`आत्मजा`
विजयलक्ष्मी विभा इलाहाबाद(उत्तरप्रदेश) ********************************************************* आत्मजा खंडकाव्य से अध्याय-७ कहते यों बह पड़ीं दृगों से, अविरल दो मोटी धाराएँ निकल पड़ी ज्यों तोड़ स्वयं ही, पलकों की तमसिल काराएँl तारों-सी हो चली शान्त वह, सागर-सी गम्भीर प्रभाती नीरव नभ-सी मूक,किन्तु थी, नहीं हृदय में पीर समाती। हँसने पर कर लिया नियंत्रण, मुस्कानों तक सीमा बाँधी आ … Read more