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तुसी ही रब हो…

कर्नल डॉ. गिरिजेश सक्सेना ‘गिरीश’
भोपाल(मध्यप्रदेश)
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चिकित्सक के जीवन में हर दिन का अपना महत्व होता है,पर उसमें भी कुछ दिन यादगार बन जाते हैं। ऐसा ही एक दिन था शायद अप्रैल १९७ का,उन दिनों मैं अमृतसर की इन्फैन्ट्री बटालियन में रेजिमेंटल मेडिकल आफिसर पदस्थ था। हम युवा मेडिकल ऑफिसर्स की स्थानीय सेना अस्पताल में आपातकालीन (इमरजेंसी) ड्यूटी (ड्यूटी मेडिकल आफिसर)लगती थी,जिसमें अस्पताल में पदस्थ कप्तान,मेजर तथा स्थानीय रेजिमेंट्स में पदस्थ युवा चिकित्सा अधिकारी शामिल होते थे। डी.एम.ओ ड्यूटी अक्सर ८-१० दिन में आती थी।
उस दिन जब अस्पताल पहुंचा तो पता चला हिपेटिक कोमा का एक मामला था,जिसमें मरीज पिछले ४-५ दिन से जीवन संघर्ष कर रहा था। उन दिनों हिपेटिक कोमा के इलाज की आज जैसी सुविधाएं नहीं थीं,सारे यत्नों के बाद भी मृत्यु लगभग तय होती थी,बस समय सीमा भगवान भरोसे रहती थी। इस बीमारी को ले कर हर कोई प्रार्थना करता था, कि उसकी ड्यूटी पाक साफ़ निकल जाए-मैंने भी यही प्रार्थना की। रात ग्यारह बजे तक सब ठीक था,पर ग्यारह बजे के लगभग ड्यूटी नर्स का फोन आया-“सर उसकी हालत ठीक नहीं है,बीपी डाउन जा रहा है,गेस्पिंग है।”
मैं भागा-भागा वार्ड में गया। अपनी ओर से हर प्रयत्न कर रहा था,पर लगभग सुबह ४ बजे साँसें हार गई। थक कर मैंने अनमने मन से मरीज़ का मुँह चादर से ढंकने का दस्तूर पूरा किया |
अब इससे अधिक कठिन काम था मरीज़ के अभिभावक-अटेंडेन्ट को दुखद समाचार देना। पलट कर देखा तो मेरे सामने एक अत्यंत बुज़ुर्ग संभवतः ७०-७५ वर्ष का व्यक्ति खड़ा था। केसरी पगड़ी,थका शरीर और सफ़ेद मटमैले कपड़े। मुझे अपना कंटकारी कर्तव्य तो पूरा करना था। मैंने मन से भारी शब्दों में कहा-“बाबा रब दी मर्ज़ी में कक्ख वी नई कर सक्या,ओदी मर्जी अग्गे किसी दा ज़ोर नई।“ मैंने अपनी जिंदगी में ऐसा कभी नहीं देखा था। उसकी आँखों में क्या था, समझना मुश्किल था,शायद असहाय बूढ़े पिता की बेबसी ? बुढ़ापे की लाठी टूटने का दर्द ? प्रभु से टूटते विश्वास की कसक
? शायद मेरी रातभर की जद्दोजहद के प्रति कृतज्ञता सब-कुछ लिए निर्जीव-निर्विकार सी मेरे चहरे पर टिकी नज़र,आँखों से बहता हुआ सैलाब। उसने सर से अपनी पगड़ी उतारी और मेरे पैरों में रखने को झुका। बस मेरी सहनशक्ति जवाब दे गयी,मैंने उसे दोनों कन्धों से पकड़ा-“बाबा रब राज़ी नई ते में की कराँ ?”
मेरी आँखों में आँखें डालते उसने बोला -“साड्डे लई ते तुसी ही रब हो,तुसी ते पूरी कोशिश कीती जे रब्बई औखा ते बंदे दा की ज़ोर।“
मैं अपने-आपको अंदर से टूटा हुआ असहाय-सा महसूस कर रहा था। अंदर से द्रवित हो रहा था,किसी तरह बाबा के कंधे थपथपा कर वहां से निकल गया।ड्यूटी रूम में पहुँच कर अपनी बेबसी पर रो ही दिया।
आज उस घटना को शायद ४० वर्ष पूरे हो गए,पर आज भी जब ख्याल आता है…वो बूढ़े बाप की बेताब आँखें मुझे द्रवित कर देती है,बरबस दो आँसू आ ही जाते हैं। चिकित्सक एक पानीदार नारियल जैसी वस्तु-ऊपर से मान,अहं,अपमान,अभिमान,उद्द्वेग,भावावेश
सबके आगे सख्त,पर अंदर से द्रवित…।

परिचय-कर्नल डॉ. गिरिजेश सक्सेना का साहित्यिक उपनाम ‘गिरीश’ है। २३ मार्च १९४५ को आपका जन्म जन्म भोपाल (मप्र) में हुआ,तथा वर्तमान में स्थाई रुप से यहीं बसे हुए हैं। हिन्दी सहित अंग्रेजी (वाचाल:पंजाबी उर्दू)भाषा का ज्ञान रखने वाले डॉ. सक्सेना ने बी.एस-सी.,एम.बी.बी.एस.,एम.एच.ए.,एम. बी.ए.,पी.जी.डी.एम.एल.एस. की शिक्षा हासिल की है। आपका कार्यक्षेत्र-चिकित्सक, अस्पताल प्रबंध,विधि चिकित्सा सलाहकार एवं पूर्व सैनिक(सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी) का है। सामाजिक गतिविधि में आप साहित्य -समाजसेवा में सक्रिय हैं। लेखन विधा-लेख, कविता,कहानी,लघुकथा आदि हैं।प्रकाशन में ‘कामयाब’,’सफरनामा’, ‘प्रतीक्षालय'(काव्य) तथा चाणक्य के दांत(लघुकथा संग्रह)आपके नाम हैं। आपकी रचनाएं पत्र-पत्रिका में प्रकाशित हैं। आपने त्रिमासिक द्विभाषी पत्रिका का बारह वर्ष सस्वामित्व-सम्पादन एवं प्रकाशन किया है। आपको लघुकथा भूषण,लघुकथाश्री(देहली),क्षितिज सम्मान (इंदौर)लघुकथा गौरव (होशंगाबाद)सम्मान प्राप्त हुआ है। ब्लॉग पर भी सक्रिय ‘गिरीश’ की विशेष उपलब्धि ३५ वर्ष की सगर्व सैन्य सेवा(रुग्ण सेवा का पुण्य समर्पण) है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-साहित्य-समाजसेवा तो सब ही करते हैं,मेरा उद्देश्य है मन की उत्तंग तरंगों पर दुनिया को लोगों के मन तक पहुंचाना तथा मन से मन का तारतम्य बैठाना है। आपके पसंदीदा हिन्दी लेखक-प्रेमचंद, आचार्य चतुर सेन हैं तो प्रेरणापुंज-मन की उदात्त उमंग है। विशेषज्ञता-सविनय है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“देश धरती का टुकड़ा नहीं,बंटे हुए लोगों की भीड़ नहीं,अपितु समग्र समर्पित जनमानस समूह का पर्याय है। क्लिष्ट संस्कृतनिष्ठ भाषा को हिन्दी नहीं कहा जा सकता। हिन्दी जनसामान्य के पढ़ने,समझने तथा बोलने की भाषा है,जिसमें ठूंस कर नहीं अपितु भाषा विन्यासानुचित एवं समावेशित उर्दू अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग वर्जित न हो।”

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