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११वीं-१२वीं में भारतीय भाषाओं की अनिवार्यता प्रशंसनीय

प्रेमपाल शर्मा
दिल्ली
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निर्णय….

कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता वाले एनसीईआरटी के नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क समिति की इस सिफारिश की तारीफ की जानी चाहिए, जो उन्होंने ११वीं १२वीं कक्षाओं में २ भारतीय भाषाओं की अनिवार्यता बताई है। यह नई शिक्षा नीति का शायद व्यवहारिक और प्रभावी कदम होगा। मनुष्य बाकी जीवों से अपनी भाषा के कारण ही अलग है। हजारों भाषाएं दुनिया के हजारों समुदायों, देशों में बोली जाती है। यह मनुष्य का एक स्वाभाविक लक्षण है। शिक्षा उसे और परिमार्जित करती है, बेहतर बनाती है। कुछ-कुछ मानक भी, लेकिन विदेशी दासता में रहे अधिकतर देशों का यह दुर्भाग्य कहा जाएगा कि वह गुलामी की उस भाषा को छोड़ नहीं पा रहे। भारतीय महाद्वीप पर इसका बहुत गहरा असर हुआ है। सबसे बुरा असर तो शिक्षा पर होता है, जो किसी भी देश को बदलने के लिए सबसे प्रभावी हथियार है।
आजादी की लड़ाई के समय महात्मा गांधी और दूसरे राष्ट्रीय नेताओं ने भारतीय भाषाओं की आजादी के समानांतर ही वकालत की थी, लेकिन दुर्भाग्यवश आजादी के बाद अंग्रेजी लगातार हावी होती गई। चाहे कोठारी आयोग ने अपनी भाषाओं की बात की हो या प्रो. यशपाल समिति ने या दूसरे विद्वानों ने, मगर सत्ता पर एक ऐसा वर्ग हावी रहा जो अंग्रेजी के बूते ही अपनी धौंस जमा सकता था। वह मजे से सत्ता का सुख भोगता रहा। नतीजा बार-बार की सिफारिशों के बावजूद और शिक्षा की लगातार गिरती स्थितियों में भी भारतीय भाषाएं आगे नहीं बढ़ पाई।
मौजूदा सरकार ने इस दिशा में कई कदम उठाए हैं। नई शिक्षा नीति में बार-बार इस बात को दोहराया गया है कि, यथासंभव अपनी भाषा में शिक्षा दी जाए। प्राथमिक स्तर पर तो प्रादेशिक भाषा-बोली को प्राथमिकता दी ही गई है, उसके आगे शालेय शिक्षा में भी इसे जरूरी माना है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने भी इस बीच कुछ कदम उठाए हैं। जून २०२३ में उन्होंने विश्वविद्यालयों को आदेश दिया है कि, जहां अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाई दी जाती है, लेकिन पढ़ने वाले यदि अपनी प्रादेशिक भाषा में उत्तर देना चाहें तो उसे उसकी छूट दी जाए। चिकित्सा, अभियांत्रिकी की शिक्षा भी हिन्दी में शुरू हो गई है और उसके लिए पुस्तकें भी तैयार की जा रही हैं। इसी के समानांतर नौकरियों में भी अपनी भाषा धीरे-धीरे प्रवेश कर रही है। हालांकि, गुलामी में पले और सामंती संस्कारों के अधिकारी अपनी विशिष्टता के लिए अभी भी अंग्रेजी का मोह नहीं छोड़ पा रहे, लेकिन मौजूदा कदम शायद सबसे प्रभावी साबित होगा। ७५ साल में स्थिति यह हो गई है कि, ११वीं १२वीं में अंग्रेजी तो अनिवार्य है, भारतीय भाषाएं कम से कम उत्तर भारत से तो बिल्कुल ही गायब हो गई है। निजी विद्यालयों में तो उसकी कोई जगह ही नहीं है। दिल्ली, नोएडा, गाजियाबाद और गुड़गांव के निजी विद्यालयों की बात करें तो वहां नवी कक्षा से ही हिंदी या कोई भी भारतीय भाषा मुश्किल से ही पढ़ाई जाती है।अंग्रेजी के साथ इन अमीरों के लिए जापानी फ्रेंच दुनिया भर की विदेशी भाषाएं उपलब्ध हैं, लेकिन भारत की भाषाएं नहीं। थोड़ी-बहुत बची है तो सरकारी विद्यालयों में। और सरकारी विद्यालय जो लगभग ९० फीसदी शिक्षा में मौजूद थे, ५० प्रतिशत भी नहीं बचे हैं। यानी कि भारतीय भाषाओं की अंतिम उम्मीद भी गायब। जब केवल अंग्रेजी को अहंकार और प्रतिष्ठा का पर्याय मान लिया गया हो, तो वहां न लोक और लोक भाषा के लिए कुछ बचता है और न लोकतंत्र के लिए।
