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वैशाली:धार्मिक महत्व की नगरी

डॉ. स्वयंभू शलभ
रक्सौल (बिहार)

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`वैशाली` के ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व के बारे में हम बचपन से ही किताबों में पढ़ते आये,पर बिहार में रहकर भी इस स्थल पर जाने का कभी अवसर नहीं मिला। इस बार रक्सौल से पटना जाने के क्रम में मन बना लिया था कि,पहले वैशाली में रुकेंगे उसके बाद ही आगे का कार्यक्रम तय होगा।
१९ जनवरी २०२० का दिन,सुबह करीब ८ बजे अपनी गाड़ी से निकलने का कार्यक्रम तय था। साथ में विजय गुप्ता एवं कुछ अन्य मित्रगण भी थे। उस रोज सुबह से ही सड़क पर भीड़-भाड़ कम थी। कारण था दिन में ११ से १२ बजे के बीच मानव श्रृंखला का कार्यक्रम। जल,जीवन,हरियाली को लेकर पूरे बिहार में यह श्रृंखला बनायी जा रही थी,तो पहले सोमेश्वरनाथ क्षेत्र अरेराज में रुककर हम सब वहां के शिक्षकों और विद्यालयीन बच्चों के साथ इस कार्यक्रम में भी सहभागी हुए। आगे साहेबगंज में दोपहर के भोजन का कार्यक्रम था। वहां से निकलकर हम सीधे वैशाली पहुंचे,जो जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर की जन्म स्थली होने के कारण जैन धर्मावलम्बियों के लिए पवित्र स्थल है। भगवान बुद्ध का इस धरती पर तीन बार आगमन हुआ,यह उनकी कर्म भूमि भी थी। महात्मा बुद्ध के समय सोलह महाजनपदों में वैशाली का स्थान मगध के समान ही महत्त्वपूर्ण था।
भगवान महावीर के मंदिर पहुंचने के रास्ते में दोनों तरफ हरे-भरे पेड़ लगे हैं। संगमरमर से बना यह भव्य मन्दिर एक उद्यान के बीचों-बीच स्थित है। यहां अतिथियों के ठहरने के लिए भी अच्छी व्यवस्था है। सीढ़ियों से चढ़कर मंदिर में प्रवेश करने पर ध्यान मुद्रा में भगवान महावीर के दर्शन हुए। मूर्ति के नीचे उनके सूत्र वाक्य अंकित हैं। मंदिर के भूतल पर उनके बाल्यकाल की प्रतिमा स्थापित है।
दर्शन के क्रम में एक व्यक्ति से परिचय हुआ जो वहां मंदिर की देख-रेख में लगे थे। उनके साथ भगवान महावीर के जीवन से संबंधित कुछ बातों पर चर्चा करने का मौका मिला। भगवान महावीर के ‘समवशरण’ पर भी चर्चा हुई। दरअसल कुछ माह पहले भुवनेश्वर यात्रा के दौरान खण्डगिरि पर्वत पर स्थित भगवान महावीर के मंदिर के दर्शन का अवसर भी मिला था। उस पर्वत पर उनकी धर्मसभा भी हुई थी,जिसे जैन संस्कार में ‘समवशरण’ कहा जाता है।
वर्तमान में वैशाली बिहार राज्य का एक जिला है। इस स्थल के साथ इतिहास के कई स्वर्णिम पन्ने जुड़े हुए हैं। मानव सभ्यता के आरंभ में यहीं आर्यों और अनार्यों ने आपसी सहयोग का सिद्धांत स्थापित किया था। यहीं वैष्णव और शैव विचारधाराओं का मेल हुआ था। ऋग्वेद संहिता का पहला क्रम यहीं निरुपित हुआ। यहां कई महान ऋषि-मुनियों के आश्रम थे। यहीं वृहस्पति के पुत्र ऋषि भारद्वाज का जन्म हुआ था। वाल्मीकि रामायण के अनुसार जनकपुर जाते समय महर्षि विश्वामित्र और लक्ष्मण के साथ भगवान राम भी यहाँ पधारे थे।
