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हमें बड़े पुनर्जागरण की जरूरत

डॉ. रजनीश शुक्ल
भोपाल (मप्र)
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आइए, जानते हैं हमारे गुरुकुल कैसे बन्द हुए।
इंग्लैंड में पहला विद्यालय १८११ में खुला, उस समय भारत में ७,३२,००० गुरुकुल थे।
मैकाले का स्पष्ट कहना था कि, भारत को हमेशा-हमेशा के लिए अगर गुलाम बनाना है तो इसकी ‘देशी और सांस्कृतिक शिक्षा व्यवस्था’ को पूरी तरह से ध्वस्त करना होगा और उसकी जगह ‘अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था’ लानी होगी और तभी इस देश में शरीर से हिन्दुस्तानी लेकिन दिमाग से अंग्रेज पैदा होंगे और जब इस देश की यूनिवर्सिटी से निकलेंगे तो हमारे हित में काम करेंगे।
१८५० तक इस देश में ७ लाख ३२ हजार गुरुकुल हुआ करते थे, और उस समय इस देश में गाँव थे ७ लाख ५० हजार, मतलब हर गाँव में औसतन १ गुरुकुल। ये जो गुरुकुल होते थे, वो सबके सब आज की भाषा में ‘हायर लर्निंग इंस्टिट्यूट’ हुआ करते थे। उन सबमें १८ विषय पढ़ाए जाते थे और ये समाज के लोग मिलके चलाते थे, न कि राजा, महाराजा।
अंग्रेजों का एक अधिकारी था जी. डब्ल्यू लूथर और दूसरा था थॉमस मुनरो। दोनों ने अलग-अलग इलाकों का अलग-अलग समय सर्वे किया था। लूथर, जिसने उत्तर भारत का सर्वे किया था, उसने लिखा है कि यहाँ ९७ फीसदी साक्षरता है और मुनरो, जिसने दक्षिण भारत का सर्वे किया था, उसने लिखा कि यहाँ तो १०० प्रतिशत साक्षरता है।
मैकाले एक मुहावरा इस्तेमाल कर रहा है कि,-‘जैसे किसी खेत में कोई फसल लगाने के पहले उसे पूरी तरह जोत दिया जाता है, वैसे ही इसे जोतना होगा और अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लानी होगी। इसलिए, उसने सबसे पहले गुरुकुलों को गैरकानूनी घोषित किया। जब गैरकानूनी हो गए, तो उनको मिलने वाली सहायता जो समाज की तरफ से होती थी, वो गैरकानूनी हो गई, फिर संस्कृत को गैरकानूनी घोषित किया और इस देश के गुरुकुलों को घूम-घूम कर ख़त्म कर दिया। उनमें आग लगा दी, उसमें पढ़ाने वाले गुरुओं को उसने मारा-पीटा, जेल में डाला।
गुरुकुलों में शिक्षा निःशुल्क दी जाती थी। इस तरह से सारे गुरुकुलों को ख़त्म किया गया और फिर अंग्रेजी शिक्षा को कानूनी घोषित किया गया और कलकत्ता में पहला कॉन्वेंट स्कूल खोला गया। उस समय इसे ‘फ्री स्कूल’ कहा जाता था। इसी कानून के तहत भारत में कलकत्ता यूनिवर्सिटी बनाई गई, बम्बई यूनिवर्सिटी बनाई गई, मद्रास यूनिवर्सिटी बनाई गई, ये तीनों गुलामी के ज़माने की आज भी देश में मौजूद हैं।
मैकाले ने अपने पिता को एक चिट्ठी लिखी थी। बहुत मशहूर चिट्ठी है वो, उसमें वो लिखता है कि,-‘इन कॉन्वेंट स्कूलों से ऐसे बच्चे निकलेंगे, जो देखने में तो भारतीय होंगे, लेकिन दिमाग से अंग्रेज होंगे और इन्हें अपने देश के बारे में कुछ पता नहीं होगा। इनको अपनी संस्कृति के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपनी परम्पराओं के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपने मुहावरे नहीं मालूम होंगे, जब ऐसे बच्चे होंगे इस देश में तो अंग्रेज भले ही चले जाएँ, इस देश से अंग्रेजियत नहीं जाएगी।’
उस समय लिखी चिट्ठी की सच्चाई इस देश में अब साफ साफ दिखाई दे रही है और उस अधिनियम की महिमा देखिए कि, हमें अपनी भाषा बोलने में शर्म आती है, जबकि अंग्रेजी में बोलते हैं कि, दूसरों पर रौब पड़ेगा। हम तो खुद में हीन हो गए हैं, जिसे अपनी भाषा बोलने में शर्म आ रही है, उस देश का कैसे कल्याण संभव है ?
हमारी पुरानी शिक्षा पद्धति बहुत ही समृद्ध और विशाल थी। यही कारण था कि, हम विश्वगुरु थे। हमारी शिक्षा पद्धति से पैसे कमाने वाली मशीन पैदा नहीं होती थी, बल्कि मानवता के कल्याण हेतु अच्छे और विद्वान इंसान पैदा होते थे। आज तो जो बहुत पढ़ा-लिखा है, वही सबसे अधिक भ्रष्ट है, वही सबसे बड़ा चोर है।
हमने अपना इतिहास गवां दिया है, क्योंकि अंग्रेज हमसे हमारी पहचान छीनने में सफल हुए। उन्होंने हमारी शिक्षा पद्धति को बर्बाद करके हमें अपनी संस्कृति, मूल धर्म, ज्ञान और समृद्धि से अलग कर दिया। आज शालाओं और महाविद्यालयों का जो हाल है, वो क्या ही लिखा जाए ! हम न जाने ऐसे लोग कैसे पैदा कर रहें हैं, जिनमें जिम्मेवारी का कोई एहसास नहीं है। जिन्हें सिर्फ़ पद और पैसों से प्यार है। हम इतने असफल कैसे होते जा रहें हैं ?
किसी भी समाज की स्थिति का अनुमान वहाँ के शैक्षणिक संस्थानों की स्थिति से लगाया जा सकता है। आज हम इसमें बहुत असफल हैं। हमने विद्यालय और महाविद्यालय
तो बना लिए, लेकिन जिस उद्देश्य के लिए इसका निर्माण हुआ, उसकी पूर्ति के योग्य इंसान और तंत्र नहीं बना पाए। जब आप अपने देश का इतिहास पढ़ेंगे, तो गर्व भी महसूस करेंगे और रोएंगे भी, क्योंकि आपने जो गवां दिया है, वो पैसों-रुपयों से नहीं खरीदा जा सकता। हमें एक बड़े पुनर्जागरण की जरूरत है। सरकारें आएंगी, जाएंगी, इनसे बहुत उम्मीद करना बेवकूफी होगी। जनता जब तक नहीं जागती, हम अपनी विरासत को कभी पुनः हासिल नहीं कर पाएंगे। जागना होगा और कोई विकल्प नहीं।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुम्बई)