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घरेलू हिंसा के शिकार होते पुरुष ?

ललित गर्ग
दिल्ली
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‘अन्तर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस (१९ नवम्बर)’ विशेष…

‘अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस’ माता-पिता के अलगाव, पत्नी की उपेक्षा, दुर्व्यवहार, बेघर होना, रोजगार, आत्महत्या और हिंसा सहित पुरुषों द्वारा सामना किए जाने वाले कई मुद्दों के लिए एक वैश्विक जागरूकता दिवस है, जो हर साल १९ नवम्बर को मनाया जाता है। इसका उद्देश्य लड़कों और पुरुषों के जीवन, उनकी उपलब्धियों और परिवार एवं समाज निर्माण में विशेष रूप से राष्ट्र, संघ, समाज, समुदाय, परिवार, विवाह और बच्चों की देखभाल में उनके योगदान के लिए जश्न मनाने का अनूठा अवसर है। यह महज उत्सव भर नहीं है, बल्कि ऐसा आयोजन है, जो सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मोर्चों पर पुरुषों की उपलब्धियों को बढ़ावा देने के साथ उनके संघर्षों को आम समाज तक पहुंचाना आवश्यक है। महिला दिवस की तर्ज पर ही पूरे विश्व में ‘अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस’ भी मनाया जाने लगा है। इस दिवस की शुरुआत १९९९ में त्रिनिदाद एवं टोबागो से हुई थी। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी इसे मान्यता देते हुए इसकी आवश्यकता पर बल दिया और सहायता दी है। एक जानकारी के अनुसार पहली बार ७ फरवरी १९९२ को थॉमस ओस्टर द्वारा पुरुष दिवस मनाने की बात भी कही जाती है, लेकिन यह केवल माल्टा में मनाया गया था।
दुुनिया में अब पुरुष दिवस प्रभावी रूप में बनाए जाने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है। अब पुरुष भी अपने शोषण एवं उत्पीड़ित होने की बात उठा रहे हैं। महिलाओं की तुलना में पुरुषों पर अधिक उपेक्षा, उत्पीड़न एवं अन्याय की घटनाएं पनपने की भी बात की जा रही है। आज तेजी से बदलती दुनिया में एक तरफ जहां महिलाएं सशक्त हो रही हैं, वहीं पुरुषों की भी छवि समाज में बदलती जा रही है। कुछ वर्ष पूर्व की बात करें तो पुरुषों को लेकर समाज में ढेरों रूढ़िवादी विचार थे, महिलाओं केे शोषण एवं उसे दोयम दर्जा दिए जाने का आरोप उस पर लगता रहा है, जिनमें अब तेजी से परिवर्तन हो रहे हैं। चीन को छोड़कर हर देश में पुरुषों में आत्महत्या की दर महिलाओं की तुलना में अधिक है।
पुरुष एक ऐसा शब्द, जिसके बिना किसी के जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। नारी जहाँ जीवन को परिपूर्णता देती है, वहीं पुरुष ही इसका आधार है। अब तक पुरुष की तमाम विशेषताओं को नजरअंदाज करते हुए उसे शोषक, नारी उत्पीड़क, क्रूर एवं अत्याचारी ही घोषित किया जाता रहा है, लेकिन ऐसा नहीं है। नारी जन्मदात्री है तो पुरुष जीवन-निर्माता है। बचपन में जब कोई बच्चा चलना सीखता है तो सबसे पहले अपने पिता रूपी पुरुष की अंगुली थामता है। नन्हा-सा बच्चा उसकी बाँहों में रहकर बहुत सुकून पाता है। बोलने के साथ ही बच्चे जिद करना शुरू कर देते हैं और पिता जिदों को पूरा करते हैं। बचपन में चॉकलेट, खिलौने से लेकर युवा वर्ग तक बाइक, कार, लैपटॉप और उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजने तक संतान की सभी माँगों को वो पूरा करते रहते हैं। यानी पुरुष की भूमिका किसी भी रूप में महिला से कम नहीं है।
समाज रूपी गाड़ी को सही से चलाने के लिए यह बेहद जरूरी है कि, महिलाएं उसका विरोधी होने के बजाए सहयोगी बनें। उन्हें किसी भी भेदभाव का सामना न करना पड़े। मानवीय रिश्तों में दुनिया में सबसे बड़ा स्थान माँ के रूप में नारी को दिया जाता है, लेकिन एक बच्चे को बड़ा और सभ्य बनाने में उसके पिता के रूप में पुरुष का योगदान कम करके नहीं आंका जा सकता। बच्चे को जब कोई खरोंच लग जाती है तो जितना दर्द माँ महसूस करती है, वही पिता भी करते हैं। पिता बेटे की चोट देख कर कठोर इसलिए बना रहता है, ताकि वह जीवन की समस्याओं से लड़ने का पाठ सीखे। महिला ममता का सागर है, पर पुरुष उसका किनारा है, पुरुष घर का सहारा है। महिला से स्वर्ग है महिला से बैकुंठ, महिला से ही चारों धाम है, पर इन सबका द्वार तो पुरुष ही है।
कुछ वर्ष पूर्व भारत में सक्रिय अखिल भारतीय पुरुष एसोसिएशन ने भारत सरकार से एक खास मांग की कि, महिला विकास मंत्रालय की भांति पुरुष विकास मंत्रालय का भी गठन किया जाए। इसी तरह उप्र में भारतीय जनता पार्टी के कुछ सांसदों ने यह मांग उठाई थी कि, राष्ट्रीय पुरुष आयोग जैसी भी एक संवैधानिक संस्था बननी चाहिए। इन सांसदों ने इस बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र भी लिखा था। पत्र लिखने वाले सांसद हरिनारायण राजभर ने उस वक्त यह दावा किया था कि, पत्नी प्रताड़ित कई पुरुष जेलों में बंद हैं, लेकिन कानून के एकतरफा रुख और समाज में हँसी के डर से वे घरेलू अत्याचारों के खिलाफ आवाज नहीं उठा रहे हैं। प्रश्न है कि, आखिर पुरुष इस तरह की अपेक्षाएं क्यों महसूस कर रहे हैं ? लगता है पुरुष अब अपने ऊपर आघातों एवं उपेक्षाओं से निजात चाहता है। तरह-तरह के कानूनों ने उसके अस्तित्व एवं अस्मिता को धुंधलाया है, जबकि आज बदलते वक्त के साथ पुरुष अधिक जिम्मेदार और संवेदनशील हो चुका है। कई युवा पुरुष समाज-निर्माण की बड़ी जिम्मेदारियों को उठा रहे हैं और अपनी काबिलियत व जुनून से यह साबित भी कर रहे हैं। आज का पुरुष सिर्फ खुद को नहीं, बल्कि साथ कदम मिलाकर आगे बढ़ता है। वह यह सुनिश्चित कर रहा है कि उन्हें भी आगे बढ़ने के समान अवसर मिलें व उन्हें किसी भी भेदभाव का सामना न करना पड़े। यह परिवर्तन आज सभी क्षेत्रों में स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है। सिर्फ यही नहीं, पुरुषों को अब महिलाओं के नेतृत्व में कार्य करने में भी झिझक नहीं महसूस होती।

महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा को रोकने के लिए कठोर कानून भी बने हैं, लेकिन पुरुष भी घरेलू हिंसा का शिकार होते हैं। भारत में अभी तक ऐसा कोई सरकारी अध्ययन या सर्वेक्षण नहीं हुआ है, जिससे पता लग सके कि घरेलू हिंसा में शिकार पुरुषों की तादाद कितनी है ? ‘सेव इंडियन फैमिली फाउंडेशन‘ और ‘माई नेशन‘ नाम की गैर सरकारी संस्थाओं के एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि, भारत में ९० फीसद से ज्यादा पति ३ साल के रिश्ते में कम से कम १ बार घरेलू हिंसा का सामना कर चुके होते हैं। यह एक सच्चाई है कि, पुरुष भी हिंसा, उत्पीड़न एवं उपेक्षा के शिकार हैं। वे भी अपने अस्तित्व की सुरक्षा एवं सम्मान के लिए आवाज उठाना चाहते हैं। बड़ा सच है कि, जीवन में जब भी निर्माण की आवाज उठेगी, पौरुष की मशाल जगेगी, सत्य की आँख खुलेगी तब हम, हमारा वो सब कुछ जिससे हम जुड़े होंगे, वो सब पुरुष का कीमती तौहफा होगा। इस अहसास को जीवंत करके ही हमें पुरुष-दिवस को मनाने की सार्थकता पा सकेंगे।