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हमसफ़र

शशि दीपक कपूर
मुंबई (महाराष्ट्र)
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मन की किताब पर एकांतवास पसरा हुआ था। देवनार के वृक्ष की जड़ें चारों ओर मन की ज़मीं पर फैलीं हुई थीं। दुश्वारियों के रेले को दुनिया की भीड़ में अकेला खींचने का बरबस खेलने मैं स्वयं को उस्ताद समझ रहा था। परिपूर्णता की तलाश में स्वप्नों की राह पर अकेला चला जा रहा था। चाह,पनाह,छाँह,थाह में घिरा। आह! मेरी यह कब परिणति बन गई,मुझे मालूम ही न हुआ। गुज़रते समय के अहसासों से बेख़बर दर्द के छाले प्यार के प्यालों व रंगों के मोड़ जद्दोजहद के साथ-साथ अपना रहमो-करम के उल्ट-फेर करना लाज़िमी भी था मेरी ज़िंदगी के लिए। कैसे कहा करती थी हाथों में हाथ पकड़ कर, ‘हाथ मेरा ऐसे ही थामे रखना, जब भी आए घनघोर घटा या काली बदरी छा जाए, तुम मुझे नींद से बे-रोकटोक जगा देना,कृष्णा बन मोहे राधा समझ प्रीत की वंशी धुन बजा देना…!’
कितना कौन सच्चा है ? हर राह पर बदलने का चलन पुराना है। हाथ पकड़ साथ चले हम भी कुछ दूर,लेकिन वादों की ही छड़ी से पिट-पिटा गए। जैसे कोई प्यास थी पूर्वजन्म की स्वाति की पपीहे से…नहीं! शायद चाँद की कुमुदिनी की प्रतीक्षा! …नहीं-नहीं! हाँ-सूरजमुखी को सूरज का साथ,बाद में फिर न वैसी रूह और न ही कोई नामो-निशान। आँखों में बेशुमार सपने,मगर राहें-मंज़िलें न तय थीं। अनजान एक-दूजे से आगुन्तक बन मिलते रहे। दोनों के मन में हज़ारों अरमान नव पुल्कित हो, माँझी की पतवार चलाने लगे। कितने सुंदर महकते-बहकते-चहकते दिन थे। हर लम्हा उमड़ता-उड़ेलता थाप देता हमारा प्यार…उफ़! कमबख़्त आज भी ज़िद्द किए हुए है। टूटे यह रिश्ते कच्चे घड़े हैं क्या ? सोच…में,डूबा तो धड़कन ने जवाब न दे पूछा, ‘किन रिश्तों में तुझे रखूँ कि तू मेरा ही दर्पण बन जाए ? मगर अब यादों की परछाई ही मेरी राह-ए-रहबर बन गई। गर्दिश की सूनी यादें चमकता कोहिनूर बन आँखों में बसती हैं। छोड़ कर मेरा साथ चटक धूप, ढलती शाम की भीड़ में तन्हा अकेले ही उसी बाग में खिले हुए है। गुलाब की भीनी सुगंध में पगडंडियों का सहारा लेकर चलती है। गीली मिट्टी में धँसे पाँव की छाप में उँगलियों के निशान जरा और गहरे हो जाते हैं। और तुम कहती हो, ‘नाज होगा उनको जब तेरी-मेरी कहानी रंग लाएगी और तुम तारीफ़ करते नहीं थकोगे।’
