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श्रम का महत्व

सुरेश चन्द्र ‘सर्वहारा’
कोटा(राजस्थान)
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कुछ ही सालों पहले की है
बच्चों यह घटना छोटी,
लेकिन इसमें बात छुपी जो
सीख हमें देती मोटी।
आसमान में ऊँचाई पर
झुंड गिद्ध का था उड़ता,
ढूँढ रहा था खाने को पर
नहीं दिखाई कुछ पड़ता।
रहा भटकता कई दिनों तक
पा न सका लेकिन भोजन,
इसी खोज में नाप लिए थे
उसने कितने ही योजन।
उड़ते-उड़ते उसे दूर तब
इक टापू था दिख पड़ा,
लहराते गहरे सागर के
था वह बीचों बीच खड़ा।
हरियाली से अटा पड़ा था
पेड़ कई थे वहाँ सघन,
गिद्धों को तो लगा क्षेत्र वह
सचमुच ही नन्दन कानन।
मेंढक मछली झींगे घोंघे
बहुतायत से थे जलचर,
पक्षी भी थे तरह तरह के
वहाँ पेड़ की शाखों पर।
इससे भी थी बड़ी बात यह
हिंसक पशु थे वहाँ नहीं,
अतः गिद्ध सब होकर निर्भय
रह सकते थे सदा वहीं।
उत्साहित थे गिद्ध सभी वे
रम्य जगह ऐसी पाकर,
कहते जीवन सफल हो गया
आज यहाँ अपना आकर।
कुछ कहते अब कहीं न जाना
बड़े मजे हैं अरे यहाँ,
मिला रहे थे सभी खुशी से
इक-दूजे की हाँ में हाँ।
लगे बीतने दिन गिद्धों के
मस्ती से खाते-पीते,
खुश होते थे मन ही मन वे
बिन श्रम का जीवन जीते।
किन्तु गिद्ध जो सबसे बूढ़ा
उसे नहीं यह लगा भला,
सोचा उसने-काट रहा है
यह तो चुपचुप लोभ गला।
और एक दिन अपनी चिन्ता
प्रकट सभी के की आगे,
जिससे आलस की निद्रा में
सोया गिद्ध झुंड जागे।
कहा-भाइयों उचित नहीं है
बिन श्रम के जीवन जीना,
यह तो मीठे लगते विष को
जान बूझ कर है पीना।
जब से आकर बसे यहाँ हम
हुए सभी आराम-तलब,
खा-पीकर सोते रहने से
मोटे होते जाते सब।
आसानी से भोजन मिलता
ना शिकार कोई करता,
कई महीनों से कोई तो
ना उड़ान देखा भरता।
मित्रों! हम हैं गिद्ध सदा जो
उच्च उड़ानें हैं भरते,
तेज दृष्टि से देख दूर तक
वार अचूक रहे करते।
लेकिन भूले सभी यहाँ आ
क्या शिकार क्या ही उड़ना,
यह तो है ठहरे पानी-सा
निश्चित जीवन का सड़ना।
किसी दृष्टि से उचित नहीं है
आलस में खोना जीवन,
अतः पुराने जंगल में ही
जाने का है मेरा मन।
चला सुबह ही कल जाऊँगा,
यहाँ नहीं मुझको रहना,
चलें सभी तो अच्छा होगा
मेरा बस इतना कहना।
वृद्ध गृद्ध की बात सुनी तो
हँसी बहुत सबको आई,
बोले-लगती इस बूढ़े की
अक्ल हमें तो सठियाई।
कैसा मूर्ख हुआ जाता है
नहीं चैन से खा सकता,
बिना काम की उल्टी-सीधी
बातों को रहता बकता।
कहा एक ने मुझको तो यह
लगता है पूरा पागल,
बिन श्रम के मिल रहे निवाले
फिर भी सकता नहीं निगल।
अपनों से ही हो अपमानित
वृद्ध गिद्ध वह बेचारा,
लौट चला अपने जंगल को
आँखों में भर जल खारा॥

