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समर्पित भक्ति-आराधना से ही शक्ति

गोवर्धन दास बिन्नाणी ‘राजा बाबू’
बीकानेर(राजस्थान)
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शक्ति, भक्ति और दिखावा…

वैदिक काल से ही ऋषि-मुनि कड़ी तपस्या, उपासना के साथ साथ पूरे भक्ति-भाव से विभिन्न देवी-देवताओं के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो उनसे समय-समय पर अपने को असुरों से बचाव हेतु शक्तियाँ प्राप्त करते थे, और उन शक्तियों को प्राप्त करने के पीछे किसी भी प्रकार से किसी का अनिष्ट करने का उद्देश्य नहीं रहा। सभी ने पौराणिक किताबों में पढ़ा है कि, ऋषि-मुनियों के अलावा अन्य जिन्होंने ऐसी शक्तियाँ प्राप्त कीं, उनका उद्देश्य अपने को मजबूत बना, उसकी ढाल ले अन्य पर रौब जमा कर अपने हित में काम करने के लिए मजबूर करना, प्रताड़ित करना, पूजा स्थलों को उजाड़ देना अर्थात निन्दनीय कृत्यों को करना रहा है।
आज इस कलयुग में भक्ति-भाव तो न के बराबर देखने में आता है, जबकि भक्ति की आड़ में शक्ति प्रदर्शन अवश्य ही समय-समय पर परिलक्षित होता ही रहता है। यही कारण है कि, कुछ माह पहले मद्रास उच्च न्यायालय ने मन्दिर उत्सवों के आयोजनों पर सवाल उठाते हुए कहा था कि, मन्दिर उत्सव अब सिर्फ समूहों के शक्ति प्रदर्शन बन कर रह गए हैं। आजकल धार्मिक शोभा यात्राएं भी अब शक्ति प्रदर्शन का रूप लेने लगी हैं, क्योंकि इनमें शक्ति का प्रदर्शन स्पष्ट दिखलाई देता है। अर्थात
भक्त भगवान पर लुटाना नहीं, भगवान को ही लूटना चाहता है। इसी संदर्भ में कहीं पढ़ी यह पंक्तियाँ याद आ ही गई-‘मन्दिरों में भक्ति नहीं, दिखावे का करते शोर। श्रद्धा दिलों में रही नहीं, दौलत का चलाते जोर॥’
एक तथ्य और कि, आज-कल शक्ति के अलावा भक्ति की आड़ में दिखावा बढ़ता जा रहा है। लोग मन्दिरों में जाते हैं, तब अपने आडम्बर का प्रदर्शन करने से चूकते नहीं हैं, जबकि तन, मन और धन के सम्पूर्ण समर्पण भाव से जो उपासना की जाती है, वही भक्ति मानी जाती है और ऐसा करने वाला ही सही मायने में भक्त कहलाता है।
आज भी सनातन समाज में ऐसे सन्त मौजूद हैं, जो शक्ति प्राप्त होने पर भी बिना किसी लाग-लपेट व दिखावे के स्वयं भक्ति-भाव में दिन-रात लीन रहते हुए अन्य को भी अपने लोभ, मोह और क्रोध का त्याग कर पूर्णरुप से भक्ति-भाव में लीन हो जाने के लिए प्रेरित करते हैं, साथ में यह भी कहते हैं कि, आप सभी को अपने अंदर के लोभ , मोह और क्रोध का त्याग
गृहस्थाश्रम में रहते हुए करना है।

निष्कर्ष यही है कि, भक्ति एक तरफ शक्ति प्राप्त करने के लिए की जाती है तो, दूसरी तरफ मोक्ष पा लेने के लिए, इसलिए जब मन्दिर-मन्दिर घूमेंगे या आडम्बर का प्रदर्शन करते रहेंगे, लेकिन मन में वैमनस्यता, लालच वगैरह से मुक्ति नहीं पाएंगे तो यह निश्चित मानिए कि, हम सही मायने में उपासना नहीं कर रहे हैं, बल्कि जाने-अनजाने में अपना ही नुकसान कर रहे हैं। दूसरे शब्दों में अपने पाँव पर हम स्वयं कुल्हाड़ी मार रहे हैं। सभी तथ्यों का सार यही है कि, अपने अन्तर्मन को पूर्णरूपेण निर्मल कर सर्वशक्तिमान के प्रति समर्पित हो जाने से ही हम मोक्ष की तरफ अग्रसर हो पाने में सफल हो सकेंगे। जैसा सन्त तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में वर्णित किया है- ‘विश्वरूप रघुवंश मणि, करहू वचन विश्वास।’ यानि जो कुछ भी चराचर सृष्टि के रूप में दिख रहा है, वह परमात्मा या ईश्वर का स्वरूप है। उसी तरह गीता में भी बताया गया है-‘ईश्वरः सर्वभूतानाम हृद्देशे ऽर्जुन तिष्ठति।’ अर्थात दृश्य जगत सब ईश्वर का स्वरूप है। हम जिस किसी से भी व्यवहार कर रहे हैं, वे सबके सब परमात्मा के स्वरूप हैं। अतः मन, वचन एवं कर्म से इसकी यथा-उचित सेवा करना है और इसी का नाम भक्ति है, पर ध्यान रखें भक्ति ऐसे ही प्राप्त नहीं होती। इसलिए ही रामचरितमानस में कहा भी है-‘भक्ति स्वतंत्र सकल गुण खानी, बिनु सत्संग न पावे प्राणी।’ मतलब कि, यथार्थ भक्ति करना है, मनमानी नहीं।