कुल पृष्ठ दर्शन : 370

You are currently viewing विदेशों में हिंदी की संभावनाएँ और भविष्य

विदेशों में हिंदी की संभावनाएँ और भविष्य

डॉ. मोतीलाल गुप्ता ‘आदित्य’
मुम्बई(महाराष्ट्र)
**********************************************

आजकल देश की बजाए विदेशों में हिंदी की चिंता कुछ ज्यादा ही है। भारत में हिंदी और भारतीय भाषाओं का क्या हाल है, और क्या होगा ? इसके बजाए विदेशों में हिंदी से जुड़ी संगोष्ठियाँ ज्यादा होती दिखती हैं। भारत की २०११ की जनगणना के अनुसार भारत के ५७.१ फीसदी भारतीय हिंदी जानते हैं जिनमें से ४५.६७ प्रतिशत भारतीय लोगों ने हिंदी को अपनी मातृभाषा घोषित किया था। इसके अलावा भारत-पाकिस्तान सहित विभिन्न देशों में करीब १४.१० लोगों द्वारा उर्दू सहित हिंदुस्तानी भाषा के रूप में हिंदी बोली जाती है। हालांकि, अनेक विद्वानों का मानना है पूरे विश्व में प्रथम, द्वितीय और तृतीय भाषा के रूप में हिंदी बोलने वालों और समझने वालों के आँकड़ों को मिलाकर देखें तो हिंदी विश्व की सर्वाधिक प्रयोग में आने वाली भाषा है।
‘विदेशों में हिंदी’ इस विषय पर आजकल अनेक संगोष्ठियां होने लगी हैं। प्रवासी साहित्य भी खूब चर्चा में है। यही नहीं, कुछ विश्वविद्यालयों में तो प्रवासी साहित्य को पाठ्यक्रम में भी शामिल किया गया है। ‘विदेशों में हिंदी’ विषय पर भारत में आए दिन अनेक संगोष्ठियाँ व परिचर्चाएँ होती हैं। ज्यादातर कार्यक्रमों और संगोष्ठियों में अक्सर विद्वान वक्ता ऐसे आँकड़े बड़ी ही खूबसूरती से पेश करते हैं, जिनसे लगता है हिंदी बड़ी तेजी से विश्व में अपने पाँव पसारती जा रही है। हिंदी की ऐसी मनमोहक छवि से प्रभावित हिंदी-प्रेमी श्रोताओं के मन को भी बहुत शांति मिलती है, ‘चलिए कोई बात नहीं, भारत में न सही विश्व में तो हिंदी तेजी से फैल ही रही है। हो सकता है, कभी इसी तरह लौट कर भारत में भी ऐसे ही फैले।’ इस प्रकार एक बहुत ही खुशनुमा और आशावादी से माहौल में विश्व में हिंदी की चमकदार तस्वीर लिए लोग अपने घर लौट जाते हैं। हिंदी के प्राध्यापक और विद्यार्थी भी इन व्याख्यानों से अपने लिए कुछ न कुछ ऐसा खोज ही लेते हैं, जो हिंदी की स्थिति पर होने वाली चर्चाओं में एक ढाल की तरह उनके काम आ सके। वे अक्सर आँकड़ों के मकड़जाल में फंस कर विश्व में हिंदी के प्रसार की एक ऐसी तस्वीर अपने मन में बसा लेते हैं, जो कई बार यथार्थ से काफी दूर होती है। यह नहीं कह रहा हूँ कि हिंदी को प्रचार को लेकर विद्वानों द्वारा प्रस्तुत आँकड़े गलत होते हैं, यह कह रहा हूँ कि उनके माध्यम से जो तस्वीर बनाई जाती है, वह एकतरफा होती है और अक्सर वैसी नहीं होती, जैसी वास्तव में है।