अच्छा हुआ कि, मौजूदा सरकार ने इस रोग को सही पकड़ा है। दक्षिण भारत में कम से कम दसवीं तक भारत की भाषाएं हैं। महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल में तो २ से ज्यादा भारतीय भाषाएं विद्यार्थियों के सामने उपलब्ध रहती हैं। इसी लिए, विज्ञान, गणित, रसायन शास्त्र जैसे पढ़ने वाले विद्यार्थी ११वीं-१२वीं में भी अपनी भाषा के साथ-साथ माध्यम भी भारतीय भाषा का चुनते हैं। क्या भारतीय भाषाओं को पढ़ने से दक्षिण भारत पीछे रह गया है ? क्या विकास के सभी पैमानों पर वहां बेहतर स्थिति नहीं है ? यहां यह रेखांकित करना इसलिए जरूरी है कि, उत्तर भारत के अंग्रेजी के मारे अमीर बार-बार विकास का पर्याय अंग्रेजी को मानते हैं, जबकि हकीकत इससे उल्टी है। उत्तर भारत में अंग्रेजी इतनी हावी होती जा रही है कि, लाखों बच्चे उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा में हिंदी में अनुत्तीर्ण होते हैं और इसी अनुपात में उनकी शिक्षा की समझ में गिरावट आई है। यह याद रखने की बात है कि, यदि एक बार समझ पैदा हो गई और जो अपनी भाषा में ज्यादा आसान होती है, तो उसके बाद कोई विदेशी भाषा सीखना भी उतना ही आसान होता है। यह दुनियाभर के शिक्षाविदों के अनुभव और निष्कर्ष हैं। और इसी लिए पूरे यूरोप, चीन और जापान से लेकर दुनिया का कोई भी देश ऐसा नहीं है, जहाँ अपनी भाषा में शिक्षा नहीं दी जाती हो। यही कारण है वे वैज्ञानिक उपलब्धियों, नई खोजों, रचनात्मकता के विकास और समाज की बेहतरी में सबसे आगे हैं। पिछले दिनों जो अध्ययन सामने आए हैं, उनमें से कोई भी विकसित देश ऐसा नहीं है, जिनकी शिक्षा अपनी भाषा में ना होती हो।
कुछ लोग विज्ञान, गणित आदि की शिक्षा अपनी भाषा में देने का विरोध दुरूहता के नाम पर करते हैं। यह भ्रामक अवधारणा है। गणित का उदाहरण लीजिए। यदि व्यवहार में गुणा-भाग करने की जरूरत पड़े तो सभी उसे अपनी भाषा में दोहराते हैं। यानी कि मस्तिष्क का तंत्रिका तंत्र मातृभाषा के अनुरूप विकसित होता है और इसी लिए दुनिया को समझने की उसकी शक्ति भी उसी अनुपात में बढ़ती है। फिर वही रचनात्मकता नवोन्मेष को आगे बढ़ाती है। फिर शिक्षा वैसा बोझ नहीं बनती, जैसा भारत जैसे देश में हो रहा है और अंग्रेजी के दबाव में अभियांत्रिकी-चिकित्सा महाविद्यालय के विद्यार्थी आत्महत्या करने को मजबूर होते हैं। शाला स्तर पर सर्वेक्षण बताते हैं कि, सबसे ज्यादा विद्यालय छोड़ना सिर्फ अंग्रेजी के कारण होता है।
११वीं १२वीं में भारतीय भाषाओं के पढ़ाने के बहुत दूरगामी परिणाम होंगे । उस भाषा में सोचने-अभिव्यक्ति की सामर्थ्य पैदा होगी और फिर यही लौटकर उनको अपनी भाषाओं में विज्ञान, सामाजिक विज्ञान आदि की किताबें लिखने को प्रेरित करेगी। क्या एक सच्चे प्रशासक, न्यायाधीश को जनता की भाषा नहीं आनी चाहिए ? और क्या लोक का यह अधिकार नहीं है कि जो न्याय दिया जा रहा है, जो जिलाधीश या दूसरे अधिकारी उनसे जो कह रहे हैं, वह उसी भाषा में होना चाहिए। यदि उसी आँचलिक बोली- भाषा के शब्द हों तो और भी अच्छा। आप किसी भी महानगर में सर्वेक्षण कर लीजिए, सबसे ज्यादा बोलने वाले वहां की प्रादेशिक भाषा के होते हैं। चाहे बेंगलुरु हो दिल्ली हो, तमिलनाडु हो और उसके बाद संपर्क भाषा के रूप में हिंदी का क्रम आता है। आसाम से लेकर गुजरात, केरल, कश्मीर तक आप टूटी-फूटी हिंदी में बात कर सकते हैं। अंग्रेजी में नहीं, लेकिन सत्ता के शीर्ष पर बैठे कुछ अमीरों ने ऐसा भ्रम फैलाया है कि, अंग्रेजी के बिना काम नहीं चल सकता। उनका कुतर्क देखिए कि, जब वे यह वकालत करते हैं कि विदेश में सिर्फ अंग्रेजी ही समझी जाती है। यह कितना बड़ा झूठ है! क्या चीन, जापान और फ्रांस में अंग्रेजी से काम चलता है ? नहीं! और दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष कि, पहले हम अपने देश व उसके समाज की भाषा सीखेंगे कि विदेश जाने वाली किसी पनडुब्बी में डूब कर मरने के लिए पैदा हुए हैं ? .
सबसे प्रभावी कदम सरकार का ११वीं १२वीं में भारतीय भाषाओं का पढ़ाने का होगा! निश्चित रूप से इससे शिक्षा की पूरी तस्वीर बदल सकती है और शिक्षा से पूरे देश की।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुम्बई)

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