कुल पृष्ठ दर्शन : 943

You are currently viewing वो नया मेहमान…

वो नया मेहमान…

गोवर्धन दास बिन्नाणी ‘राजा बाबू’
बीकानेर(राजस्थान)
*********************************************

आज से ५० साल पहले मेरे दोस्त ने मेरा मुँह मीठा कराते हुए बताया कि, उसके घर में आज नया मेहमान आया है। जब मैंने पूछा-‘लड़की हुई है या लड़का!’ तो उसने कहा कि ‘मैंने खुशी के चलते भाई साहब से विस्तार में बात ही नहीं की।’
आगे चलकर मैंने अनुभव किया कि, उस बच्चे को किसी दूसरे को देते नहीं थे और जैसा अमूमन होता है कि, परिवार का सदस्य हो या कोई अन्य बच्चे को बाहर सुबह-शाम घुमा लाते हैं, वैसा भी नहीं था। वो और बड़ा हुआ तो पाठशाला में दाखिला अवश्य करवाया, लेकिन स्वयं ही लाते-ले जाते रहे। उसे हमेशा बालक की पोशाक पहनाते रहे। इस तरह किसी प्रकार वह विद्यालय स्तर उत्तीर्ण कर गया। फिर जब महाविद्यालय में दाखिले का समय आया, तब पता चला कि वह ‘इन्दिरा गाँधी नेशनल ओपन यूनिवर्सिटी’ से घर बैठे ही आगे की पढ़ाई करेगा।
इसी बीच एक दिन मुझे ऐसा आभास हुआ कि, उसे भले ही अभी तक लड़कों वाला परिधान पहनाया जाता हो, लेकिन वह तो लड़की है। तब निश्चय कर दोस्त से घुमा-फिरा कर इस पर जबाब मांगा, तो उसने कह दिया कि, ‘आज-कल लड़के और लड़की का पहनावा तो एक समान ही है। इसलिए इसमें क्या खास बात है।’
इसी बीच उसे नौकरी भी मिल गई, तब वह निजी दुपहिया वाहन से नौकरी पर आने-जाने लगी। एक दिन उसके साथ काम करने वाले (मेरे एक परिचित का लड़का) ने अपने घर में इस विषय पर चर्चा की, क्योंकि वह नौकरी स्थल के अलावा कहीं भी आती-जाती नहीं थी। वह आफिस में काम करने वालों के यहाँ भी आयोजित किसी कार्यक्रम में जाती ही नहीं थी, बल्कि किसी न किसी बहाने टालती ही रहती। फलस्वरूप परिचित के लड़के का उस पर सन्देह गहराता चला गया।
एक दिन अचानक वह परिचित मेरे से मिलने आया और मुझसे उसके बारे में कुछ भी न बता कर निवेदन किया कि, मैं उस बच्ची के परिवार वालों से उसके लड़के के साथ रिश्ते की बात करूँ। मैंने मौका देख अपने दोस्त से उसके भाई-भाभी का हाल-चाल पूछ उसकी भतीजी के सम्बन्ध में बात करते हुए कहा-‘अब सही समय है, जब तुम लोग भतीजी की शादी कर दो।’
दोस्त ने कहा कि, ‘अभी तक तो कभी भी इस विषय पर सोचा ही नहीं और भाई साहब के मामले में वह बीच में पड़ना ही नहीं चाहता है।’
मैंने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा-‘क्या कह रहे हो ?
उसने कहा-‘मैंने बिल्कुल सोच-समझकर कहा है।’
२-३ दिन बाद उस परिचित ने फोन पर ही पूछा कि, ‘क्या रिश्ते वाली बात उस बच्ची के परिवार वालों से की है ?’
तब मैंने हकीकत बयाँ कर दी। तब उसने कहा- ‘मैं समय निकाल कर १-२ दिन में मिलने आऊँगा।’
जब वह मिलने आया, तब उसने सारी बात स्पष्ट बता दी। मैं सोच में पड़ गया कि, उस परिचित के लड़के का अनुमान (वह किन्नर है) सही है, क्योंकि वह बच्ची बड़ी ही शान्त प्रकृति की थी, बात-व्यवहार में बड़ी ही शालीन थी और पारिवारिक सदस्यों के साथ भी उसका व्यवहार बहुत ही आदर्शपूर्ण था। उसे उसके माता-पिता के साथ बाकी सभी सदस्यों का भी भरपूर प्यार मिलते हुए मैंने महसूस किया था। वह सारे त्यौहार सभी पारिवारिक सदस्यों के साथ बड़ी ही धूमधाम से मनाती थी।
कुल मिलाकर मुझे ही नहीं, बल्कि मोहल्ले के किसी को भी उससे किसी भी प्रकार की शिकायत नहीं थी। हाँ, हम सब मोहल्ले वाले यह तो अवश्य महसूस करते थे कि, वह कभी भी हमारे यहाँ किसी भी कार्यक्रम में सहभागिता नहीं निभा रही है।
