यूट में किया। संस्कृत ग्रंथों और बंगला साहित्य का अध्ययन करने के साथ उसे सीखा भी। विधिवत शिक्षा के रूप में १८७१ में ईश्वर चंद्र विद्यासागर के मेट्रोपोलिटन संस्थान में दाखिला लिया, लेकिन ७७ में जब उनका परिवार रामपुर चला आया, तो शिक्षा में रूकावट आ गई, पर २ वर्ष बाद ही कलकत्ता वापस आकर ७९ में प्रेसीडेंसी कॉलेज से प्रवेश परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। फिर ८१ में ललित कला की परीक्षा के साथ १९८४ में कला स्नातक की डिग्री भी प्राप्त की। उनका परिवार एक विशेष परिवार था। दादा दुर्गाचरण दत्त संस्कृत और फ़ारसी के प्रकांड विद्वान थे। पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता उच्च न्यायालय के वकील थे। माता भुवनेश्वरी देवी धार्मिक महिला थी। पुरान, रामायण, महाभारत आदि की कथा सुनाना उनके नित्य का नियम था। एक अध्यात्मिक परिवार होने के कारण इन्हीं सबका गहरा प्रभाव बालक नरेंद्र दत्त (स्वामी विवेकानंद का मूल नाम) के मन पर पड़ा और वे प्रसिद्ध अध्यात्मिक गुरु और वेदान्त के ज्ञाता हुए। उनके जीवन में १८८० में परिवर्तन तब आया, जब स्वामी रामकृष्ण परमहंस के प्रभाव से एक व्यक्ति केशव चंद्र सेन ने ईसाई धर्म छोड़कर हिन्दू धर्म अपनाते हुए नव विधान केन्द्र स्थापना कर रखी थी, तो वे उसमें शामिल हो गए। उनका प्रारंभिक विश्वास, ब्रह्म समाज में था, जिसमें निराकार ईश्वर की उपासना की जाती है। वे जब स्वामी परमहंस के संपर्क में आए तो उनके परम शिष्य बन गए और उन्होंने रामकृष्ण मिशन एवं रामकृष्ण मठ की स्थापना की। स्वामी विवेकानंद विविध ज्ञान के प्रति अधिक जागरूक रहते थे। इसलिए, डेविड ह्यूम, इमैनुएल कांट, जोहान गौटबिल फिच, बारूक स्पिनोज़ा, जार्ज डब्लू एच हेजेज, अगस्त कॉम्टे, चार्ल्स डार्विन एवं स्टूअर्टमिल जैसे विद्वानों को भी पढ़ा। वे हर्बर्ट स्पेंसर के विकासवाद सिद्धांत से काफी प्रभावित थे। इसलिए, उनकी पुस्तक ‘एजुकेशन’ का बंगला अनुवाद भी किया। इसके अतिरिक्त उनकी कई अन्य कृतियाँ हैं जैसे-कर्मयोग (१८९६), राजयोग, वेदान्त फिलोसोफी, लेक्चर फ्रॉम कोलंबो टू अलमोरा (९७), वर्तमान भारत (बंगला में-९९), ज्ञानयोग, एवं माई मास्टर (१९०१, वेकर एंड टायलर कंपनी न्यूयॉर्क ने प्रकाशित किया)। इन सबके अतिरिक्त उनके विचार और कथन के रूप में कई पुस्तकें प्रकाशित हुई जैसे-नरेन्द्र भक्ति सूत्र, पारा भक्ति और सुप्रीम डीवोसन (१९०९ में उनके मरणोपरांत इन्सपायर टाक्स ने प्रकाशित किया)। स्वामी विवेकानंद का नारा था-“उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाए।” इसके अतिरिक्त उनके कई महत्वपूर्ण संदेश उल्लेखनीय हैं- “उठो, जागो, जागकर औरों को जगाओ। अपने नर-जन्म को सफल करो।” “सारे जीवों में स्वंय परमात्मा का