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स्तरीय पत्रिकाएं बंद क्यों हुई ?

सुरेंद्र कुमार अरोड़ा
ग़ज़ियाबाद(उत्तरप्रदेश) 
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आज मित्रों के बीच बातचीत में गंभीर चर्चा के दौरान अक्सर यह प्रश्न उठ जाता है कि ,”सत्तर-अस्सी के दशक की उच्चस्तरीय पत्रिकाएं,जैसे-साप्ताहिक हिदुस्तान,धर्मयुग के अतिरिक्त सारिका जैसी समर्थ पत्रिकाओं की अनुपस्थिति आज के समय में बहुत अखरती है।इन कालजई पत्रिकाओं के अंक आज भीजब कहीं किसी साहित्यकार मित्र के पास देखने को मिल जाते हैं तो उस मित्र के प्रति श्रद्धा भाव उमड़ने लगता है।उस दौर में यह पत्रिकाएं स्वयं में साहित्य का शोध-संस्थान होती थी,और इनके अगले अंक की प्रतीक्षा हर साहित्य प्रेमी को अपने किसी तीर्थ स्थल के दर्शनों की अनुभूति देता था। उन पत्रिकाओं के बंद होने से साहित्य जगत,साहित्य के समर्थ साक्षात्कार से वंचित हो गया। फिर प्रश्न उठा कि क्या कारण था कि इतनी समर्थ और मोहक पत्रिकाओं को आखिर बंद करना पड़ा,जबकि उनके  प्रकाशकों के पास धन-सम्पदा की कोई कमी नहीं थी और न ही उनके पास समर्थसाहित्यकारों का अकाल था,जो अपनी रचनाएँ उन्हें देना नहीं चाहते थे। पिछले तीस-चालीस वर्षों में साहित्यप्रेमियों की संख्या में भी कोई कमी दर्ज नहीं की गयी,उलटे अब तो साहित्यकार अपना धन खर्च करके अपनी पुस्तकें छपवा रहे हैं और पढ़ने वाले उन्हें पढ़ भी रहे हैं।
चर्चा के उपरांत यह तथ्य उभर कर आया कि उन स्तरीय पत्रिकाओं के असमय समाप्त होने का कारणवे साहित्यकार थे,जिन्होंने अपनी रचनाओं में आजाद भारत में तेजी से बदलती सामाजिक जरूरतों के अनुरूप बदलती सामाजिक संरचना और व्यवहार का समावेश अपने साहित्य में नहीं किया।वे भूल गए कि नए भारत में शोषण और विसंगतियों के केन्द्र बड़ी तेजी से बदल रहे हैंपरम्परागत शोषण के स्थान पर हर स्तर का भ्रष्टाचार देश की जड़ों में मठ्ठा डाल रहा है। भ्रष्टाचारी की न कोई जात होती है,न ही कोई धर्म। नई परिस्थितियों में एक मजदूर भी अपने हिस्से का भ्रष्टाचार कर सकता है। अब एक नवविवाहिता भी दहेज के के नाम पर अपने पति और ससुराल का शोषण कर सकती है,या एक दलित भी अपनी अस्मिता की रक्षा करने वाले क़ानून का उपयोग,एक अन्य प्रकार के शोषण के लिए कर सकता है। अब एक गरीब कहा जाने वाला व्यक्ति भी बिजली चोरी करके देश के साथ गद्दारी कर सकता हैl एक अनपढ़ व्यक्ति भी रिश्वत देना और अवैध धंधा करना खूब जानता है। अब बच्चे नहीं,अध्यापक अपने विद्यार्थियों से डरते हैं। अब मोबाईल और इंटरनेट से सज्जित बालाएं पैसे और ऐश के लिएकुछ भी करने से परहेज नहीं करतीं।अब एक छोटी-सी लड़की भी कत्ल कर सकती है। कहीं-कहीं तो लड़कियां ही
अपने परिजनों की हत्या तक कर देती हैं।कुछ दिन पहले की बात है कि एक लड़की ने अपनी महिला शिक्षक के साथ अवैध संबंधों के चलते अपनी माँ की हत्या कर फरार हो गई। अभी एक फिल्म आयी थी माँ,उसमें एक माँ अपनी सौतेली बेटी पर हुए अत्याचार का बदला उसी तरह लेती है,जैसे कभी अमिताभ बच्चन अपनी फिल्मों में लिया करते थे। अब बार और होटल हैं,जहां लड़कियां अपने शरीर का भौंडा प्रदर्शन करती हैं। अब गाँव में जमींदार की सूदखोरी का रिवाज लगभग खत्म है। अब मिल के गेट पर मजदूरों की भीड़ किसी वामपंथी नेता के भड़काने वाले भाषण का चारा नहीं है। फैक्ट्रियों में हड़ताल बहुत पुरानी बातें हैं। अब आतंकवाद के साथ अपराध के नए-नए बाशिंदे अपनी जगह बना चुके हैं। अब मजहबी और दलित या ढोंगी बाबा जैसे लोग भी अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए आंदोलन के नाम पर
सड़कों पर विध्वंस के नंगे नाच का प्रदर्शन करने से नहीं कतराते। अब फिरौती का धंधा चंबल से संचालित नहीं होता। घर-परिवारों की सोच और प्राथमिकताएं बदल गई हैं। अब बहुत-सी जगहों पर छोटे-बड़े कहे जाने वाले जाति-बंधनों का कोई स्थान नहीं है।नेताओं की कुटिलता अपने चरम पर है।राजनीति,निरंकुशता और झूठ पर खड़ी है। अब वामपंथ के नाम पर लम्बा कुर्ता और पैन्ट पहनकर दाढ़ी बढ़ाने वाले सिगरेट के कशों के साथ मजदूरों के मसीहा बनकर थोथी चर्चा का जमाना लद चुका है। प्रचार माध्यमों के आक्रामक रुख के कारण अख़बार की प्राथमिकताएं भी बदल गई हैं। अब साहित्य स्वयं में इन सरोकारों का समावेश चाहता है,क्योंकि हिंदी का पाठक वर्ग साहित्य को पढ़ते हुए,इन नई चुनौतियों के उत्तर साहित्य में ढूंढता है और पुरानी मान्यतों के सांचे में ढला या सिमटा साहित्य उसे संतुष्ट नहींकरसकता,इसलिए वह उसे अस्वीकार करता है। समाज में अब जाति या धर्मसूचक शब्दों का उपयोग करके किसी का अपमान लगभग असम्भव है,उलटे अब कहीं-कहीं नदी विपरीत दिशा मेंबह रही है। यही स्थिति स्त्री-विमर्श की है। अब लड़के ही नहीं,लड़कियां भी फ्लर्ट
करती हैं। पाठक साहित्य में इस तथ्य की स्वीकृति चाहता है,जिससे वह स्वयं पर हो रही ज्यादती से रूबरू हों सके। जब यह नहीं हुआ तो उन पत्रिकाओं में लिखा साहित्य,नए पाठक को अटपटा लगने लगा,तब पाठक ने उन लेखकों के साथ उन पत्रिकाओं को भी अस्वीकार कर दिया। वे बंद हो गई। साहित्यकार को अपनी लेखनी में इन नए परिवर्तनों का समावेश करना होगा,तभी उसकी रचना स्वीकार्य होगी और रचनाकार को स्वीकृति मिलेगी।