जब विदेशों में हिंदी की बात आती है तो, उसकी स्थिति को समझने के लिए मुख्यत: २ भागों में बांटा जा सकता है। एक है साहित्य-लेखन और दूसरा है हिंदी का प्रचार-प्रसार और प्रयोग। भाषा की दृष्टि से दोनों का पारस्परिक संबंध होने के बावजूद दोनों में बड़ा अंतर है। केवल हिंदी साहित्य लेखन से किसी देश में हिंदी के प्रचार-प्रसार की स्थिति को समझना संभव नहीं है। अगर समझना भी है तो, यह देखना होगा कि उस भाषा के साहित्य के पाठकों और श्रोताओं का कितना बड़ा वर्ग है, जो उसका रसास्वादन करता है। विदेशों में हिंदी की संभावनाओं और भविष्य को जानने के लिए अनेक लोग साहित्य को ही आधार ही मान कर चलते हैं। विदेशों में हिंदी साहित्य लेखन में भी २ वर्ग बने हुए हैं। विदेशों में लिखे जाने वाले साहित्य में भी मोटे तौर पर २ वर्ग हैं। पहला वह, जो आज से २०० साल पहले गिरमिटिया मजदूर बनकर या उसके पहले भी किन्हीं कारणों से विदेशों में जाकर बसे भारतीयों के वंशजों द्वारा लिखा जानेवाला, जो वहां के स्थाई निवासी हो गए। दूसरा वह वर्ग है, जो स्वतंत्रता के पश्चात शिक्षा-रोजगार आदि के लिए वहां पहुंचा है। दोनों की स्थितियां और साहित्य में भी बड़ा अंतर है। पिछले कुछ दशकों में जो भारतीय वहाँ पहुंचे हैं, अब उनकी भी कई पीढ़ियाँ आ चुकी हैं और वह भी धीरे-धीरे प्रवासी से अप्रवासी होते जा रहे हैं। जो एक बार वहाँ गया और जाकर बसा, अक्सर फिर लौट कर आना संभव नहीं हो पाता।
विदेशों में लिखे जाने वाले साहित्य को सामान्यतः ‘प्रवासी साहित्य’ कहते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि कई सौ वर्ष पूर्व विदेश गए भारतवंशियों और स्वतंत्रता के पश्चात वहां गए भारतीयों द्वारा भी विभिन्न देशों में प्रचुर मात्रा में हिंदी साहित्य सृजन का कार्य हुआ है। हालांकि, उत्कृष्ट और सामान्य साहित्य के आलोचकों की अपनी-अपनी परिभाषाएं और पैमाने हैं लेकिन विदेशों में अनेक हिंदी साहित्यकार हैं जिन्होंने साहित्य लेखन में खासा नाम और प्रतिष्ठा अर्जित की है। अगर साहित्य के पाठकों और उसका रसास्वादन करने की बात की बात की जाए तो स्थिति एकदम प्रतिकूल दिखाई देती है। भारतीयों द्वारा कभी- कभार आयोजित होने वाले कवि सम्मेलनों के आयोजनों को छोड़ दें तो सामान्य-जन का हिंदी साहित्य से कोई खास संबंध नहीं दिखता। इस स्थिति को मॉरीशस के साहित्यकार रामदेव धुरंधर के वक्तव्य से समझा जा सकता है। उन्होंने कहा, ‘मैं वहाँ शब्द बोता हूँ और भारत में उनकी फसल काटता हूँ।’ उनके मंतव्य को आसानी से समझा जा सकता है। मुझे लगता है कि ज्यादातर प्रवासी और अप्रवासी साहित्यकार कमोबेश यहीं करते हैं यहाँ, लेकिन जब भारत के साहित्यकारों के साहित्य की फसल ही कट कर बिक नहीं पाती तो देश-विदेश में हिंदी साहित्य की स्थिति को समझा जा सकता है।
ऐसा नहीं है कि, विदेशों में हिंदी का अध्ययन-अध्यापन या साहित्य लेखन नहीं हो रहा, वह हो रहा है। उसमें भी कई ऐसे साहित्यकार-लेखक आदि हैं जिनका साहित्य विश्वस्तरीय है। यह बात सही है कि, विदेशों में रह रहे भारतीयों और भारतवंशियों द्वारा भी भाषा- साहित्य को बचाने-बढ़ाने के लिए सरकारी, संस्थागत व व्यक्तिगत स्तर पर अनेक संस्थाएँ व मंच बनाए गए हैं। यह कहना भी अतिशयोक्ति न होगा कि, विदेशों में बसे भारतीय जिनमें हिंदी के विद्वानों और साहित्यकारों