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विरले संत स्वामी रामसुखदास जी

गोवर्धन दास बिन्नाणी ‘राजा बाबू’
बीकानेर(राजस्थान)
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ऐसा सुना हुआ है कि, परम श्रद्धेय संत स्वामी रामसुखदास जी ने अपने विषय में किसी भी प्रकार का भाव व्यक्त करने की मनाही की हुई है, फिर भी उनके निर्वाण दिवस के मौके पर-
जब मैं ७-८ साल का था, तब एक दिन अकोला (महाराष्ट्र) में मेरे बाबाजी (ताऊजी) श्रद्धेय बुलाकी दासजी संध्याकाल के बाद रामचन्द्र रामगोपाल जी की कोठरी में सत्संग के लिए मुझे लेकर गए। वहां मैंने प्रथम बार स्वामी जी का दर्शन किया, लेकिन उनकी उस दिन कही यह बात कि ‘हम प्रति क्षण मृत्यु के समीप जा रहे हैं’, ऐसी दिमाग में बैठी जो आज तक कायम है और यही तथ्य किसी भी अनैतिक कर्म से रोकने में अभी तक बहुत ही कारगर सिद्ध हो रहा है। उसके बाद अनेक बार उनके व्याख्यान सुने और सभी के सभी सांसारिक जीवन सही ढंग से बिताते हुए कैसे जीवन में सही मायने वाली उन्नति की जा सकती है, जानने व समझने में काम आए।
मैं उन भाग्यशाली लोगों में हूँ, जिनको स्वामी जी का कई बार दर्शन लाभ के अलावा सामीप्य का लाभ मिला, और मैंने हमेशा उन्हें शान्त चित्त, स्पष्टता से समस्या से निपटने का सरल तरीका समझाते हुए पाया। वैसे तो अनेक वाकये हैं, लेकिन मैं यहां केवल यह-
एक बार कोलकाता में उस समय के कर्मठ समाजसेवी, प्रसिद्ध उद्योगपति व अति धार्मिक मंगनीराम जी बाँगड़ ने उनको अति सुन्दर, मुलायम व बहुमूल्य शाॅल ओढ़ा दिया। हांलांकि, स्वामी जी का इस बाबत सभी को स्पष्ट दिशा निर्देश था कि, उन्हें इन सबसे बिना चूके दूर रखा जाए, लेकिन अचानक इस घटना से सभी भौंचक्के रह गए, परन्तु श्रद्धेय स्वामी जी ने एकदम शान्त-चित्त से उसे अपने गले से उतार सामने विराजित एक वृद्ध सन्त को ओढ़वा दिया। जब उपस्थित गणमान्यों ने बांगड़ जी को जानकारी दी, तब वे ग्लानिपूर्ण भाव से क्षमा मांगने हेतु खड़े हुए तो स्वामी जी ने अपने चिर-परिचित अन्दाज में हॅंसते हुए कहा कि “आपके माध्यम से ‘प्रभु ने मेरी परीक्षा’ ली है, अतः मैं आपका आभारी हूँ।”

आज उनके १९वें निर्वाण दिवस पर अन्तर्मन से उनके चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ।

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