अस्तित्व है।” “जो दूसरे जरुरतमंदों की मदद करता है या सेवा करता है, उसके द्वारा परमात्मा की सेवा की जाती है।” उन्होंने अपने देश को लेकर संदेश देते हुए कहा था- “तुमको कार्य के क्षेत्रों में व्यवहारिक बनना पड़ेगा। सिद्धान्तों के ढेरों ने संपूर्ण देश का विनाश कर दिया है।” स्वामी विवेकानंद के जीवन में घटित कई कहानियाँ प्रचलित हैं। यहाँ २ महत्वपूर्ण कहानी का जिक्र करना आवश्यक है। प्रथम- जब वे विदेश के समारोह में भाषण दे रहे थे, तो भाषण समाप्ति के उपरांत उनसे प्रभावित हो एक विदेशी महिला उनके पास आकर बोली-“मैं आपसे विवाह करना चाहती हूँ, ताकि आप जैसे गौरवशाली पुत्र की प्राप्ति हो! ” विदेशी महिला की बातों को सुनकर स्वामी जी ने कहा-“मैं एक संन्यासी हूँ, भला मैं कैसे आपसे विवाह कर सकता हूँ। यदि आप चाहो तो मुझे अपना पुत्र बना लो। इससे मेरा संन्यास भी नहीं टूटेगा और आपको मेरे जैसा पुत्र भी मिल जाएगा।” इतना सुनते ही महिला उनके चरणों में गिर पड़ी और बोली-“आप धन्य हैं, आप ईश्वर के समान हैं जो किसी भी परिस्थिति में अपने धर्म मार्ग से विचलित नहीं होते हैं।” इस प्रकार से उन्होंने नारी का सम्मान कर एक संदेश दिया कि, हर पुरुष को ऐसा ही करना चाहिए। दूसरी कथा है-एक बार स्वामी जी अपने आश्रम में सो रहे थे, तभी एक व्यक्ति आया और उनके चरणों में गिर पड़ा। बोला-“महाराज! मैं मन लगाकर मेहनत करता हूँ, हर काम मन लगाकर करता हूँ, लेकिन अभी तक सफल नहीं हो पाया हूँ।” स्वामी जी ने कहा-“ठीक है, आप मेरे इस पालतू कुत्ते को थोड़ी देर घुमा कर लाएं, तब तक मैं आपका समाधान ढूंढता हूँ।” कुत्ते को घुमाकर जब वह व्यक्ति वापस आया तो स्वामी जी ने कुत्ते को देखकर पूछा- “यह इतना हॉंफ क्यों रहा है..जबकि तुम थके नहीं लग रहे हो..?” उसने जबाब दिया-“मैं तो सीधा अपने रास्ते चल रहा था, जबकि कुत्ता इधर-उधर भागता और कुछ भी देखता तो उस ओर दौड़ जाता।” स्वामी जी ने मुस्कुराते हुए कहा-“तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर यही है। तुम भी अपनी मंजिल की बजाय इधर-उधर भागते रहे हो, जिस कारण कभी-कभी सफल नहीं हो पाए।” वह व्यक्ति समझ गया कि, हमें सफलता के लिए मंजिल पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इस प्रकार वे अपने नारे की सार्थकता को सिद्ध कर भी दिखाते भी थे, किन्तु सत्य तो सत्य ही है, जो इस संसार में आता है, उसे जाना भी होता है। उनकी भी ४ जुलाई १९०२ को बेलूर मठ (हावड़ा) में तीसरी बार हृदय गति रुकने से मृत्यु हो गई। उनके संदर्भ में कुछ महापुरुषों के कथन समीचीन हैं। जैसे, गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर के अनुसार-“यदि आप भारत को जानना चाहते हो तो विवेकानंद को पढ़िए। उनमें आप सब-कुछ सकारात्मक ही पाएंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं।” रोमां रोलां के अनुसार-” उनके द्वितीय होने की कल्पना करना असंभव है, वे जहां भी गए, सर्वप्रथम ही रहे। हर कोई उनमें अपने नेता का दिग्दर्शन करता था। वे ईश्वर के प्रतिनिधि थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी।” संभवतः इन्हीं विशिष्टताओं के कारण यूरोपीय मीडिया ने उन्हें ‘साइक्लानिक हिन्दू’ कहा।

परिचय-एम.ए. (समाज शास्त्र), बी.टी.टी. शिक्षित और साहित्यालंकार सहित विद्यावाचस्पति व विद्यासागर (मानद उपाधि) से अलंकृत राम कुमार सिंह साहित्यिक नाम डॉ. अनुज प्रभात से जाने जाते हैं। १ अप्रैल १९५४ को अंचल नरपतगंज (अररिया, बिहार) में जन्मे व वर्तमान में अररिया स्थित फारबिसगंज में रहते हैं। आपको हिंदी, अंग्रेजी, मैथिली सहित संस्कृत व भोजपुरी का भी भाषा ज्ञान है। बिहार वासी डॉ. प्रभात सेवानिवृत्त (शिक्षा विभाग, बिहार सरकार) होकर सामाजिक गतिविधि में फणीश्वरनाथ रेणु समृति पुंज (संगठन) के संस्थापक सचिव और अन्य संस्थाओं से भी जुड़े हुए हैं। स्क्रीन राइटर एसोसिएशन (मुम्बई) के सदस्य राम कुमार सिंह की लेखन विधा-कहानी, कविता, गज़ल, आलेख, संस्मरण है तो पुस्तक समीक्षा एवं पटकथा लेखक भी हैं। आपके साहित्यिक खाते में प्रकाशित पुस्तकों में ‘बूढ़ी आँखों का दर्द’ (कहानी संग्रह), ‘नीलपाखी’ (कहानी संग्रह), ‘आधे-अधूरे स्वप्न’, ‘किसी गाँव में कितनी बार…कब तक ? (कविता संग्रह) सहित ‘समय का चक्र’ (लघुकथा संग्रह) दर्ज है तो मराठी में अनुवाद (बूढ़ी आँखों का दर्द)भी हुआ है। ऐसे ही कुछ पुस्तकें प्रकाशनाधीन हैं। अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन हो चुका है तो दलित साहित्य अकादमी (दिल्ली) से बाबा साहब भीमराव आम्बेडकर नेशनल फेलोशिप (२००८), रेणु सम्मान (बिहार सरकार), साहित्य प्रभा विद्याभूषण सम्मान (देहरादून) और साहित्य श्री (छग), साहित्य सिंधु (भोपाल) आदि सम्मान प्राप्त हुए हैं। इनकी लेखनी का उद्देश्य-हिन्दी साहित्य व हिन्दी भाषा के प्रति भारतीय युवाओं को जागरूक करना है। आपके पसंदीदा हिन्दी लेखक फणीश्वरनाथ रेणु, बाबा नागार्जुन, मुंशी प्रेमचंद, हिमांशु जोशी और प्रेम जनमेजय हैं। माता-पिता को प्रेरणा पुंज मानने वाले डॉ. अनुज प्रभात का जीवन लक्ष्य साहित्य व मानव सेवा है। देश और हिन्दी भाषा के प्रति विचार-“देश के प्रति हम सभी समर्पित होते हैं, किन्तु देश के विकास के लिए भाषा का विकास आवश्यक है। हमारी राष्ट्र भाषा हिन्दी है और हम उसके प्रति न संवेदनशील हैं और न ही जागरूक। आज निःशुल्क टोल नम्बर पर भी यही बोला जाता है-‘अंग्रेजी के लिए १ दबाएं, हिन्दी के लिए २ दबाएं…।’ हिन्दी के लिए १ दबाएं क्यों नहीं ? बात छोटी है…, पर हमें ध्यान देना चाहिए।”