के अतिरिक्त हिंदी भाषा-साहित्य प्रेमी विभिन्न क्षेत्रों के अनेक विशेषज्ञ भी हैं, जो चिकित्सा, अभियांत्रिकी, प्रबंधन, वित्त आदि क्षेत्रों व व्यवसायों से जुड़े हैं, उनकी हिंदी के प्रति निष्ठा और नि:स्वार्थ-सेवाभाव के साथ हिंदी को देश-विदेश में स्थापित करने की ललक कहीं ज्यादा है। हालांकि, विदेशों में यह अपेक्षा करना थोड़ी ज्यादती होगी कि हिंदी वहाँ के कामकाज की भाषा बने, पर इतनी अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि हिंदी भारतवंशियों और प्रवासी भारतीयों, विशेषकर हिंदी भाषियों के पारिवारिक संवाद और पारस्परिक संपर्क के अतिरिक्त सामाजिक-घार्मिक व आध्यात्मिक प्रयोजनों तथा अपने देश से और अपनी जड़ों से जुड़े रहने का माध्यम बन कर आगे बढ़े।
हिंदी के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से भी २ महत्वपूर्ण आयाम हैं। एक है हिंदी अध्ययन-अध्यापन का और दूसरा है उसके प्रयोग का। जहाँ तक विदेशों में हिंदी शिक्षण का संबंध है, विदेशों में लगभग १५४ देशों के विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जाती है। इनमें अप्रवासी भारतीयों के अलावा स्थानीय छात्र भी हिंदी का अध्ययन करते हैं। हिंदी अध्ययन का एक बड़ा कारण है भारतीयों और भारतवंशियों द्वारा अपने देश और वहाँ की धर्म-संस्कृति से जुड़े रहना और नौकरी तथा व्यावसाय की दृष्टि से इसकी आवश्यकता है।
वैश्विक स्तर पर हिंदी के प्रसार, हिंदी शिक्षण का एक महत्वपूर्ण कारण है वैश्विक राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक संबंध। भारत न केवल विपुल जनसंख्या वाला एक बड़ा देश है, बल्कि बड़ा शक्तिशाली देश है। परस्पर आर्थिक, सांस्कृतिक संबंधों को बढ़ाने के उद्देश्य से विश्व के अनेक देशों में हिंदी सीखी व सिखाई जाती है। भारत के साथ अपने राजनीतिक, कूटनीतिक और आर्थिक संबंध साधने के लिए भी विश्व के अनेक देशों के लिए यह आवश्यक है कि, भारत की राजभाषा हिंदी सीखें। चीन आर्थिक और सामरिक मोर्चे के साथ-साथ सांस्कृतिक मोर्चे पर हमें पटकनी देने और अपने हितों को साधने के लिए पिछले कुछ समय से हिंदी को अपना हथियार बना रहा है। इस समय चीन में हजारों जवान ऐसे हैं, जो हिंदी के कुछ वाक्य बोल और समझ सकते हैं। भारत-चीन सीमा पर तैनात चीनी जवानों को हिंदी इसलिए सिखाई जाती है कि, वे हमारे जवानों और नागरिकों से सीधे बात कर सकें। उनका हिंदी-ज्ञान उन्हें जासूसी करने, भारतीय जवानों को धमकाने, चेतावनी देने, पटाने में उनकी खासी मदद करता है। भारतीय आयातक व्यापारियों से संवाद के लिए भी बड़ी संख्या में चीन के लोग हिंदी सीखते और बोलते हैं। इसके चलते चीन के लगभग २० विश्वविद्यालयों में बाकायदा हिंदी पढ़ाई जाती है। ऐसे अनेक उद्देश्यों से अनेक देशों के लोग विदेशी भाषा के रूप में हिंदी पढ़ने भारत आते हैं। भारत में विदेशियों को हिंदी सिखाने के लिए केंद्रीय हिंदी संस्थान (आगरा) सहित कई संस्था और विश्वविद्यालयों में भी सुविधाएँ हैं। मुंबई में महात्मा गांधी द्वारा स्थापित ‘हिंदुस्तानी प्रचार सभा’ में भी अनेक देशों के लोग हिंदी व उर्दू सीखने के लिए आते हैं। विभिन्न देशों में ऐसे अनेक विदेशी विद्वान हैं, जो न केवल हिंदी में पारंगत हैं बल्कि अपने देश में हिंदी अध्यापन से भी जुड़े हैं। कई विदेशी विद्वान हिंदी की विशिष्टता की ओर आकर्षित हुए और उन्होंने इस भाषा पर अपना प्रभुत्व सिद्ध किया है।
