ममता तिवारी ‘ममता’
जांजगीर-चाम्पा(छत्तीसगढ़)
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न जाने समाज क्यों, कुछ पिशाचियत पर अड़ता है ?
बे-ज़ुबान निरीह पशुओं की, बलि चढ़ाने पर लड़ता है।
देवताओं के नाम पर लेता है, जान इन बे-जुबानों की।
क्यों भूल जाता है फितरत तब, समाज यहां इंसानों की ?
सनातन संस्कृति के भाल पर, बलि प्रथा एक कलंक है,
कर्म-दण्ड तो प्रभु सबको देगा, चाहे राजा हो या रंक है।
जिद करता है देव समाज, “न बलि तो सबको देनी होगी”,
विवश करते हैं देवता को भी, बलि तो तुझको लेनी होगी।
कारिंदों की जिद के चलते, देवता सदियों से बलि लेता है,
दहशत फैलाई जाती है, जो न दे, उसकी जान भी लेता है।
कौन हुआ है अमर अब तक, इन पशुओं की जान चढ़ाने से ?
मैं करता हूँ ऐसे कई सवाल, कई बार इस बिगड़े जमाने से।
सब जानते हैं कि गलत है यह सब, पशु बलि सच खोटी है,
फिर भी अपनी जान बचाने के भ्रम से, मार- काट तो होती है।
इसी से ही कई जगह पर, हमारे देवों की बदनामी होती है,
सनातन संस्कृति की दया धर्मिता, हमारी नादानी खोती है।
पिशाच नहीं तो क्या हैं फिर हम, जो दया-धर्म है छोड़ दिया,
वैदिक पुरखों के सनातन धर्म को, स्वाद-स्वार्थ में तोड़ दिया ?
देव न लेता है जान किसी की, फिर वह काहे का देव हुआ ?
बस कारिन्दों की मांसाहार की चाह, बलि लेता है देव हुआ॥