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श्री अटल बिहारी वाजपेयी : कवि व्यक्तित्व

योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र)
पटना (बिहार)
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श्री अटल बिहारी वाजपेई:कवि व्यक्तित्व : स्पर्धा विशेष……….

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री,अजातशत्रु,भारतरत्न श्री अटल बिहारी वाजपेयी (२५ दिसम्बर,१९२४-१६ अगस्त,२०१८) एक कुशल वक्ता,एक दूरदृष्टा, भारतीय संस्कृति को साथ लेकर चलनेवाले,अपने विचार से न डिगनेवाले,एक स्वाभिमानी व्यक्तित्व, भारत के जननायक तथा कविकुलभूषण थे। वह युगपुरुष अपने अवसान से भी नई उर्जा,नई रोशनी एक नया युग दे गया। उनकी अंतर्भावनाएँ कविता के रूप में जनमानस में आती रहीं। यही देखें कि,वे हर समय मौत से लड़ते रहे,और जब निधन हो गया तो मौत के बारे में उनका आकलन जनमानस के दिल को छू गया। कवि हृदय अटल जी की यह कविता बताती है कि,वे मौत से कभी भयभीत नहीं हुए,वरन् मौत से उनकी ठन गई-
‘ठन गई!

मौत से ठन गई!
जूझने का इरादा न था,
मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था
रास्ता रोक वह खड़ी हो गई,
यों लगा जिन्दगी से बड़ी हो गई!
मौत की उमर क्या है ? दो पल भी नहीं,
जिन्दगी सिलसिला आजकल की नहीं।
मैं जी-भर जिया,मैं मन से मरूँ!
लौटकर आऊँगा,कूच से क्यों डरूँ ?
तू दबे पाँव,चोरी छिपे न आ!
सामने वार कर फिर मुझे आजमा!
मौत से बेखबर,जिंदगी का सफर,
शाम हर सुरमई,रात वंशी का स्वर।
बात ऐसी कि कोई गम ही नहीं,
दर्द अपने-पराये,कुछ कम ही नहीं।
प्यार इतना परायों से मुझको मिला,
न अपनों से बाँकी है,कोई गिला,
हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये,
आँधियों में जलाये हैं बुझते दिये।

आज झकझोरता तेज तूफान है,
नाव भँवरों बाँहों में मेहमान है।
पार करने का कायम मगर हौंसला,
देख तेवर तूफाँ,तेवरी तन गई।
मौत से ठन गई।`

वाजपेयी जी जन्मजात कवि थे। उनके पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी,ग्वालियर रियासत में अपने समय के जाने-माने कवि थे। पुत्र में पारिवारिक काव्य के गुण वंशानुगत परिपाटी से प्राप्त हुए।
महात्मा रामचन्द्र वीर द्वारा रचित अमर-कृति ‘विजय पताका’ पढ़ कर अटल जी के जीवन की दिशा ही बदल गई। वे हिन्दी में लिखते हुए एक प्रसिद्ध कवि बन गए। उनके प्रकाशित काव्य में ‘कैदी कविराय कुण्डलियाँ’ शामिल हैं,जो १९७५- ७७ के आपातकाल के दौरान जब वे कैद किए गए थे,उस समय के लिखित कविताओं का संग्रह है। ये कविताएं आज अमर हैं। अपनी कविताओं के संबंध में उन्होंने लिखा-‘मेरी कविता युद्ध की घोषणा है,हारने के लिए एक निर्वासन नहीं है। यह हारने वाले सैनिक की निराशा की ड्रम बीट नहीं है, लेकिन युद्ध-योद्धा की जीत होगी,यह निराशा की इच्छा नहीं है,लेकिन जीत का हलचल,चिल्लाओ!’।वैसे देखें तो,अटल बिहारी वाजपेयी राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ एक कवि भी थे।

‘मेरी इक्यावन कविताएँ ` कवि व राजनेता अटल बिहारी वाजपेयी का बहुचर्चित काव्य-संग्रह है, जिसका लोकार्पण १३ अक्टूबर १९९५ को भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री पी.वी. नरसिंहराव ने सुप्रसिद्ध कवि शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ की उपस्थिति में किया था। कविताओं का चयन व सम्पादन डॉ. चन्द्रिका प्रसाद शर्मा ने किया है। पुस्तक के नाम के अनुसार इसमें अटल जी की इक्यावन कविताएँ संकलित हैं, जिनमें उनके बहुआयामी व्यक्तित्व के दर्शन होते हैं। बानगी के तौर पर यहाँ इस पुस्तक की कुछ कविताएँ-