सदियों से धर्म, आध्यात्म, ज्ञान और व्यापार आदि कारणों से भारत के लोग विदेशों में और अन्य देशों के लोग भारत में आते-जाते रहे हैं, लेकिन बड़े पैमाने पर भारत के लोगों के विदेशों में जाकर बसना १९वीं सदी में और २०वीं सदी के प्रारंभ में हुआ, जब ब्रिटिश शासक अपने उपनिवेशों मैं विकास और वहां की प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के लिए यहाँ से मजदूरों को ले कर गए। अनुबंध करके गए ये मजदूर आगे चलकर गिरमिटिया मजदूर कहलाए। ये मजदूर ही आगे चल कर भारतीय भाषा-संस्कृति के प्रमुख विश्वदूत बने। ये मजदूर उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र आंध्रप्रदेश तमिलनाडु सहित भारत के कई हिस्सों से जाकर वहां बसे थे, लेकिन इनमें सर्वाधिक संख्या उत्तर प्रदेश और बिहार के मजदूरों की थी। इन गिरमिटिया मजदूरों के वंशज, ये भारतवंशी इतने वर्ष बाद भी भावनात्मक रुप से अपने पूर्वजों के धर्म और संस्कृति से जुड़े हैं। हालांकि, ये सभी देश भौगोलिक दृष्टि से बहुत दूर-दूर स्थित हैं। इसके बावजूद बहुत सारी बातें इनमें लगभग समान पाई जाती हैं। इनका हिंदी-प्रेम मुख्यत: अपनी जड़ों से जुड़ने की ललक और अपने धर्म-संस्कृति के प्रति लगाव रहा है। इन सभी देशों में ‘रामायण’ के प्रति अगाध श्रद्धा है और आज जबकि उन्हें वहां गए हुए कई पीढ़ियां बीत चुकी हैं वे धर्म और संस्कृति के प्रति लगाव के चलते हिंदी सीखते-सिखाते हैं। आज जबकि भारतवासियों के जीवन में अनेक परिवर्तन आए हैं, लेकिन इन देशों में गए भारतवंशी आज भी कहीं न कहीं उसी जीवनधारा का अनुसरण करते से दिखते हैं। आज भी इनके नाम प्राय: वही हैं जो हमारे यहाँ सौ-दौ-सौ साल पहले थे। भाषा के स्तर पर भी इनकी भाषा में तत्कालीन अवधी-भोजपुरी जैसी बोलियों का प्रभाव स्पष्ट दिखता है। अपने धर्म-संस्कृति और पूर्वजों के देश भारत से लगाव के कारण इन देशों में बड़े पैमाने पर हिंदी शिक्षण का कार्य होता है। प्रो. विमलेश कांति वर्मा लिखते हैं कि, इन देशों में हिंदी शिक्षण का कार्य सर्वप्रथम मिशनरियों ने शुरू किया। उनका उद्देश्य हिंदी के माध्यम से भारत से गए हिंदुओं को ईसाई बनाना था। हिंदी के प्रति प्रवासी भारतीयों का जो भावनात्मक लगाव था, उसके कारण वे हिंदी सीखना चाहते थे।
