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अध्यापक,शिक्षक और गुरु

निर्मल कुमार शर्मा  ‘निर्मल’
जयपुर (राजस्थान)
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प्रायः अध्यापकों को यह शिकायत करते हुए सुनता हूँ कि छात्रों का उनके प्रति प्राचीन काल की भाँति सम्मान का भाव नहीं रहा। छात्र अब अनुशासित नहीं रहते,उनसे बहस करते हैं,उनके आदेशों की अनुपालना नहीं करते इत्यादि!!
हाँ,यह सत्य है कि अध्यापक-छात्र के मध्य संबंधों में यह परिवर्तन अवश्य आया है,किन्तु इसका कारण जानने का संभवतः किसी ने प्रयास नहीं किया और यदि कारण जान लिया है तो निदान नहीं किया है। वस्तुतः संबंधों में इस परिवर्तन का कारण,मेरी दृष्टि में, अध्यापकों का अध्यापक होना है। यदि वे स्वयं को शिक्षक अथवा गुरु में परिवर्तित कर लें,तो अवश्य ही वे जिस सम्मान की अपेक्षा रखते हैं,उन्हें प्राप्त होगा।
अध्यापक,शिक्षक और गुरु में क्या अंतर है ? क्या यह शब्दों में अलंकरण का समावेश मात्र है ? अधिकाँश अध्यापकों का भी यही मानना है कि शिक्षक और गुरु,अध्यापक के ही पर्याय हैं,किन्तु सत्य यह है कि अध्यापक वर्तमान काल का वह व्यक्ति है जो अपनी आजीविका हेतु अध्यापन की बाध्यता का निर्वाह करता है। इस बाध्यकारी कार्य में कर्त्तव्यबोध न्यून दृष्टिगोचर होता है। श्याम पट्ट पर कुछ शब्द लिख देना,पाठ्यपुस्तकों में पहले से हल उदाहरणों की पुनरावृत्ति कर देना,अथवा पुस्तक से अध्याय का पाठन कर देना ही वर्तमान में अधिकाँश अध्यापकों का कार्य रह गया है। राजकीय विद्यालयों में तो इतना कष्ट भी अध्यापकों द्वारा नहीं किया जा रहा। ऐसे अध्यापकों का अपने छात्रों के साथ कभी भी भावनात्मक सम्बन्ध स्थापित हो ही नहीं सकता,अतः वे कैसे सम्मान,अनुशासन, आज्ञा पालन इत्यादि की अपेक्षा रख सकते हैं,जिनका मूल आधार ही भावनाएँ,संवेदनाएँ हैं।
वर्तमान समय के अधिकांश अध्यापकों की तुलना एक ऐसे चरवाहे से की जा सकती है,जो मवेशियों को चारागाह तक तो ले जाता है किन्तु यह सुनिश्चित नहीं करता कि मवेशियों ने भली प्रकार चारा भक्षण करने के पश्चात् जल ग्रहण करके स्वयं को तृप्त कर लिया है,या नहीं। यदि चरवाहा सुनिश्चित कर ले कि सभी मवेशियों ने अपेक्षित तृप्ति पा ली है,तो वह चरवाहे से उनका पालक बन जाता है और ऐसा पालक कि उसे देखते ही मवेशी दौड़ कर उसके पास पहुँच कर अपने नेत्रों से उसके प्रति अपने स्नेह व सम्मान को अभिव्यक्त कर देते हैं।
यदि यही भावना अध्यापकों में जाग्रत हो जाए,तो वे अध्यापक से शिक्षक बन जायेंगे जो यह सुनिश्चित करेंगे कि उनके समस्त विद्यार्थी अपेक्षित ज्ञान ग्रहण करे। यहाँ मैं समस्त पर इसलिये जोर दे रहा हूँ कि शाला में आने वाले समस्त छात्र एक समान पृष्ठभूमि से नहीं आते,उनका सामाजिक,आर्थिक एवं बौद्धिक स्तर भिन्न होता है और ऐसे में सभी छात्रों को निःस्वार्थ भाव से,बिना अर्थ की अपेक्षा रखे,अपेक्षित ज्ञान प्रदान कर उन्हें सही मायने में विद्यार्थी बनाना एक आदर्श शिक्षक का दायित्व है। ऐसे कर्त्तव्यनिष्ठ शिक्षकों के प्रति विद्यार्थी का मस्तक स्वतः ही झुक जाता है।
मेरी दृष्टि में शिक्षक से भी उच्चतर एवं श्रेष्ठतर,बल्कि कहूँगा कि श्रेष्ठतम स्थिति शिक्षक का गुरु हो जाना है। गुरु बनना वो स्थिति है,जिसमें शिक्षक अपने उल्लेखित दायित्वों की पूर्ति के साथ-साथ अपने कर्म व आचरण से विद्यार्थी का सर्वांगीण विकास कर उसे विद्यार्थी से शिष्य में परिवर्तित कर दे। विद्यार्थी जिस दिन शिष्य के रूप में परिवर्तित हो जाता है,उस दिन वह अपना सर्वस्व गुरु के चरणों में समर्पित कर देता है। यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि,भगवा धारण कर मात्र प्रवचन देना गुरु की परिभाषा नहीं है। गुरु तो वो विलक्षण पुण्यात्मा है,जो आपको जीवन के हर क्षेत्र में मार्गदर्शन ही प्रदान नहीं करते,वरन आपको किसी भी प्रकार की स्थिति से निपटने के लिए सक्षम बनाते हैं।
आइये,परम पिता से प्रार्थना करें कि देव-भूमि भारतवर्ष में पुनः शिक्षा के मन्दिरों में सभी बच्चों को गुरुजनों का सानिध्य प्राप्त हो, और वे पाठशालाओं से एक सुसंस्कृत शिष्य के रूप में बाहर निकलें एवं राष्ट्र के गौरव को पुनर्जीवित करें।
(विशेष-स्पष्ट कर दूँ कि अपवाद स्वरूप कुछ अध्यापक,जिनकी संख्या नगण्य है,अभी भी अपने कर्त्तव्य का निर्वहन पूर्ण निष्ठा के साथ कर रहे हैं,और उन्हें अपने विद्यार्थियों से कोई शिकायत भी नहीं है। ऐसे कर्त्तव्यनिष्ठ गुरुजनों के प्रति पूर्ण सम्मान का भाव रखते हुए अपनी बात बिना पूर्वाग्रह के प्रस्तुत की है।)