`दूध में दरार पड़ गई।

ख़ून क्यों सफ़ेद हो गया ?
भेद में अभेद खो गया।
बँट गये शहीद,गीत कट गए;
कलेजे में कटार गड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।

खेतों में बारूदी गंध,
टूट गए नानक के छन्द
सतलुज सहम उठी,
व्यथित सी बितस्ता है;
वसंत से बहार झड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।

अपनी ही छाया से बैर,
गले लगने लगे हैं ग़ैर,
ख़ुदकुशी का रास्ता,
तुम्हें वतन का वास्ता;
बात बनाएँ,बिगड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।

झुक नहीं सकते

टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते। सत्य का संघर्ष सत्ता से,

न्याय लड़ता निरंकुशता से,
अँधेरे ने दी चुनौती है,
किरण अन्तिम अस्त होती है।

दीप निष्ठा का लिए निष्कम्प
वज्र टूटे या उठे भूकम्प,
यह बराबर का नहीं है युद्ध,
हम निहत्थे,शत्रु है सन्नद्ध,
हर तरह के शस्त्र से है सज्ज,
और पशुबल हो उठा निर्लज्ज।

किन्तु फिर भी जूझने का प्रण,
पुन: अंगद ने बढ़ाया चरण,
प्राण-पण से करेंगे प्रतिकार,
समर्पण की माँग अस्वीकार।

दाँव पर सब कुछ लगा है,रुक नहीं सकते;
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते।`

(सन् १९७५ में आपातकाल के दिनों में कारागार में लिखित रचना)

उनकी सर्वप्रथम कविता ताजमहल थी। इसमें श्रंगार-रस के प्रेम-प्रसून न चढ़ाकर एक शहँशाह ने बनवा के हँसी ताजमहल,हम गरीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मजाक! की तरह उनका भी ध्यान ताजमहल के शोषित कारीगरों के शोषण पर ही गया। वास्तव में कोई भी कवि हृदय कभी कविता से वंचित नहीं रह सकता। अटल जी ने किशोरवय में ही अद्भुत कविता लिखी थी हिदू तन-मन,हिन्दू जीवन,रग-रग हिन्दू मेरा परिचय। इससे यह पता चलता है कि, बचपन से ही वे हिन्दुत्व-विचार के पक्के थे!
राजनीति के साथ-साथ समष्टि एवं राष्ट्र के प्रति उनकी वैयक्तिक संवेदनशीलता सदैव प्रकट होती रही है। उनका संघर्षमय-जीवन,परिवर्तनशील परिस्थितियाँ,राष्ट्रवादी आन्दोलन,जेल-जीवन आदि अनेक आयामों के प्रभाव एवं अनुभूति ने उनके काव्य में सदैव ही अभिव्यक्ति पाई।
उनकी कविताएँ संगीतबद्ध भी होने योग्य थीं,जिसे विख्यात ग़ज़ल गायक (चुनिंदा कविताओं को) ने संगीतबद्ध करके एक एलबम अटल जी के जीवनकाल में ही निकाला था।

अटल जी के मन में अखण्ड भारत की जो बात थी,वह यहाँ उद्धृत है-

“१५ अगस्त १९४७ को देश तो आजाद हो गया,दिनभर हर्षोल्लास भी रहा,लेकिन कहा जाता है कि कानपुर में अटल जी निराश थेl वो अखंड भारत की आजादी चाहते थे,बंटवारे के खिलाफ थेl तब उन्होंने एक कविता लिखी-

‘स्वतंत्रता दिवस की पुकार’