दरवाज़े की घंटी बजने पर तंद्रा टूटी। झट से दरवाजा खोल वाणी के हाथ में मुहर लगा सरकारी लिफ़ाफ़ा देख स्तब्ध रह गया। घंटों की यादें अब उसके चेहरे पर पड़ी उदासियाँ पड़ने लगीं। ये घर आज भी उन्हीं परदों,सोफे कवर,गुलदस्तों व दीवार पर लगी हम दोनों की तस्वीरों से वैसा ही सजा था, जैसा वह कुछ दिन पहले छोड़कर गई थी। वजह भी कुछ खास नहीं थी। मेरा काम के सिलसिले से प्रतिदिन देर से या कभी-कभी दो-तीन के बाद घर आना। कंप्यूटर इंजीनियरिंग के जिस विभाग में मैं कार्यरत था,वहाँ किसी न किसी कर्मचारी की मौजूदगी होना हर वक़्त बेहद ज़रूरी था। दूसरे कर्मचारी आए दिन छुट्टी लेते रहते और उनके स्थान पर मुझे कार्य करना पड़ता था। यही हम दोनों के बीच तनाव व झगड़े का कारण बन गया।
फिर वीणा ने मेरे हृदय पर अपनी मधुरम् ध्वनि से वार कर कहा, ‘इन पेपर्स पर आप सिग्नेचर कर दीजिए।’
मैंने उसके हाथ से लिफ़ाफ़ा लेते हुए सोफ़े की ओर बैठने का इशारा किया। वह चुप रही। अगले ही क्षण सोफ़े पर स्वयं को संभालते हुए बैठ गई।
लिफ़ाफ़े को गुलदस्ते के क़रीब रखते हुए पूछा, ‘ चाय-पानी वगैरह हो जाए,अकेली आई हो..पिताजी और प्रभात को साथ नहीं लाई हो…! ‘
उसने आदतन सिर हिला कर ‘न’ कह कर मेरे प्रश्न का उत्तर दिया।
मैं किचन में चाय बनाने के लिए जैसे ही उठा,वह चहक कर कहने लगी,… ‘रहने दीजिए, मैं अभी बना देती हूँ।’
मेरे बढ़ते कदम ठिठक जहाँ के तहाँ रूक गए। बिना किसी बहस के मैंने अनुमति दे दी। ऐसा पहले भी कई बार घटित हुआ था ख़ुशनुमा माहौल में, मगर आज इस में घुटन जुड़ी थी दोनों ओर से। दस साल के हमारे रिश्ते रुप जो बदल रहे थे।
वह झटपट चाय बना टेबल पर रखते हुए बोली, ‘ चाय बिल्कुल आपके स्वाद की बनाई है।’
‘हाँ,इतनी जल्दी तुम भी मुझे कहाँ भूल पाओगी।’ चाय का कप टेबल से उठाते मैंने कहा।
दोनों के बीच फैले सन्नाटे के बीच चाय की चुस्की की हल्की से हल्की आवाज भी गूँज जाती,क्योंकि हम दोनों चाय पीने के सलीक़े में अंग्रेज़ तो थे नहीं…! हाँ! वैसे भी बदलते परिवेश में अंग्रेज़ी आचार-व्यवहार को हर समस्या के स्थाई बनाने में अवश्य उतारने का सहयोग देने में हम भारतीय अपनी-अपनी ओर से करने में कोई कसर ही कहाँ छोड़ते हैं ?
चाय का कप टेबल पर रख वह कुछ कहने को चाह ही रही थी कि मैंने पूछा, ‘बिना किसी दवाब के पेपर बनाए हैं या सच में,तुम भी मुझसे दूर हो जाना चाहती हो।’
उसके उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना कहा, ‘रूको! उस दिन तुम्हारे लिए एक उपहार लाया था,जो दोनों की बहसबाजी में दे न सका था। तुम ले जाओ मेरी ओर से यह आख़िरी गिफ़्ट।’
मैं दूसरे कमरे से उपहार लौटा तो देखा,वह सोफ़े पर बिछे कवर को ठीक कर रही थी और गुलदस्ते के पास पड़े लिफ़ाफ़े को फाड़ चुकी थी ।
यह देख मेरे हाथ से उपहार गिर गया। मन का आसमान सूरज के प्रकाश से भर गया। अकेलेपन का सफ़र रंगबिरंगे हमसफ़र के धागों से बंध गया।
उसके हाथों में अपना हाथ दे कहा, ‘सच कहती थी तुम- ‘नाज होगा उनको जब तेरी-मेरी कहानी रंग लाएगी और तुम तारीफ़ करते नहीं थकोगे।‘

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