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स्वार्थी उद्देश्यों से लिपटी नई यात्रा से उम्मीदें कम

ललित गर्ग

दिल्ली
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कांग्रेस के नेता एवं सांसद राहुल गांधी अपने एवं कांग्रेस के राजनीतिक धरातल को मजबूती देने के लिए एक बार फिर यात्रा का सहारा ले रहे हैं। ४ हजार किलोमीटर की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के बाद अब वे ६७ सौ कि.मी. की ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ पर निकल चुके हैं। कांग्रेस को जीवंतता देने एवं उसके पुनरूत्थान के लिए की जाने वाली इस यात्रा में इंडिया गठबंधन दलों एवं खुद कांग्रेस के कार्यकर्ताओं से भीड़ जुटाने और नारे लगाने भर के लिए भागीदारी की अपेक्षा राजनीतिक संवेदनशीलता और परिपक्वता की परिचायक नहीं है। मात्र २०२४ के आम चुनाव के लिए निकाली गई यह यात्रा संकीर्ण एवं स्वार्थी उद्देश्यों से लिपटी है, जिसके दूरगामी परिणाम मिलना मुश्किल प्रतीत होता है। वैसे ऐसी यात्राओं से बहुत कुछ हासिल हो सकता है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि, पिछली यात्रा से न तो राहुल गांधी का कोई भला हुआ और न कांग्रेस का। यह किसी से छिपा नहीं कि, कांग्रेस हिंदी पट्टी के ३ राज्यों (मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़) में चुनाव जीतने में नाकाम रही। प्रश्न है कि, इस बार क्या अनोखा होने की आशा की जा सकती है ?
भारत की माटी में पदयात्राओं का अनूठा इतिहास रहा है। असत्य पर सत्य की विजय हेतु मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम द्वारा की हुई लंका की ऐतिहासिक यात्रा हो, अथवा एक मुट्ठीभर नमक से पूरा ब्रिटिश साम्राज्य हिला देने वाला १९३० का दाण्डी कूच, बाबा आमटे की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ हो अथवा राष्ट्रीय अखण्डता, साम्प्रदायिक सद्भाव और अन्तर्राष्ट्रीय भ्रातृत्व भाव से समर्पित एकता यात्रा, यात्रा के महत्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। भारतीय जीवन में पैदल यात्रा को जन-सम्पर्क एवं सशक्त जनाधार जुटाने का प्रभावी माध्यम स्वीकारा गया है। ये पैदल यात्राएं सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक यथार्थ से सीधा साक्षात्कार कराती हैं। लोक चेतना को उद्भूत कर उसे युगानुकूल मोड़ देती हैं। भगवान् महावीर ने अपने जीवनकाल में अनेक प्रदेशों में विहार कर वहाँ जनमानस में अध्यात्म के बीज बोए थे, लेकिन इन यात्राओं की श्रृंखला में राहुल गांधी की यह राजनीतिक यात्रा नए राजनीतिक स्वास्तिक उकेरनेे में कितनी सफल होगी, यह भविष्य के गर्भ में हैं। ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ राहुल गांधी की पिछली यात्रा का विस्तार ही है। अपने राजनीतिक कद को बढ़ाने के संकीर्ण एवं सीमित दायरों के कारण यात्रा का कोई चमत्कारी परिणाम मिलने में संदेह ही है। यात्राओं के जरिए राजनीतिक लाभ हासिल करने में कोई हर्ज नहीं, लेकिन यदि न्याय यात्रा कांग्रेस की है तो फिर उसका नेतृत्व सांसद राहुल गांधी के स्थान पर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे क्यों नहीं कर रहे हैं ? क्या यह एक तरह से परिवारवाद को नए सिरे से पोषण प्रदान करने के साथ इस बात को रेखांकित करने का प्रयास नहीं कि, मल्लिकार्जुन खरगे बस नाम के अध्यक्ष हैं ? कांग्रेस की दिक्क़त यह है कि, उसके पास ऐसा कोई चमत्कारिक नेतृत्व नहीं रह गया है जिसके पीछे तमाम दल चुनावी वैतरणी पार कर जाएँ, या जिसकी एक आवाज़ पर सभी दल साथ आ जाएँ। बिना राजनीतिक लाभ के विपक्षी दल इस यात्रा में कितनी सहभागिता करेंगे, यह भी एक प्रश्न है।
न्याय यात्रा’ निकलने से पूर्व एवं निकलते ही कांग्रेस को बड़े झटके लग गए हैं, साथ ही गठबंधन में बिखराव एवं टूटन की स्थितियाँ सीटों के प्रश्न पर बनी हुई हैं। श्री खरगे को ‘इंडिया’ का अध्यक्ष बना कर इस टूटन को ढँकने की कोशिश हुई है। दूसरी ओर पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में बने मतभेद छुप नहीं पा रहे। जाहिर है, सहयोगी दलों के मन में कही न कहीं यह भाव भी है कि, यात्रा के जरिए अगर देश का माहौल कांग्रेस या राहुल गांधी के पक्ष में बना तो उसका लाभ विपक्षी दलों को कैसे मिलेगा ? जाहिर है गठबंधन के दल कांग्रेस की चालाकी एवं चतुरता को महसूस कर रहे हैं। सत्ता पक्ष एवं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कोई कमजोरी फ़िलहाल तो विपक्ष एवं कांग्रेस के पास नहीं है, जिसे पकड़ कर इस यात्रा में हल्ला मचाया जाए, जनाधार बटोरा जाए। उल्टे अयोध्या और श्रीराम मंदिर प्राण-प्रतिष्ठा के कारण सत्ता पक्ष मज़बूत होता जा रहा है और इसके निमंत्रण को ठुकरा कर कांग्रेस एवं विपक्षी दलों ने अपने पाँवों पर खुद कुल्हाड़ी चला दी है। यदि कांग्रेस या विपक्षी दल इस समारोह में भाग लेते तो उन पर लगा श्रीराम-विरोध एवं हिन्दू-विरोध का तमगा नहीं लगता, भाजपा का जनाधार का विस्तार भी निश्चित ही कुछ कम होता। राजनीति तो ऐसे अवसरों को पकड़ लेने का ही खेल है।
परिवार एवं व्यक्तिवादी सोच कांग्रेस की विडम्बना एवं विसंगति है। वास्तव में कांग्रेस में वही होना है, जो राहुल गांधी चाहेंगे। यह स्वाभाविक है कि, न्याय यात्रा के माध्यम से राहुल गांधी कांग्रेस के पक्ष में चुनावी माहौल बनाने की कोशिश करेंगे। इसमें वह कितना कामयाब होते हैं, यह बहुत कुछ इस पर निर्भर करेगा कि, उनकी ओर से किन मुद्दों को उभारा जाता है और उन पर क्या कहा जाता है ? यह तो तय है कि, राहुल गांधी भाजपा और विशेष रूप से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को निशाने पर रखेंगे, लेकिन ऐसा करते हुए वह यदि जनता का ध्यान आकर्षित करने के साथ कोई नया विमर्श खड़ा नहीं कर पाते तो बात बनने की बजाय बिगड सकती है। राहुल गांधी की समस्या यह है कि, वह मोदी सरकार की आलोचना तो खूब करते हैं, लेकिन देश के समक्ष उपस्थित समस्याओं के समाधान का कोई प्रभावी तरीका नहीं बता पाते। राहुल गांधी देश को क्या जोड़ेंगे, जब गठबंधन ही एकजुट नहीं हो पा रहा है। कांग्रेस नेता मानें या न मानें, न्याय यात्रा की सफलता की सबसे बड़ी कसौटी विपक्ष की एकजुटता एवं चुनावी प्रदर्शन को ही माना जाएगा। इस लिहाज से न्याय यात्रा के साथ ही कांग्रेस को इंडिया गठबंधन के मोर्चे पर भी तेजी से अपने राजनीतिक कौशल को आगे बढ़ाना होगा। न्यूनतम साझा कार्यक्रम को अंतिम रूप देने का काम भी जितनी जल्दी निपटाया जाएगा, मतदाताओं को अपनी एकजुटता का यकीन दिलाने में उतनी आसानी होगी।