अटल बिहारी वाजपेयी की यूँ तो तमाम कविताएं उनके विरोधी भी गुनगुनाते हैं,लेकिन २ कविताएं ऐसी हैं,जो केवल राष्ट्रवादी खेमे को भाती हैंl उनकी इन दोनों कविताओं को लेकर पाकिस्तानियों को काफी चिढ़ होती हैl इनमें से एक कविता है-‘तन मन हिंदू मेरा परिचय..’ जबकि,दूसरी कविता अटल जी ने उस वक्त लिखी थी,जब उन्हें कोई जानता तक नहीं थाl ये कविता उन्होंने एक बड़े ही खास दिन लिखी थी,
वो दिन था आजादी का,१५ अगस्त १९४७ का दिन- ‘स्वतंत्रता दिवस की पुकार’
पढ़ने के बाद अंदाजा हो जाएगा कि,पाकिस्तानी और टुकड़े-टुकड़े गैंग वाजपेयी जी की इस कविता से क्यों चिढ़ता है-

‘पन्द्रह अगस्त का दिन कहता,आजादी अभी अधूरी है।
सपने सच होने बाकी हैं,रावी की शपथ न पूरी है॥
जिनकी लाशों पर पग धर कर,आजादी भारत में आई।
वे अब तक हैं खानाबदोश,गम की काली बदली छाई॥
कलकत्ते के फुटपाथों पर,जो आंधी-पानी सहते हैं।
उनसे पूछो,पंद्रह अगस्त के बारे में क्या कहते हैं॥
हिन्दू के नाते उनका दु:ख सुनते,यदि तुम्हें लाज आती।
तो सीमा के उस पार चलो,सभ्यता जहां कुचली जाती॥
इंसान जहां बेचा जाता,ईमान खरीदा जाता है।
इस्लाम सिसकियाँ भरता है,डॉलर मन में मुस्काता है॥
भूखों को गोली,नंगों को हथियार पिन्हाए जाते हैं।
सूखे कण्ठों से जेहादी नारे लगवाए जाते हैं॥
लाहौर,कराची,ढाका पर मातम की है काली छाया।
पख़्तूनों पर,गिलगित पर है गमगीन गुलामी का साया॥
बस इसीलिए तो कहता हूँ आजादी अभी अधूरी है।
कैसे उल्लास मनाऊं मैं ? थोड़े दिन की मजबूरी है॥
दिन दूर नहीं खंडित भारत को पुनः अखंड बनाएंगे।
गिलगित से गारो पर्वत तक आजादी पर्व मनाएंगे॥
उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से कमर कसें बलिदान करें।
जो पाया उसमें खो न जाएं,जो खोया उसका ध्यान करें॥”

अटल जी की एक और कविता-
हिन्दू तन-मन,हिन्दू जीवन,रग-रग हिन्दू मेरा परिचय

मैं शंकर का वह क्रोधानल कर सकता जगती क्षार-क्षार।
डमरू की वह प्रलय-ध्वनि हूँ जिसमें नचता भीषण संहार।
रणचण्डी की अतृप्त प्यास,मैं दुर्गा का उन्मत्त हास।
मैं यम की प्रलयंकर पुकार,जलते मरघट का धुआंधारl `

उनकी कविता से लोग आज भी अणुप्राणित होते हैं और अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित करने में इसे दृष्टि-बिंदु के रूप में लेते हैं-

‘गीत’ नया गाता हूँ
टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर,
पत्थर की छाती
काल के कपाल पर लिखता मिटाता हूँ
गीत नया गाता हूँ।

टूटे हुए सपनों की कौन सुने किसकी,
अन्तर की चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी,
हार नहीं मानूंगा,रार नहीं ठानूंगा!
काल के कपाल पर लिखता मिटाता हूँ
गीत नया गाता हूँ।

राजनीति के साथ-साथ समष्टि एवं राष्ट्र के प्रति उनकी वैयक्तिक संवेदनशीलता सदैव प्रकट होती रही है। उनका संघर्षमय जीवन,परिवर्तनशील परिस्थितियाँ,राष्ट्रव्यापी आन्दोलन,जेल-जीवन आदि अनेक आयामों के प्रभाव एवं अनुभूति ने काव्य में सदैव ही अभिव्यक्ति पाई।