जिस प्रकार मॉरीशस में हिंदी के लिए ‘महात्मा गाँधी संस्थान’ है, वैसे ही दक्षिण अफ्रीका में ‘हिंदी शिक्षा संघ’ है। संघ की पूर्व अध्यक्ष प्रो. उषा शुक्ला कई वर्ष पूर्व जब ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ के कार्यक्रम में भाग लेने मुंबई आईं तो उन्होंने बताया कि, संघ’ द्वारा दक्षिण अफ्रीका में ५५ स्थानों पर हिंदी पढ़ाई जाती है। संघ के कार्यकर्ता सेवा- भाव से हिंदी शिक्षण कार्य करते हैं। ये कार्यक्रम शाला समय के पश्चात अथवा साप्ताहिक रूप से चलाए जाते हैं।संघ द्वारा वहां एक रेडियो स्टेशन भी स्थापित किया गया है, जहाँ हिंदी और भारतीय भाषाओं के गीत व अन्य कार्यक्रम भी प्रस्तुत किए जाते हैं। वे कहती हैं ‘हिंदी प्रसार व शिक्षण के कार्य में ‘हिंदी शिक्षा संघ’ का प्रमुख उद्देश्य भारतीय संस्कृति और संस्कारों की रक्षा है।’ इस दृष्टि से दक्षिण अफ्रीका के संघ की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका है। जहाँ भारत से गए मजदूरों के वंशज बड़े ही सेवा-भाव के साथ हिंदी शिक्षण का कार्य करते हैं, पर अगर प्रचार-प्रसार और व्यवहार की दृष्टि से विदेशों में हिंदी की स्थिति की बात की जाए तो स्थिति वैसी नहीं लगती, जैसी दिखाई जाती है। अपने धर्म-संस्कृति से लगाव के बावजूद और विदेशों में भारतीयों के प्रवास की संख्या में निरंतर वृद्धि के बावजूद हिंदी का अपेक्षित प्रसार होता नहीं दिखता। जोहान्सबर्ग में ‘हिंदी शिक्षा संघ’ के सहयोग से नवें विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान भारतवंशियों का एक जत्था संघ के नेतृत्व में डरबन और नाटाल से आया था। उस जत्थे में ऐसे लोग भी थे, जो हिंदी कम समझते थे या बिल्कुल नहीं समझते थे। उनके लिए हिंदी का सम्मेलन केवल हिंदी का सम्मेलन नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति और भारतीयता का सम्मेलन था, जहाँ वे भारत की धर्म-संस्कृति से जुड़ने आए थे। जोहान्सबर्ग से डरबन के करीब १० घंटे के सफर में रास्ते भर उन्होंने रोमन लिपि में छपी हुई हिंदी भजनों की पुस्तक से ऐसे-ऐसे धार्मिक भजन गाए कि सब भाव-विभोर हो गए और उसके बाद हिंदी फिल्मों की अंत्याक्षरी ठीक वैसे ही शुरु हुई, जैसे किसी पिकनिक मैं भारतवासी खेलते हैं। उनका सम्मेलन के बहाने भारत और भारतीयता से जुड़ाव अद्भुत था। और पता लगा कि हिंदू धर्म-संस्कृति और गीत-संगीत से लगाव-जुड़ाव के बावजूद अब ज्यादातर लोग हिंदी समझ भी नहीं पाते।
ज्यादातर भारतवंशी ‘रामचरितमानस’ पढ़ने और अपने धर्म और संस्कृति से जुड़ने के लिए हिंदी सीखते हैं। यहाँ के विश्वविद्यालय में हिंदी की विभागाध्यक्ष रह चुकीं प्रो. उषा शुक्ला बड़ी ही साफ़गोई से स्वीकार करती हैं, ‘हिंदी के प्रति जो रुझान पहले था, वैसा अब नहीं रहा। विश्वविद्यालय ने भी हिंदी विषय को अब हटा दिया है। इस कारण उन्हें अपनी सेवा के अंतिम कई वर्ष हिंदी के बजाए अंग्रेजी विषय पढ़ाना पड़ा। जो लगाव है, वह भारत से और भारत की संस्कृति से है। जब भारत में ही लोग हिंदी को उतना पसंद नहीं कर रहे तो दक्षिण अफ्रीका में यह कैसे होगा ? ’
