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गुणवत्ता शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी ही क्यों ?

हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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भारत में ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति-२०२० लागू हो चुकी है, जिसके तहत हर राज्य में इस नीति में संघीय शासकीय ढांचे के अंतर्गत आंशिक बदलाव सम्बन्धित राज्य की शिक्षा व्यवस्था के अनुसार किए जा रहे हैं। कहीं-कहीं ये बदलाव जरूरी भी हो सकते हैं, पर कहीं-कहीं इन बदलावों में अंग्रेजी की गुलामी की मानसिकता साफ नजर आ रही है। नीति में प्राथमिक स्तर पर शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी को न बनाने तथा भारत की सम्बन्धित राज्य की मानक भाषा को बनाने या ये कहें कि, उस राज्य विशेष की मातृभाषा को बनाने की बात की गई है। अंग्रेजी को मात्र एक विषय के रूप में पढ़ाने की बात की गई है। खैर, त्रिभाषाई सूत्र तो एनसीएफ २००५ के अंतर्गत भी निर्धारित किया गया था, पर असल में हुआ क्या ? यह सभी जानते हैं।
सरकार कोई भी हो, पर यह एक कड़वी सच्चाई है कि, सभी शिक्षा को निजी हाथों में सौंपना चाहते हैं। हैरत तो यह होती है कि, हिंदोस्तान में आज आजादी के ७५ साल बाद भी अंग्रेजी को ‘गुणवत्ता शिक्षा’ का आधार समझा जा रहा है। अरे भाई, अंग्रेज भारत से चले गए हैं और भारत आजाद हो चुका है। ऐसे में भला अंग्रेजी को महत्व देने की क्या जरूरत ? हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री ठाकुर सुखविंदर सिंह सुक्खू के बयान को यदि आधार मानें तो हिमाचल में अगले वर्ष से सरकारी विद्यालयों में भी प्राथमिक स्तर से ही अंग्रेजी माध्यम शुरू किया जाएगा। फिर समझो, शिक्षा का बेड़ा गर्क होगा कि नहीं ? खैर, मुख्यमंत्री की बात तो मुख्यमंत्री की ही होती है। कह दी, तो सो होगी भी। भला, विरोध करने से क्या होगा ? पर हाँ, इतना हमें जरूर सोचना होगा कि, आज भी सरकारी व गैर सरकारी सेवाएं पाने के लिए हमें अंग्रेजी में पढ़ा-लिखा होना भला क्यों जरूरी है ? क्या अब आजाद भारत में भारत की कोई प्रतिष्ठित भाषा अंग्रेजी का विकल्प नहीं हो सकती ? आज हिन्दी ने भी अपनी अच्छी-खासी पहचान राष्ट्रीय ही नहीं, अंतराष्ट्रीय स्तर पर बना ली है। क्या हिन्दी भारत में अंग्रेजी की जगह नहीं ले सकती ? परिवर्तन का नारा हिमाचल के मुख्यमंत्री ने बुलन्द किया है, यह बहुत अच्छी बात है। व्यवस्था में बदलाव होने चाहिए, पर होने अपनी संस्कृति, सभ्यता और भाषा के आधार पर चाहिए, ना कि सदियों से जिस भाषा के जानने वालों की गुलामी हम करते रहे, उनकी भाषा को माध्यम बनाकर होने चाहिए।
