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युवाओं का मार्गदर्शन करती `जीना इसी का नाम है`

संदीप सृजन
उज्जैन (मध्यप्रदेश) 
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वर्तमान में बाल साहित्य उन्नयन के लिए एक नाम देशभर में जाना-पहचाना है,वह है राजकुमार जैन राजन काl बाल साहित्य के अलावा भी उनका अध्ययन और लेखन अन्य विषयों पर भी बहुत गहन रहा हैl तीन दशक से भी अधिक समय से सम्पादन कार्य से जुड़े हुए हैंl राजन जी के बाल साहित्य से इतर हुए रचनात्मक और प्रभावी लेखन का एक संकलन हाल ही में अयन प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है-`जीना इसी का नाम है`।

यह संकलन उनके द्वारा लिखे हुए सम्पादकीय लेखों का संकलन है। यह संकलन अनुभव का पुलिंदा है,जिसमें केवल नवनीत है-छाछ जैसा कुछ भी नहीं। इस कृति में उनके लिखे २९ लेख हैं,जो प्रकाशन के समय तो पाठकों की पसंद रहे ही,आज भी उनकी प्रासंगिकता कम नहीं होती हैl पुस्तक का पहला लेख अपने-आपमें महत्वपूर्ण हैl `पहले स्वयं का निर्माण करें` शीर्षक से लिखे इस लेख में वे लिखते हैं-“वर्तमान युग नैतिक दुर्भिक्ष का युग है,जीवन में नैतिक और चारित्रिक मूल्य बिखरते जा रहे हैं,नष्ट होते जा रहे हैं, स्वार्थपरायणता और लोभवृत्ति ने मानव को इतना निकृष्ट बना दिया है कि नीति,सत्य,प्रामाणिकता,ईमानदारी,सदाचरण जैसे गुण छूटते जा रहे हैं।” २ अनुच्छेदों के बाद इसी लेख में वे लिखते हैं कि-“आज राष्ट्र में चारों ओर आध्यात्मिक जागृति और नैतिक उत्थान के साथ समाज निर्माण और राष्ट्र निर्माण की चर्चा हैl निर्माण भले ही किसी भी स्तर पर क्यों न हो,वह स्वागत योग्य है”,जो अनैतिकता के बीच नैतिक संस्कारों की पैरवी है। प्रकृति के माध्यम से भी इस लेख में उन्होंने बहुत कुछ कहा है।

जीवन कितना है,यह हम सब जानते हैं,पर कैसा हो यह नहीं शायद इसीलिए राजन जी लिखते हैं-`जीवन की समग्रता के बारे में सोचें` इस लेख में बहुत कुछ वह लिखा गया है,जो आज जेएनयू में घटित हो रहा है-“इतनी शिक्षा के बावजूद आज समाज में हिंसा और अशांति बढ़ती जा रही है। उग्रवाद और आतंकवाद बढ़ रहा है,इसका कारण क्यों नहीं खोजा जाता ?” उनकी चिंता सही भी है। आगे वे लिखते हैं-“अतीत में भी अच्छाइयां और बुराइयां थी,लेकिन वह अच्छाइयों पर हावी नहीं थी। बुरे लोग कृष्ण के समय में भी थे और महावीर के समय में भी थे,लेकिन इसका अनुपात में असंतुलन में नहीं था,जैसे-जैसे उपभोक्तावाद बढ़ा तो बुराई के रूप में हिंसा और अपराध भी बढ़े। भ्रष्टाचार जैसी बुराई भी इसी उपभोक्तावाद की देन हैl” जिस समय यह लेख लिखा गया था,उस समय से आज की स्थिति और बदतर है।

इस पुस्तक के अच्छे लेखों में `नारी ने विकास के नए आयाम को छुआ है` को मानता हूँ। पौराणिक नारी और वर्तमान की नारी पर अच्छी कलम राजन जी ने चलाई हैl वे लिखते हैं-“नारी के विकास के लिए चार तत्व होते हैं शिक्षा,दृढ़ इच्छाशक्ति अर्थात संभल होना,शक्ति अर्थात सबल होना,स्वावलंबी और स्वतंत्रता अर्थात छोटे-छोटे निर्णय लेने की क्षमता। इन चारों तत्वों से परिपूर्ण नारी परिवार का ही नहीं,स्वच्छ समाज का भी निर्माण कर सकेगी।”

पारिवारिक विघटन के दौर में लेख `रिश्तों को डिस्पोजल होने से बचाएं` भी प्रासंगिक बन पड़ा है। अन्य लेख जैसे `व्यर्थ को दे अर्थ`,`कोशिश करने वालों की हार नहीं होती`,`समस्या की मिट्टी में समाधान का अंकुर फूटता है`,`व्यक्ति अपने जीवन का स्वयं वास्तु शिल्पी है` प्रेरित करते हैं। अधिकांश लेख इसी शैली के हैं,जो समय की मांग के साथ अनिवार्य भी हैं। अन्य लेखों में पुस्तक पढ़ने और संरक्षण के उपर २ लेख तथा राष्ट्रीयता पर केन्द्रित ३ लेख,मातृभाषा पर १ लेख के साथ ही अन्य विषयों पर हैं,जो आदर्श समाज और हमारी नई पौध के लिए बेहद जरुरी हैं।

पुस्तक का प्रकाशन आकर्षक है,वहीं सजा-सज्जा भी सुंदर है,लेकिन एक बात की कमी इस कृति में खलती है। जो लेख राजन जी ने लगभग २ से ३ दशक पूर्व लिखे हैं,वह तब से लेकर आज तक भी प्रासंगिक हैं,इसलिए अंत में पत्रिका का नाम और प्रकाशन वर्ष भी दिया जाता,तो ज्यादा अच्छा रहता ताकि पता चल सके कि जो समस्याएं या जो स्थितियां दो-तीन दशक पूर्व समाज में थी,आज भी है और भविष्य उनके निराकरण की राह देख रहा है। साथ ही प्रूफ पर भी थोड़ा ध्यान दिया जाना जरुरी था। राजन जी बाल साहित्य के सृजन और प्रकाशन के विशेष पक्षधर हैं,ऐसे में उनकी यह कृति बच्चे से युवा होते देश के भविष्य के मार्गदर्शन का काम करेंगी। एक अच्छी पुस्तक समाज को देने के लिए राजन जी बधाई के पात्र हैं।

 

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