परिचय–सुरेंद्र कुमार अरोड़ा की जन्म तारीख ९ नवम्बर १९५१ एवं जन्म स्थान-जगाधरी (हरियाणा)है। वर्तमान में उत्तर प्रदेश के जिला गाजियाबाद स्थित साहिबाबाद में स्थाई रुप से बसे हुए श्री अरोड़ा को हिंदी एवं अंग्रेजी भाषा का ज्ञान है। आपकी शिक्षा-स्नातकोत्तर(प्राणी विज्ञान)और बी.एड. है। आपका कार्यक्षेत्र-शिक्षा निदेशालय दिल्ली (प्रवक्ता,२०११ में अवकाश प्राप्ति)रहा है। सामाजिक गतिविधि में आप स्थानीय परमार्थिक दवाखाने से जुड़कर सेवा करते हैं। इनकी लेखन विधा-कहानी,लघुकथा एवं कविता है। देश की बहुत-सी साहित्यिक पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशन जारी है। संग्रह में आपके खाते में-आज़ादी(लघुकथा संग्रह, १९९९),विषकन्या(२००८),तीसरा पैग (२०१४),उतरन लघुकथा संग्रह (२०१९) सहित बन्धन मुक्त(कहानी संग्रह)आदि हैं। हिंदी अकादमी (दिल्ली)सहित कई न्यास और संस्थान द्वारा आपको अनेक साहित्य सम्मान दिए गए हैं। विशेष उपलब्धि-हिंदी अकादमी से पुरस्कृत होना है। लेखनी का उद्देश्य-भ्रष्ट व्यवस्था पर कलम का प्रहार तथा मानवीय रिश्तों की पड़ताल करना है। इनके पसंदीदा हिन्दी लेखक -प्रेमचंद जी,तुलसीदास जी,सुभद्रा कुमारी चौहान के साथ निर्मल वर्मा, नरेंद्र कोहली हैं। प्रेरणा पुंज-स्व.प्रो. सेवक वात्स्यायन(कानपुर विवि)हैं। आपका सबके लिए सन्देश-भारत देश सबसे पहले है,भ्रष्टाचार मुक्त देश का निर्माण करना है। श्री अरोड़ा की विशेषज्ञता-कहानी एवं लघुकथा है।

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