अंग्रेजी हम लोगों के लिए विदेशी भाषा है, जिसके प्राथमिक प्रारूप को समझने के लिए ही हमें लगभग १०-१५ साल लग जाते हैं।फिर कहीं हम पढ़े जाने वाले मूल विषयों की मूल अवधारणाओं को मात्र जानकारी यानी सूचना प्राप्ति के नजरिए से ही अंग्रेजी में लिख पढ़ पाते हैं। समझ तो तब भी ठीक-ठीक आती ही नहीं है। जितनी हमें विषयों को अंग्रेजी में बोध के साथ व्यक्त करने की क्षमता पैदा होती है, उतने में अनुवांशिक अंग्रेजी के अध्येता परिवारों के बच्चे बड़े-बड़े ओहदों पर अच्छे शालाओं से शिक्षा ग्रहण करने के तर्क से आसीन हो जाते हैं। सामान्य जनता, गरीब सर्वहारा वर्ग बेचारा सदा से यही मानता आया है कि, हमारे साधन सीमित हैं और हम उच्च शिक्षा अपने बच्चों को अच्छी बड़ी संस्थाओं में नहीं दे पाए। इसी लिए, हमारे बेचारे बच्चे उच्च पदों की भर्तियों की प्रतियोगिता में पिछड़ गए। अब इसमें क्या करें ? यह घटना भारत में कोई नई नहीं है, पहले भी घट चुकी है।पहले जातियों और लिंग के आधार पर घटती आई। जब संस्कृत शिक्षा का माध्यम थी, जिसे आम जनमानस को पढ़ना मुश्किल होता था तथा स्त्रियों को इस शिक्षा व्यवस्था में शिक्षा ग्रहण करने की अनुमति ही नहीं थी शायद।आज वर्तमान में तथा भविष्य में अंग्रेजी के कारण यही स्थिति भारत में फिर से होगी।उदाहरण के लिए एक अंग्रेजी का अध्यापक भी भारत में अपनी सामान्य जिन्दगी में ही नहीं, बल्कि कक्षा कक्ष में भी हिन्दी का ही प्रयोग करता है।अनुवाद विधि से ही भारत के अधिकतर क्षेत्रों में अंग्रेजी को पढ़ाया और समझाया जाता है। इतना ही नहीं, नेताओं की भाषण देने और मत मांगने की भाषा अधिकतर राज्यों में हिन्दी या भारत की कोई जन भाषा ही होती है, पर जब सत्ता में आ जाए तो वही नेता हिन्दी मिश्रित अंग्रेजी झाड़ने लग जाते हैं और अंग्रेजी की पैरवी करने लग जाते हैं। आखिर ऐसा क्यों ? सत्य तो यही है कि, भारत में शिक्षा का माध्यम हमेशा जटिल भाषा को ही रखा गया। इसी कारण भारत का एक बहुत बड़ा जन समुदाय शिक्षा जैसे महालाभ से आज तक अछूता रहा। समझने की बड़ी बात यह है कि, शिक्षा का अर्थ क्या है ? हम जानते हैं कि, शिक्षा और साक्षरता २ अलग-अलग पहलू हैं। शिक्षित एक अनपढ़ व्यक्ति भी हो सकता है, भले वह साक्षर न हो। जैसे सन्त श्रेष्ठ कबीर जी इसके एक संजीदा उदाहरण हैं, परन्तु जरूरी नहीं है कि, हर साक्षर शिक्षित हो। जिस साक्षर में सभ्यता, शालीनता, संस्कार और संस्कृति जैसे मूलभूत मानवीय मूल्य गुण होते हैं, वही असल में शिक्षित होते हैं। बाकी तो मात्र साक्षर ही होकर रह जाते हैं। वर्तमान शिक्षा व्यवस्था ही कुछ ऐसी बनाई जा रही है कि, हर पढ़ा-लिखा व्यक्ति अधिकतर साक्षर ही हो पाएगा, शिक्षित नहीं। अब आप बोलेंगे कि क्यों ? जरा सोचिए कि, आज शिक्षा में क्या परोसा जा रहा है ? या तो रट्टा हावी होता जा रहा है या फिर सट्टा छात्रों का बेड़ा पार करता है। ये २ विधाएं इतनी प्रभावी होती जा रही है कि, इनके कारण कई बार एक ठीक छात्र को पिछड़ना पड़ता है। जिन्हें लायक समझा जाता है, वे अधिकतर रट्टा मारते हैं और जहां विकल्प चुनने वाले प्रश्न होते हैं; वहां सट्टा (तुक्का या जोखिम) लगाते हैं। विडम्बना देखिए कि, आज अध्यापक भी रट्टा मारने वालों को अधिक अंक देते हैं। उसमें भी गाइडों के आधार पर तय रटे हुए (रट्टा) को अधिक महत्व मिलता है। जो छात्र अपने शब्दों में उत्तर देते हैं, उन्हे काम अंक मिलते हैं। फिर सोचिए कि, जो छात्र इस प्रणाली में प्रमाण-पत्र ग्रहण करेगा, वह साक्षर होगा या शिक्षित ?

