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चमत्कार है तो नमस्कार है…

तारकेश कुमार ओझा
खड़गपुर(प. बंगाल )

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डयूटी के दौरान लोगों के प्रिय-अप्रिय सवालों से सामना तो अमूमन रोज ही होता है,लेकिन उस रोज आंदोलन पर बैठे हताश-निराश लोगों ने कुछ ऐसे अप्रिय सवाल उठाए,जिसे सुन कर मैं बिल्कुल निरूत्तर-सा हो गया, जबकि आंदोलन व सवाल करने वाले न तो पेशेवर राजनेता थे,न उनका इस क्षेत्र
का कोई अनुभव था। तकरीबन दो सौ की संख्या वाले वे बेचारे तो खुद वक्त के
मारे थे। एक सरकारी संस्थान में वे निजी कर्मचारी के तौर पर कार्य करते हैं,जिसे सरकारी भाषा में संविदा,कैजुयल या अनुबंधित कर्मचारी भी कहा जाता है। आंदोलन उनका शौक नहीं,बल्कि ऐसा वे इसलिए कर रहे थे,क्योंकि उन्हें पिछले नौ महीने से तनख्वाह नहीं मिली थी। मेरे
धरनास्थल पर पहुंचते ही उन्होंने जानना चाहा कि मैं किस चैनल से हूँ। मेरे यह बताने पर कि मैं किसी चैनल से नहीं,बल्कि प्रिंट मीडिया से हूँ,उनके मन का गुबार फूट पड़ा। नाराजगी जाहिर करते हुए वे कहने लगे कि,
चैनलों पर हम रोज देखते हैं कि पड़ोसी मुल्क अपने मुलाजिमों को तनख्वाह
नहीं दे पा रहा। हम इसी देश के वासी हैं और हमें भी पिछले नौ महीने से वेतन नहीं मिला है…लेकिन हमारा दुख-दर्द कोई चैनल क्यों नहीं दिखाता। उनके सवालों से मैं निरुत्तर था। वाकई देश में किसी बात की जरूरत से
ज्यादा चर्चा होती है तो कुछ बातों को महत्वपूर्ण होते हुए भी नजरअंदाज कर दिया जाता है। पता नहीं,आखिर यह कौन तय कर रहा है कि किसे सुर्खियों में लाना है और किसे हाशिये पर रखना है। सोचने-समझने की शक्ति कुंद की जा रही है और चमत्कार को नमस्कार करने की मानवीय कमजोरी को असाध्य रोग में तब्दील किया जा रहा है। यही बीमारी जेएनयू में विवादित नारे लगाने
वाले कन्हैया कुमार को राष्ट्रनायक की तरह पेश करने पर मजबूर करती है।
२०११ में अन्ना हजारे का लोकपाल आंदोलन सफल रहने पर हम उन्हें गांधी से बड़ा नेता साबित करने लगते हैं,लेकिन कालांतर में यह सोचने की जहमत भी नहीं उठाते कि वही अन्ना आज कहां और किस हाल में हैं और उनके बाद के आंदोलन विफल क्यों हुए। नामी अभिनेता या अभिनेत्री का एक देशभक्ति पूर्ण ट्वीट उसे महान बना सकता है,लेकिन अपने दायरे में ही पूरी ईमानदारी से
कर्तव्यों का पालन करते हुए जान की बाजी लगाने वालों के बलिदान कहां चर्चा में आ पाते हैं। अक्सर सुनते हैं मेहनतकश मजदूर, रेलवे ट्रैक की निगरानी करने वाले गैंगमैन या निजी सुरक्षाकर्मी डयूटी के दौरान जान गंवा बैठते हैं। वे भी देश का ही कार्य करते हुए ही मौत के मुँह में चले जाते हैं,लेकिन उनकी ओर किसी का ध्यान नहीं जाता या ध्यान देने की जरूरत भी नहीं समझी जाती।
लोकल ट्रेनों से निकल कर मायानगरी मुंबई के शानदार स्टूडियो में गाने वाली रानू मंडल के जीवन में आए आश्चर्यजनक बदलाव से हमारी आँखें चौंधिया जाती है,लेकिन हम भूल जाते हैं कि ९० के दशक के सवार्धिक सफल पार्श्व गायक मोहम्मद अजीज करीब दो दशकों तक गुमनामी के अंधेरे में खोए रहे। उनकी चर्चा तभी हुई,जब उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया। किसी कथित प्रतिभा प्रदर्शन में गाकर प्रसिद्ध हुए गायक हमें अपनी और आकर्षित करते हैं,लेकिन उन गुमनाम गायकों की कभी भूल से भी चर्चा नहीं होती जो अपने जमाने के नामी गायकों की संतानें हैं। पिता की तरह उन्होंने
भी गायन के क्षेत्र में भविष्य बनाना चाहा,पर सफल नहीं हो सके। हमें ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में चंद सवालों के जवाब देकर करोड़पति बनने वालों पर रीझना सिखाया जा रहा है,लेकिन लाखों लगा कर डिग्रियां हासिल करने के बावजूद चंद हजार की नौकरी की तलाश में चप्पलें घिसने वाले देश के लाखों नौजवानों की चिंता हमारे चिंतन के केन्द्र में नहीं है,क्योंकि इससे बाजार को भला क्या हासिल हो जाएगा,बल्कि ऐसी भयानक सच्चाईयां हताशा और अवसाद को जन्म देती है। चमत्कार को नमस्कार करने की यह प्रवृत्ति एक दिन कहां जाकर रुकेगी,सोच कर भी डर लगता है।

परिचय-तारकेश कुमार ओझा का नाम खड़गपुर में वरिष्ठ पत्रकार के रुप में जाना जाता है। आपका निवास पश्चिम बंगाल के खड़गपुर स्थित भगवानपुर (जिला पश्चिम मेदिनीपुर) में है। आपकी लेखन विधा अनुभव आधारित लेख,संस्मरण और सामान्य आलेख है।श्री ओझा का जन्म स्थान प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश) हैl पश्चिम बंगाल निवासी श्री ओझा की शिक्षा बी.कॉम. हैl कार्यक्षेत्र में आप पत्रकारिता में होकर उप सम्पादक हैंl आपको मटुकधारी सिंह हिंदी पत्रकारिता पुरस्कार तथा श्रीमती लीलादेवी पुरस्कार के साथ ही बेस्ट ब्लॉगर के भी कई सम्मान मिल चुके हैंl आप ब्लॉग पर भी लिखते हैंl  

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