करीब ६०० ई. पूर्व वैशाली लिच्छवी गणराज्य की राजधानी थी। नेपाल की तराई से लेकर गंगा के बीच फैली भूमि पर वज्जियों तथा लिच्‍छवियों के संघ (अष्टकुल) द्वारा गणतांत्रिक शासन व्यवस्था की शुरुआत की गयी थी। यहीं सर्वप्रथम लोकतंत्र की स्थापना हुई। यहां का शासक जनता के प्रतिनिधियों द्वारा चुना जाता था। वैशाली ने ही विश्‍व को सर्वप्रथम गणतंत्र का पाठ पढ़ाया। इसे लोकतंत्र की जननी भी कहा जाता है। इस स्थल का भगवान बुद्ध और बौद्धधर्म से भी गहरा संबंध रहा है। भगवान बुद्ध ने अपने जीवन के अनेक वर्ष यहाँ बिताए और अंत में अपने निर्वाण की घोषणा भी इसी वैशाली नगर में की। उनके जीवन से संबंधित ८ अनोखी घटनाओं में से एक बन्दर द्वारा इन्हें मधु भेंट करना यहीं घटित हुई। इसके साक्ष्य यहां मिलते हैं। साथ ही यह स्थल द्वितीय बौद्ध संगीति के आयोजन का भी साक्षी रहा है।
बौद्धकाल में यह नगरी जैन और बौद्ध धर्म का केन्द्र रही। यह भूमि महावीर की जन्मभूमि और बुद्ध की कर्मभूमि है। इसी नगरक्षेत्र के बसोकुंड गांव के पास कुंडलपुर में भगवान महावीर का जन्म हुआ था। वे वैशाली राज्य में लगभग २२ वर्ष की उम्र तक रहे। यहां अशोक स्तंभ के अलावा बौद्ध स्तूप भी हैं और यहां से करीब ४ किमी दूर कुंडलपुर में जैन मंदिर भी स्थित है।
ज्ञान प्राप्ति के पांच वर्ष पश्‍चात भगवान बुद्ध का वैशाली आगमन हुआ और उनका स्वागत वैशाली की नगरवधू प्रसिद्ध राजनर्तकी आम्रपाली ने किया था। इसी नगर में आम्रपाली सहित चौरासी हजार नागरिक बौद्ध संघ में शामिल हुए थे। बुद्ध यहां ३ बार आए और यहां काफी समय बिताया। बुद्ध ने अपने निर्वाण की घोषणा भी यहीं की थी। वैशाली के समीप कोल्‍हुआ में उन्होंने अपना अंतिम उपदेश दिया था।
बौद्ध मान्यता के अनुसार बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद कुशीनगर के मल्लों द्वारा उनके शरीर का राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया तथा अस्थि अवशेषों को आठ भागों में बांटा गया, उनमें से एक भाग वैशाली के लिच्छवियों को भी मिला था।
इस स्थल के साथ कई कहानियां भी जुड़ी हैं। मगध सम्राट बिंबसार ने आम्रपाली के रूप सौंदर्य पर मुग्ध होकर वैशाली पर आक्रमण किया था। एक राजा का एक नगरवधू के साथ प्रेम की यह कथा भी अनोखी और अदभुत है। बिंबसार ने अपने राजदरबार में राजनर्तकी के प्रथा की शुरुआत की थी। बिंबसार को आम्रपाली से एक पुत्र भी हुआ जो बाद में बौद्ध भिक्षु बना।
आचार्य चतुरसेन शास्त्री द्वारा रचित ‘वैशाली की नगरवधू’ की गणना हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में की जाती है। इसकी रचना के लिए आचार्य शास्त्री ने दस वर्षों तक आर्यों, बौद्धों और जैनों की संस्कृति व इतिहास का अध्ययन किया था। इसके कथानक में वैशाली के उस समय के सामाजिक परिदृश्य और राजव्यवस्था का सुंदर विवरण मिलता है।
वैशाली के परिदृश्य में अनगिनत कही अनकही कहानियों का भंडार है…एक लेखक के लिए तो यह भूमि सृजन के वृहद स्रोत के समान है…इस यात्रा अनुभव को केवल दो-चार पन्नों में नहीं समेटा जा सकता…।

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