अटलजी एक महामानव थे,मानवता की बात जहाँ हो वे सदैव आगे रहते थे। अपने विचार किसी पर थोपते नहीं थे। यही कारण था कि,जब बाबरी-ढाँचा का विध्वंस हो रहा था,अटल जी अयोध्या में नहीं,दिल्ली में थे। जेल में रहे तो जमकर रचनाएँ की। जिनके इशारों पर उन्हें जेल दिया गया,उसी की समय पर दुर्गा से तुलना कर दी। दुनिया की बड़ी शक्तियां जब परमाणु प्रसार का विरोध कर रही थी,उन्होंने परमाणु-परीक्षण कर दुनिया को चौंका दिया।

प्रधानमंत्री का पद छोड़ने के बाद वे एकदम एकान्त में हो गए। उन्होंने अपने घुटनों को बदलवाया था,जो पूरा सफल नहीं रहा। स्वास्थ्य की लाचारी से वे अपने निवास में ही रहे,पर उनकी मृत्यु ने सोए हुओं को जगा दिया।
अटल जी जन्मजात कवि तो थे ही,वे सच्चे अर्थों में देशभक्त थे और सच्चे स्वतंंत्रता-प्रेमी भीl हम उन्हें श्रद्धा-सुमन अर्पण करते हैंl

परिचय-योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र) का जन्म २२ जून १९३७ को ग्राम सनौर(जिला-गोड्डा,झारखण्ड) में हुआ। आपका वर्तमान में स्थाई पता बिहार राज्य के पटना जिले स्थित केसरीनगर है। कृषि से स्नातकोत्तर उत्तीर्ण श्री मिश्र को हिन्दी,संस्कृत व अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान है। इनका कार्यक्षेत्र-बैंक(मुख्य प्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त) रहा है। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन सहित स्थानीय स्तर पर दशेक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए होकर आप सामाजिक गतिविधि में सतत सक्रिय हैं। लेखन विधा-कविता,आलेख, अनुवाद(वेद के कतिपय मंत्रों का सरल हिन्दी पद्यानुवाद)है। अभी तक-सृजन की ओर (काव्य-संग्रह),कहानी विदेह जनपद की (अनुसर्जन),शब्द,संस्कृति और सृजन (आलेख-संकलन),वेदांश हिन्दी पद्यागम (पद्यानुवाद)एवं समर्पित-ग्रंथ सृजन पथिक (अमृतोत्सव पर) पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सम्पादित में अभिनव हिन्दी गीता (कनाडावासी स्व. वेदानन्द ठाकुर अनूदित श्रीमद्भगवद्गीता के समश्लोकी हिन्दी पद्यानुवाद का उनकी मृत्यु के बाद,२००१), वेद-प्रवाह काव्य-संग्रह का नामकरण-सम्पादन-प्रकाशन (२००१)एवं डॉ. जितेन्द्र सहाय स्मृत्यंजलि आदि ८ पुस्तकों का भी सम्पादन किया है। आपने कई पत्र-पत्रिका का भी सम्पादन किया है। आपको प्राप्त सम्मान-पुरस्कार देखें तो कवि-अभिनन्दन (२००३,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन), समन्वयश्री २००७ (भोपाल)एवं मानांजलि (बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन) प्रमुख हैं। वरिष्ठ सहित्यकार योगेन्द्र प्रसाद मिश्र की विशेष उपलब्धि-सांस्कृतिक अवसरों पर आशुकवि के रूप में काव्य-रचना,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के समारोहों का मंच-संचालन करने सहित देशभर में हिन्दी गोष्ठियों में भाग लेना और दिए विषयों पर पत्र प्रस्तुत करना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-कार्य और कारण का अनुसंधान तथा विवेचन है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचन्द,जयशंकर प्रसाद,रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और मैथिलीशरण गुप्त है। आपके लिए प्रेरणापुंज-पं. जनार्दन मिश्र ‘परमेश’ तथा पं. बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ हैं। श्री मिश्र की विशेषज्ञता-सांस्कृतिक-काव्यों की समयानुसार रचना करना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“भारत जो विश्वगुरु रहा है,उसकी आज भी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हिन्दी को राजभाषा की मान्यता तो मिली,पर वह शर्तों से बंधी है कि, जब तक राज्य का विधान मंडल,विधि द्वारा, अन्यथा उपबंध न करे तब तक राज्य के भीतर उन शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए उसका इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था।”

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