हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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‘हे रश्मिरथी!’ तुम उगलो जहर आज,
हे भागीरथी! तुम उगलो कहर आज
भूल गए सब संचित मर्यादा,
राजधर्म से भ्रष्ट है शासक
ढोंग-पाखंड से संलिप्त उपासक,
जनता से करते हैं झूठे वादा।
हे असीम आसमां! उगलो अंगार आज,
राष्ट्र धर्म का करो उपचार आज
कुंठित मानुष को न्याय दिला दे।
सुनो जनता तुम, क्यों चीत्कारित हो,
निवेदन करती क्यों, अव्यवहारिक हो ?
कितने ही तो धृतराष्ट्र आज है ?
उपजे इस जमाने में।
जो गली-गली में लगे हुए हैं,
द्वित सभाएं सजाने में।
द्रोण-भीष्म आज मौन है लाखों,
देश के हर गलियारे में
छीनी जाती है अस्मत पुत्रवधू की,
शहर-ए-आम अंधियारे में।
कर्ण से आज है दानी घने,
लगे हैं दोस्ती निभाने में
दुर्योधन से युवराजों को देखो,
है मजा लेते चीर हरवाने में।
दुशासन लगे हैं निरंतर खींचने,
जनता-द्रोपदी की साड़ी को
जनार्दन जज्बात को समझे या न समझे,
हम तो खुद खे रहे हैं जीवन की गाड़ी को।
फिर भी हे सवाली! तुम,
निवेदन अव्यवहारिक कहते हो ?
या तो खबर न तुमको असल में,
या फिर तुम कहीं, और ही रहते हो।
धर्म, विधान, न्याय, मीडिया, कार्यपालिका,
पाँचों पतियों ने द्वित में सब हारा है
मुझ अबला पर भी दाँव खेल कर,
भरी सभा में चीर उतारा है।
है करुण क्रंदन ये, आत्म स्पंदन ये,
हो जाने दो फिर से महाभारत।
कुदरत की असीम सताओं को,
पुकार रही हूँ मैं आरत॥