कांग्रेस भले ही न्याय यात्रा को उद्देश्य देश में फासीवादी ताकतों को रोकने, लोकतंत्र, संविधान को बचाने और भावी पीढ़ियों के जीवन और भविष्य के निर्माण के लिए बता रही है, पर उद्देश्य राजनीतिक ही लगता है। यात्रा लोगों के लिए न्याय की मांग, रोजगार की कमी, बढ़ती कीमतों, अमीर-गरीब के बीच बढ़ती खाई, सरकारी कंपनियों को बंद करने और बेचने के खिलाफ है, वहीं किसानों को उचित मूल्य दिलाने तो महिला पहलवानों और अन्य लोगों को न्याय दिलाने के लिए है। मणिपुर की हिंसा को लेकर प्रधानमंत्री के उदासीन व असंवेदनशील होने की बात उठाते हुए कांग्रेस भूल रही है कि, ये ऐसे मुद्दें हैं जिन पर मोदी सरकार ने ही सबसे ज्यादा ध्यान दिया है। लगता है राहुल गांधी मोदी विरोध एवं राष्ट्रीय ज्वलंत मुद्दों को उठाने के नाम पर देश के विरोध पर उतर जाते हैं। राहुल गांधी इस तरह का आचरण इसीलिए करते हैं, क्योंकि उन्हें शासन संचालन, राजनीतिक परिपक्वता के तौर-तरीकों का कोई अनुभव नहीं। पूरा विपक्ष यह नहीं समझ रहा है कि, सत्ताधारी दल के विरोध और देश के विरोध के बीच फर्क है। सत्ताधारी दल का विरोध करना स्वाभाविक है, लेकिन उस लकीर को नहीं पार करना चाहिए, जिससे वह देश का विरोध बन जाए। राहुल गांधी के लिए सरकार और राष्ट्र के विरोध के बीच अंतर समझना आवश्यक है और अपनी इस यात्रा में वे इस तरह का विवेक एवं समझदारी प्रदर्शित कर पाए तो इससे कुछ हासिल हो सकता है।