इसके बाद मैंने मोहल्ले के अपने खास भरोसेमंद से इस किन्नर विषय पर संक्षेप में चर्चा की। तब उसने कहा कि, ‘यह सही है और यह तथ्य उसको उस बच्ची की बुआ ने बहुत पहले ही हिदायत देकर बता दिया था। उस पूरे परिवार ने उसको पूरा संरक्षण देते हुए संस्कारिक भी बनाना है और उसको पैरों पर खड़ा भी करना है, का निर्णय लिया हुआ है।’
इसके बाद एक दिन मेरे दोस्त के बड़े भाई का हृदयाघात हो गया। उस समय वह परिवार एक बड़े शहर में रह रहा था। उस बच्ची ने बिना घबराए अपनी माताजी को एकदम आश्वस्त कर घर पर ही रह भगवान नाम जप करते रहने का समझाकर पिताजी का उपचार एक अच्छे अस्पताल में करवाना शुरू कर दिया। इसी बीच उसने अपने परिवार वालों को भी सूचना भेज दी। खून की आवश्यकता हुई तो अपना खून भी दिया। धीरे-धीरे कर परिवार वाले जब अस्पताल पहुँचे तो, संयमितता से हाल बताकर सभी से आग्रह किया कि, ‘आप आए हैं, पापा से मिल लें, लेकिन कृपया कर न तो ज्यादा बात करें और न ही उनको बीमारी के बारे में बताएं। वो अवश्य ही जानने की कोशिश करेंगे, तब यही कह दें कि सारी जाँच हो जाने पर ही सही बीमारी का पता चलेगा।’
वह रात-दिन अस्पताल में ही रहती। रात को भी किसी को रहने नहीं दे रही थी। बीच-बीच में माताजी को बुला स्वयं भी मिल लेती और अपने पापा से भी आराम से मिलवा देती। कुल मिलाकर उसने पूरी सूझबूझ व संयम से वह कठिन समय निकाला। जब उनको छुट्टी मिल गई, तब भी वह चिकित्सक के हिसाब से उनकी पूरी देखभाल करती और आफिस भी सम्भाल रही थी। इसके पश्चात उनका देहान्त हो गया तो उसने अपने चाचाजी को तुरन्त बुलाकर पूरा सहयोग दिया, क्योंकि छोटा भाई होने के नाते उसे ही १५ दिन वाला कार्यक्रम करने का उसकी भाभी ने आग्रह किया था। इन १५ दिनों में किसी का भी एक धेला न लगे, इसका उसने पूरा-पूरा ध्यान रखा।
इसके बाद अपनी माताजी को लेकर हरिद्वार वगैरह जा कर आई। आगे चलकर जब माताजी बीमार पड़ी, तो जैसे पिताजी की सेवा की, उसी तरह माताजी की भी की। एक बार उस शहर में मुझे किसी कार्यवश जाना पड़ा, तब अपने सम्बन्धों को ध्यान में रख मैं उनके घर भाभी जी से मिलने गया। उस समय बच्ची घर पर नहीं थी, लेकिन भाभी जी मिलीं। उनसे ही इतना सब-कुछ बातचीत के दौरान पता चला, क्योंकि उनको मालूम हो गया था कि अब मोहल्ले वालों को सारी वस्तुस्थिति पता चल गई है। उन्होंने बताया कि, ‘वैसे तो वह निडर की तरह रहती है लेकिन मेरे सामने अपने पिता जी को याद कर अकेले में खूब रोई और उसे शान्त कराना मेरे लिए बहुत भारी हुआ।’
उन्होंने मुझसे यह भी कहा कि, ‘यह सब प्रारब्ध का फल है। यही हम दोनों जीवों का मानना था। और हमने इसके जन्म पश्चात ही निर्णय कर लिया था कि, इसे कभी भी एहसास नहीं होने देंगे और बढ़िया ढंग से पढ़ा-लिखा कर संस्कारिक भी बनाएंगे। उसको अपने पैरों पर खड़ा भी कर देंगे, ताकि उसे किसी अन्य पर आश्रित न होना पड़े।’
इसी बीच वह आफिस से लौट आई। आते ही मुझे पहचाना ही नहीं, बल्कि मेरे नाम के आगे चाचा जी लगा झुक कर प्रणाम किया तो बरबस मेरे मुँह से आशीष वचन ‘खूब नाम कमाओ’ निकल गया।
इसके पश्चात भाभी जी का भी देहान्त हुआ और मेरे दोस्त का भी। उसने बखूबी सब नियम पालन करते हुए अपना दायित्व समयानुसार बहुत ही बढ़िया ढंग से निभाया। आज भी वह समय-समय पर अपनी चाची से बतिया लेती है, लेकिन उसकी चाची ने ही एक बार मुझे बताया कि, वह इन तीनों को बहुत ही याद करती है और अब एकाकीपन महसूस कर रही है, क्योंकि वह मुझसे वहाँ शहर में आकर साथ रहने को कहती है।
उपरोक्त से यह सिद्ध हो गया कि, किन्नरों की भी हमारी तरह सब तरह की भावना होती है। यदि उचित संरक्षण मिले, तो वे न तो लड़के से कम दायित्व वाली होंगी और न ही लड़की से।