परिचय-निर्मल कुमार शर्मा का वर्तमान निवास जयपुर (राजस्थान)और स्थाई बीकानेर (राजस्थान) में है। साहित्यिक उपनाम से चर्चित ‘निर्मल’ का जन्म १२ सितम्बर १९६४ एवं जन्म स्थान बीकानेर(राजस्थान) है। आपने स्नातक तक की शिक्षा (सिविल अभियांत्रिकी) प्राप्त की है। कार्य क्षेत्र-उत्तर पश्चिम रेलवे(उप मुख्य अभियंता) है।सामाजिक गतिविधि के अंतर्गत आपकी साहित्यिक व सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भागीदारी है। हिंदी, अंग्रेजी,राजस्थानी और उर्दू (लिपि नहीं)भाषा ज्ञान रखने वाले निर्मल शर्मा के नाम प्रकाशन में जान्ह्वी(हिंदी काव्य संग्रह) और निरमल वाणी (राजस्थानी काव्य संग्रह)है। प्राप्त सम्मान में रेल मंत्रालय द्वारा मैथिली शरण गुप्त पुरस्कार प्रमुख है। आप ब्लॉग पर भी लिखते हैं। विशेष उपलब्धि में  स्काउटिंग में राष्ट्रपति से पुरस्कार प्राप्त ‘विजय रत्न’ पुरस्कार,रेलवे का सर्वोच्च राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त, दूरदर्शन पर सीधे प्रसारण में सृजन के संबंध में साक्षात्कार,स्व रचित-संगीतबद्ध व स्वयं के गाये भजनों का संस्कार व सत्संग चैनल से प्रसारण है। स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन होता रहता है। लेखनी का उद्देश्य- साहित्य व समाज सेवा है। आपके लिए प्रेरणा पुंज-प्रकृति व समाज है। विशेषज्ञता में स्वयं को विद्यार्थी मानने वाले श्री शर्मा की रूचि-लेखन,गायन तथा समाज सेवा में है।

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