होना तो यह चाहिए कि, एक देश, एक बोर्ड और एक शिक्षा व्यवस्था, तभी न्याय होगा। अन्यथा हिन्दी भाषी या अन्य भारतीय भाषाओं के जानने वाले सर्वहारा लोगों और उनके बच्चों के साथ शिक्षा के नाम पर हमेशा एक धोखा ही होता रहेगा। भला क्या जरूरत है अंग्रेजों की भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने की ? सभी जानते हैं कि, चायनीज भाषा दुनिया की सबसे कठिन भाषा है पर उन्होंने उसे ही अपनी राष्ट्र भाषा और प्रारम्भिक भाषा रखा है। क्या फिर वे दुनिया में पिछड़ गए ? यदि वक्त रहते भारत की जनता इस अंग्रेजी की मोह निद्रा से नहीं जागेगी तो वह दिन दूर नहीं, जिस दिन भारत अंग्रेजी का गुलाम हो जाएगा। इसलिए, भारत के हर नागरिक को आज जाति -धर्म और दल पंक्ति से हट कर भारत में हिन्दी को ही शालेय शिक्षा का माध्यम बनाने की मांग हर राज्य में करनी चाहिए। ऐसा नहीं है कि, यह स्थान भारत में सिर्फ हिन्दी को ही मिले। यह भारत की अन्य प्रतिष्ठित भाषाओं को भी प्राप्त होना चाहिए, परन्तु हिंदी आज भारत की सबसे प्रतिष्ठित और जनभाषा बन गई है, इसलिए इसे शिक्षा का माध्यम बनाने की नितान्त आवश्यकता है। दावे से कहता हूँ कि यदि उच्च शिक्षा का माध्यम भी विज्ञान, गणित या चिकित्सा, अभियांत्रिकी और वकालत जैसी पढ़ाई के लिए हिन्दी या सम्बन्धित राज्य की मातृभाषा को बनाया जाएगा, तो एक गरीब और सर्वहारा परिवार का बेटा-बेटी इन विषयों में महारत हासिल करेगा और उच्च पदों पर अधिकतर सर्वहारा वर्ग के लोग ही पहुंचेंगे। व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर कुछ बदलना ही हो, तो फिर भारत की शिक्षा व्यवस्था का पाठ्यक्रम और पाठ्यचर्या बदलनी चाहिए। यह आज बहुत जरूरी हो गया है, क्योंकि भारत की पाठ्यचर्या और पाठ्यक्रम बिलकुल भी मूल्य शिक्षा आधारित और गुणात्मक शिक्षा की परिपाटी के आधार पर निर्धारित नहीं है। इसमें ९० फीसदी सूचनाओं को ही महत्व दिया गया है और हम सभी जानते हैं कि, सूचनाएं शिक्षा का आधार नहीं, बल्कि बौद्धिक ज्ञान की वृद्धि में सहायक बन सकती है। शिक्षा के लिए तो बोध स्तर पर विद्यार्थी को लाना होता है तथा उसके हृदय को परिवर्तित करना होना है। यह अकाट्य सत्य है कि, अंग्रेजी को प्राथमिक स्तर से ही शिक्षा का माध्यम बनाने से गुणवत्ता की उम्मीद रखना ठीक वैसा ही है, जैसे पतझड़ में वसंत ऋतु के अनुभव की चाह करना।