भारतवंशियों का सर्वाधिक प्रतिशत अगर किसी देश में है, तो वह मॉरीशस में है। मॉरीशस के साहित्यकार राज हिरामन ने बताया कि वहां भी हिंदी के प्रचार का मुख्य कारण धार्मिक- सांस्कृतिक जुड़ाव ही अधिक है। मॉरीशस में जो सुविधा-सम्मान यूरोपीय भाषा के अखबारों का है, वैसा हिंदी के समाचार-पत्रों का नहीं है। बात लगभग वही दिखती है, जैसी भारत में है। वहाँ बड़ी आबादी उन गिरमिटिया मजदूरों के वंशजों की है, जो उप्र-बिहार के भोजपुरी-बोली क्षेत्र से गए थे, लेकिन वहाँ की संपर्क भाषा अब भोजपुरी नहीं है। अगर प्रचलन की बात करें तो वहाँ ‘क्रियोल’ भाषा का प्रयोग होता है। क्रियोल भाषा का अर्थ है-खिचड़ी भाषा, यानी जो २ या अधिक भाषाओं के मिश्रण से पैदा हुई हो। मॉरीशस में बोली जाने वाली क्रियोल में अधिकतर फ़्रांसीसी और भोजपुरी के शब्द हैं। देखा गया है कि बहुत से शब्दों के उच्चारण व अर्थ मूल भाषाओं से बदल जाते हैं। राज हिरामन कहते हैं कि, हम मॉरीशसवासियों की व्यवहार की भाषा हिंदी या भोजपुरी नहीं, बल्कि क्रियोल है। ऐसी ही स्थितियाँ कमोबेश अन्य ऐसे देशों में है। इसी प्रकार रामदेव धुरंधर और डॉ. इंद्रदेव भोला भी इस बात को स्वीकार करते हैं।
व्यापार-व्यवसाय या नौकरी के चलते पिछले ५०-१०० साल में जो लोग भारत से जाकर विदेशों में बसे, उनमें सर्वाधिक संख्या यूरोप, अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और खाड़ी के देशों की रही। इन देशों में हिंदी की वास्तविक स्थितियों को भी वहीं के लोगों की जुबानी बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। कई वर्ष पूर्व मुंबई में ‘वैश्विक हिंदी संगोष्ठी’ में विद्वान वक्ता (ब्रिटेन) कथाकार तेजेंद्र शर्मा ने स्पष्ट रूप से कहा कि यूरोप में आँकड़ों के सहारे हिंदी की जो तस्वीर बनाई जाती है, वैसा कुछ है नहीं। हिंदी मुख्यत: मंदिरों या सामाजिक-धार्मिक संगठनों के माध्यम से अपने धर्म और संस्कृति के जुड़ाव के लिए पढ़ाई जाती है और वहाँ भी कोई उत्साहपूर्ण वातावरण नहीं है। ब्रिटेन से ही आई हिंदी साहित्यकार श्रीमती शैल अग्रवाल ने भी इस पर सहमति प्रकट की। मुंबई में प्राचार्य रह चुकीं और ऑस्ट्रेलिया में रहीं श्रीमती शील निगम ने बताया कि २०१३ में ऑस्ट्रेलिया में हिंदी की घटती माँग के चलते यह विचार-विमर्श चल रहा था कि हिंदी क्यों पढ़ाई जाए ? इस संबंध में ऑस्ट्रेलिया सरकार के विदेश एवं व्यापार विभाग ने विषय पर परामर्श आमंत्रित किए, तब उनके पुत्र विनय निगम ने अपने मित्रों सहित और उन्होंने भारत-ऑस्ट्रेलिया संबंधों में हिंदी के महत्व को आधार बना कर एक लेख ऑस्ट्रेलिया सरकार के समक्ष प्रस्तुत किया। अंतत: सरकार ने दृष्टिकोण को स्वीकारते हुए ऑस्ट्रेलिया में हिंदी शिक्षण के लिए अधिक धनराशि उपलब्ध करवाने पर गंभीरता से विचार किया और किसी तरह हिंदी जाते-जाते बची।