बीत गए थे कई वर्ष फिर
बूढ़ा गिद्ध हुआ जर्जर,
डैने भी कमजोर हो गए
धुँधली पड़ने लगी नजर।
सोचा इक दिन वृद्ध गिद्ध ने
थोड़ा-सा है अब जीवन,
पता नहीं कब टूटे तन से
प्राणों का यह गठबंधन।
एक बार फिर क्यों ना जाकर
सभी साथियों से लूँ मिल,
देखूँगा जब अपनों को तो
जुड़ जाएगा मेरा दिल।
कर साहस उस वृद्ध गिद्ध ने
तय की टापू की दूरी,
उसके दृढ़ निश्चय के आगे
ठहर सकी ना मजबूरी।
जब उतरा वह टापू पर तो
सिर उसका था चकराया,
हँसी-खुशी का चिह्न न दिखा
सन्नाटा पसरा पाया।
पड़े दिखाई जगह-जगह पर
गिद्धों के नौंचे डैने,
कहीं खून के धब्बे दिखे
कहीं चोंच पंजे पैने।
दृश्य भयानक यह देखा तो
मन में वह बूढ़ा रोया,
कहता था मैं बड़ा अभागा
जिसने सब कुनबा खोया।
वृद्ध गृद्ध ने इस घटना को
कई वर्ष पहले भाँपा,
देख सत्य पर आज सामने
वह अन्दर तक था काँपा।
तभी पास की झाड़ी में से
उसे सुनाई चीख पड़ी,
गिद्ध एक घायल देखा तो
वहीं दृष्टि रह गई गड़ी।
पास गिद्ध के जाकर पूछा
बन्धु! हुआ यह सब कैसे,
घायल गिद्ध कराहा पहले
फिर बोला जैसे-तैसे।
क्षमा करें हमने हितकारी
बात आपकी नहीं सुनी,
चुका रहे हैं अब प्राणों से
कीमत इसकी कई गुनी।
किया घोर अपमान आपका
हैं इस पर हम शर्मिन्दा,
यहाँ बचेगा कुछ दिवसों में
गिद्ध नहीं कोई जिन्दा।
पिछले माह यहाँ आए थे
ले जहाज सर्कस वाले,
प्रतिबन्धों के कारण छोड़े
यहाँ कई चीते पाले।
पहले तो चीतों ने हम पर
किया नहीं कोई हमला,
शनैः शनैः पर उन्हें हमारी
कमजोरी का पता चला।
जान गए वे उड़ने की भी
नहीं हमारी है क्षमता,
क्षीण हुए पंजों चोंचों का
चल फिर उनको गया पता।
ऐसे में चीतों ने हमको
शुरू कर दिया था खाना,
किसी हाल में रहा न संभव
उनसे बचकर रह पाना।
देख रहे हैं आज आप ही
बर्बादी का यह मंजर,
घोंप दिया है गिद्धों के तन
स्वयं मौत ने आ खंजर।
घायल गिद्ध बचे कुछ होंगे
यहाँ-वहाँ छुपते फिरते,
गिनते होंगे अंतिम साँसें
घोर निराशा से घिरते।
और बात यह कहते-कहते
तोड़ चला वह घायल दम,
वृद्ध गृद्ध रह गया देखता
कर आँसू से आँखें नम।
गिद्धों के इस दुःखद अन्त पर
शोक हुआ उसको भारी,
बुझे हृदय से उसने की फिर
उड़ जाने की तैयारी।
सुख सुविधा पाकर गिद्धों ने
श्रम से था नाता तोड़ा।
इसीलिए उनके अंगों ने
कार्य-कुशलता को छोड़ा।
बच्चों! अपने अंगों से भी
नहीं काम यदि हम लेंगे,
धीरे-धीरे सब अवयव ही
अपनी क्षमता खो देंगे।
अगर काम ना लें दिमाग से
तो न रहेगा यह तीखा,
विस्मृत होगा धीरे-धीरे
जो कुछ भी हमने सीखा।
इसी तरह ही माँसपेशियाँ
यदि प्रयोग में ना लेंगे,
बाद समय के कुछ हम इनकी
सारी ताकत खो देंगे।
हिम्मत अपनी जिन्दा है तो
मात नहीं हम खाएँगे,
मौत खड़ी नीचे होगी तो
हम ऊँचे उड़ जाएँगे॥

परिचय-सुरेश चन्द्र का लेखन में नाम `सर्वहारा` हैl जन्म २२ फरवरी १९६१ में उदयपुर(राजस्थान)में हुआ हैl आपकी शिक्षा-एम.ए.(संस्कृत एवं हिन्दी)हैl प्रकाशित कृतियों में-नागफनी,मन फिर हुआ उदास,मिट्टी से कटे लोग सहित पत्ता भर छाँव और पतझर के प्रतिबिम्ब(सभी काव्य संकलन)आदि ११ हैं। ऐसे ही-बाल गीत सुधा,बाल गीत पीयूष तथा बाल गीत सुमन आदि ७ बाल कविता संग्रह भी हैंl आप रेलवे से स्वैच्छिक सेवानिवृत्त अनुभाग अधिकारी होकर स्वतंत्र लेखन में हैं। आपका बसेरा कोटा(राजस्थान)में हैl

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