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समत्वं योग उच्यते

डॉ.पूर्णिमा मंडलोई
इंदौर(मध्यप्रदेश)

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कृष्ण जन्माष्टमी स्पर्धा विशेष……….


मनुष्य सांसारिक बंधनोंं में रहकर राग-द्वेष,प्रेम,घृणा,जीवन-मरण, जय-पराजय एवं भोग-विलास के विषयों में पड़ कर कभी सुख व कभी दु:ख का अनुभव करता रहता है,जिसके कारण वह परेशान व कष्ट में रहता है और शरीर के साथ -साथ मन भी अभिलाषाओं,आकांक्षाओं में उलझा रहता है। इन सब परिस्थितियों से मुक्ति का मार्ग ‘योग’ है।
‘श्रीकृष्ण’ ने ‘भगवत गीता’ में जीवन जीने की कला को उपदेशों और योग के माध्यम से बताया है,जिसमें योग को अनेक प्रकार से परिभाषित किया गया है। वास्तव में गीता अपने-आपमें सम्पूर्ण योग ही है,जिसमें अध्याय २ में योग की परिभाषा समत्वं योग उच्यते दी है। अर्थात सफलता-असफलता व सुख-दु:ख से विचलित हुए बिना कोई व्यक्ति निष्काम भाव से कर्म करता है,तो यही योग है। सांसारिक पदार्थों में प्रवृत्ति की जितनी शक्ति हममें निहित होती है,उतनी ही उनसे निवृत्त होने की भी शक्ति है,तो उस अवस्था को संतुलित और समत्व की अवस्था कहते हैं।
जब मन,बुद्धि और शरीर भली-भांति नियंत्रण में होता है और इच्छाओं से मुक्ति बनी रहती है,तभी कोई व्यक्ति आन्तरिक आनंद का वास्तविक अर्थ समझ पाता है। ऐसी स्थिति में मनुष्य पीड़ा व दुखोंं की भारी स्थिति से मुक्त रहता है,यही योग है।
महायोगेश्वर श्री कृष्ण द्वारा गीता में समत्वं योग उच्यते से योग को परिभाषित करना उपदेश देना मात्र नहीं है,वरन् स्वयं उन्होंने एक योगी की तरह जीवन जिया है। इसके उदाहरण कईं जगह देखने को मिलते हैं,जैसे-श्रीकृष्ण युद्ध की भीषण परिस्थिति में अपने ही परिजनों को लड़ता देख बिना विचलित हुए समत्व भाव से उपदेश देते हैं। वे किसी भी परिस्थिति में मुस्कुराते रहे,चाहे फिर कालिया नाग के उपर हैं तो भी मुस्कुरा रहे हैं,या कंस के भव्य मल्ल मारने आ रहे हैं,तब भी मुस्कुरा रहे हैं। अर्थात् श्रीकृष्ण प्रत्येक परिस्थिति में मुस्कुराते एवं बांसुरी बजाते रहे हैं। बस यही समत्वं योग उच्यते है।
श्रीकृष्ण द्वारा भगवत् गीता में दिए गए उपदेश एवं योग संदेश हमको राह दिखाते हैं कि,हमें राग-द्वेष,मान-अपमान,जय- पराजय,सुख-दु:ख आदि से परे रहकर एक साक्षी की तरह जिन्दगी का आनंद लेना चाहिए। यदि किसी परिस्थिति में असहज महसूस करें,या समभाव रहने में कठिनाई हो तो श्रीकृष्ण द्वारा गीता में दिए गए योग उपदेशों को पढ़ कर,समझ कर समस्या को हल किया जा सकता है। बिना कामना के किया जाने वाला कर्म एवं जीवन के हरेक पड़ाव में समान स्थिति में रहना ही योग है। अतः सदैव चंचल रहने वाली इन्द्रियों को वश में रखते हुए मन को एकाग्र कर परम शान्ति की अवस्था में जीवन व्यतीत करना चाहिए। यही भगवान श्रीकृष्ण के प्रति हमारी सच्ची भक्ति होगी।
(इक दृष्टि यहाँ भी:महायोगेश्वर=श्रीकृष्ण,निष्काम=बिना कामना के किया जाने वाला कर्मl)

परिचय-डॉ.पूर्णिमा मण्डलोई का जन्म १० जून १९६७ को हुआ है। आपने एम.एस.सी.(प्राणी शास्त्र),एम.ए.(हिन्दी), एम.एड. करने के बाद पी.एच-डी. की उपाधि(शिक्षा) प्राप्त की है। वर्तमान में डॉ.मण्डलोई मध्यप्रदेश के इंदौर स्थित सुखलिया में निवासरत हैं। आपने १९९२ से शिक्षा विभाग में व्याख्याता के पद पर लगातार अध्यापन कार्य करते हुए विद्यार्थियों को पाठय सहगामी गतिविधियों में मार्गदर्शन देकर राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर पर सफलता दिलाई है। विज्ञान विषय पर अनेक कार्यशाला-प्रतियोगिताओं में सहभागिता करके पुरस्कार प्राप्त किए हैं। २०१० में राज्य विज्ञान शिक्षा संस्थान(जबलपुर) एवं मध्यप्रदेश विज्ञान परिषद(भोपाल) द्वारा विज्ञान नवाचार पुरस्कार एवं २५ हजार की राशि से आपको सम्मानित किया गया हैl वर्तमान में आप जिला शिक्षा केन्द्र में प्रतिनियुक्ति पर सहायक परियोजना समन्वयक के रुप में सेवाएं दे रही हैंl कई वर्ष से लेखन कार्य के चलते विद्यालय सहित अन्य तथा शोध संबधी पत्र-पत्रिकाओं में लेख एवं कविता प्रकाशित हो रहे हैं। आपकी लेखनी का उद्देश्य अपने लेखन कार्य से समाज में जन-जन तक अपनी बात को पहुंचाकर परिवर्तन लाना है।

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