कनेडा से ‘प्रयास’ नामक साहित्यिक हिंदी ई-पत्रिका निकालने वाले साहित्यकार शरण घई जब भारत आते हैं, तो बताते हैं कि सिक्खों की बहुलता और प्रभाव के चलते कनेडा में पंजाबी को तो शासकीय मान्यता है, पर हिंदी की कोई खास पूछ नहीं है। इंग्लैंड से मुंबई आई सुप्रतिष्ठित हिंदी साहित्यकार श्रीमती कादंबरी मेहरा से भी चर्चा हुई तो उन्होंने कहा, ‘इंग्लैंड और दूसरे यूरोपीय देशों में वहाँ हिंदी का इस्तेमाल वे लोग तो करते हैं जो भारत में जन्मे और बढ़े-पढ़े हैं, लेकिन उनकी अगली पीढ़ियाँ अब हिंदी नहीं बोलतीं।’ गोंडा (उत्तर प्रदेश) से ओमान के भारतीय समुदाय की शाला के हिंदी शिक्षक अशोक कुमार तिवारी ने बताया कि किस प्रकार वहाँ हिंदी के साथ सौतेला व्यवहार हो रहा है। प्रो. शिवकुमार सिंह (पुर्तगाल लिस्बन विश्वविद्यालय में कला संकाय में हिंदी पढ़ाते हैं) बताते हैं, ‘१९६१ तक गोवा, दमण, दीव और दादरा नगर हवेली क्षेत्र पुर्तगाल के अधीन था और उनका भारत के साथ ५०० साल का साझा इतिहास है, इसके चलते भारत से जुड़ी यादें आज भी पुर्तगालियों के मन में बसी हैं। इसलिए बहुत से भारतीय मूल के पुर्तगाली अपने बच्चों को गुजराती, कोंकणी, हिंदी सिखाने की कोशिश करते हैं, कुछ के रिश्तेदार भारत में­ हैं और साल-दो साल में उनका भारत जाना होता है।‘ उनके अनुसार पढ़ाने के अतिरिक्त दूसरी एक चुनौती विद्यार्थियों की पर्याप्त संख्या बनाए रखना भी है, ताकि शिक्षण कार्य चलता रह सके।
मुंबई में ‘वैश्विक संगोष्ठी’ के पूर्व कथाकार तजेंद्र शर्मा ने एक सवाल दागा, ‘गुप्ता जी, आप भारत में हिंदी की बात करें ठीक है, पर इंग्लैंड में रह कर मुझे या मेरे बच्चों को हिंदी क्यों बोलनी या पढ़नी चाहिए ?’ प्रश्न अभी भी यक्ष प्रश्न की तरह विद्यमान है। ऑस्ट्रेलिया के एक विश्वविद्यालय में विभागाध्यक्ष सुभाष शर्मा (काव्य गोष्ठियों का आयोजन करने के साथ हिंदी का प्रयोग बढ़ाने के लिए निरंतर प्रयासरत) भी हिंदी भाषियों की हिंदी के प्रति उदासीनता की बात करते हैं।
आज भारत विश्व का एक बहुत बड़ा बाजार है‌। यहां के लोगों को अपना ग्राहक बनाने के लिए और अपना माल या सेवाएं बेचने के लिए बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां हिंदी का प्रयोग करती है। इसलिए आज चीन-जापान सहित अनेक देशों के नागरिक भारत में हिंदी सीखने के लिए आ रहे हैं।
कहने का अभिप्राय यह है कि भारत से होने वाले व्यापार के कारण भी विश्व के अन्य देशों में हिंदी पहुंच रही है। यदि भारत के लोग भी अन्य देशों की भाषाएं सीखें और उनसे संवाद करें तो निश्चित तौर पर उनके माध्यम से भी हिंदी विश्व के अन्य देशों में पहुंचेगी।
विदेशों में भारतवंशियों, प्रवासी और अप्रवासी भारतीयों की विपुल जनसंख्या एवं उनका अपने देश के प्रति प्रेम और धर्म-संस्कृति से लगाव विश्व में हिंदी के प्रसार की अनंत संभावनाओं का कारण तो है ही, इसके अतिरिक्त भारत आज विश्व का सबसे बड़ा बाजार है जहाँ हर देश अपनी जगह बनाना चाहता है। इसके कारण यदि सरकार द्वारा हिंदी भाषा के प्रयोग की दृष्टि से कुछ निर्णय लिए जाएँ तो तस्वीर पूरी तरह बदल सकती है। पूरी दुनिया में देश और विदेश में खपने वाले सामान पर सभी देशों में सामान पर उस देश की भाषा में जानकारी दी होती है। विदेशों के लिए उस देश की भाषा का भी प्रयोग होता है, लेकिन भारत में सब अंग्रेजी में है। सरकार द्वारा इस संबंध में आवश्यक कानून बनाए जाने की आवश्यकता है। चर्चा से निकल कर आ रहे संकेतों से यह स्पष्ट है कि, विश्व में हिंदी की स्थिति को मजबूत करने के लिए हमें सर्वप्रथम भारत में हिंदी की स्थिति को मजबूत करना होगा। आज भारत में और विशेषकर हिंदी भाषी क्षेत्र में भी हिंदी व्यापार-व्यवसाय तथा शिक्षा-रोजगार आदि में निरंतर अपना स्थान गंवा रही है। उत्तर भारत के छोटे-छोटे गाँवों तक अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय अपने पाँव पसार चुके हैं। एक विषय के रूप में भी हिंदी की स्थिति धीरे-धीरे दोयम दर्जे की हो रही है। एक समय था जब शाला स्तर पर तो कम से कम हिंदी ज्ञान-विज्ञान का माध्यम होती थी, लेकिन अब तो धीरे-धीरे अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों के चलते भारत में भी हिंदी ज्ञान विज्ञान की भाषा नहीं रह गई है। अंग्रेजी माध्यम से निकल कर आए ज्यादातर बच्चे अब हिंदी बोलना और लिखना तक पसंद नहीं करते हैं। ऐसे में यह अपेक्षा करना कि विदेशों में भारतवंशी प्रवासी भारतीय या अन्य विदेशी लोग हिंदी का प्रयोग करेंगे, यह बेमानी-सा लगता है। यही कारण है कि विश्व के अनेक विवि जहाँ कल तक हिंदी विषय को उच्च स्तर तक पढ़ाया जाता था, अब उसे धीरे-धीरे समाप्त किया जा रहा है। विदेशों में हिंदी मुख्यतः भारतवंशियों और प्रवासी भारतीयों के बीच साहित्य संगीत, सिनेमा आदि तक सिमट कर रह गई है। और अब भारत की तरह ही वहाँ भी नई पीढ़ियाँ धीरे-धीरे उससे दूर होती जा रही हैं, लेकिन नई शिक्षा नीति के माध्यम से जिस प्रकार सरकार भारतीय भाषाओं के शिक्षण और भारतीय भाषाओं मे शिक्षण के लिए प्रयास कर रही है, उससे उम्मीद तो जगती है। निश्चय ही इसका प्रभाव विदेशों में हिंदी के प्रयोग पर भी पड़ेगा।
भले ही हिंदी संयुक्त राष्ट्र संघ की अधिकारिक भाषा न बनी हो, लेकिन बहुभाषावाद को संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा संगठन के मूल मूल्य के रूप में मान्यता दे दी गई है। बहुभाषावाद के प्रस्ताव में हिंदी भाषा का उल्लेख है। भारत २०१८ से संयुक्त राष्ट्र के वैश्विक संचार विभाग के साथ साझेदारी कर रहा है। इससे भी वैश्विक स्तर पर हिंदी के प्रसार का मार्ग प्रशस्त हुआ है।
मुझे विदेशों में हिंदी के प्रसार के लिए विदेशों से अधिक देश में हिंदी का प्रयोग बढ़ाने के प्रयास किए जाने की आवश्यकता प्रतीत होती है। यदि भारत में हिंदी की जड़ें मजबूत होंगी तो, उससे निकलने वाली मजबूत टहनियां और भारत में उनमें लगने वाले ज्ञान-विज्ञान, गीत-संगीत तथा साहित्य आदि के फल भाषा के साथ विश्व भर में पहुँचेंगे। हिंदी की जड़ों को भी रोजगार और उन्नति के अवसरों की खाद की आवश्यकता है। जब भारत में हिंदी रूपी वृक्ष की जड़ों को इसका पोषण मिलने लगेगा तो निश्चित रूप से हिंदी का यह वटवृक्ष भारत भूमि पर विकसित होते हुए भारत की संस्कृति के साथ-साथ भारत के विकास की सुगंध को भी विश्व भर में फैलाएगा।

Leave a Reply