कुल पृष्ठ दर्शन : 270

You are currently viewing लोकतंत्र की चुनावी दीवाली

लोकतंत्र की चुनावी दीवाली

नवेन्दु उन्मेष
राँची (झारखंड)

*****************************************************

लोकतंत्र में मतदाता ही चुनाव में दीपावली मनाते हैं। मतदाता ही लोकतंत्र के दीए जलाते हैं और मतदाता ही बुझाते भी हैं। जिस दल या नेता का दीया मतदाता जलाते देते हैं,उसके घर पर दीपावली मनती है और जिसके बुझा देते हैं,उसके घर पर वीरानी छा जाती है।
चुनाव आयोग जैसे ही चुनाव की दीपावली जलाने की तारीख की घोषणा करता है,राजनीतिक दल और उनके नेता दीपावली का जश्न मनाने की तैयारी में जुट जाते हैं। इसके लिए प्रत्याशी चयन से लेकर प्रचार तक का काम शुरु कर दिया जाता है। इसके बाद शुरु होता है मतदाताओं को यह बतलाने का काम कि,किस दिन दीपावली मनाई जाएगी। घर-घर जाकर उम्मीदवार मतदाताओं को बताते हैं कि अमुक दिन लोकतंत्र की दीवाली मनाई जाएगी। उम्मीदवार यह भी बताते हैं कि दीपावली मनाते वक्त किस तरह की सावधानी बरतने की जरूरत है। वे यह भी बताते हैं कि किस दल के उम्मीदवार की क्या कथनी और करनी रही है। किस दल ने कार्य किया है और किस दल ने मतदाताओं के लिए कार्य नहीं किया है।
लोकतंत्र के दीए जलाने के लिए महंगाई,नाली, सड़क,चिकित्सा,बेरोजगारी,व्यवस्था,युवा,महिलाएं और लोगों की समस्याएं औजार का कार्य करती हैं। अगर ये न रहें तो लोकतंत्र के दीए जल ही नहीं सकते हैं। नेता याउम्मीदवार इन्हीं के भरोसे दीए जलाने वाले मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इसलिए नेता हमेशा इन टूल्स को जिंदा रखने का काम करते हैं। उम्मीदवार जब भी मतदाताओं के घर पर जाते हैं तो वे जानते हैं कि मतदाता उन्हें देखकर भड़केगा जरूर।vइसके लिए वे उन्हें आश्वासन की घुट्टी पिलाते हैं ताकि मतदाता उन्हें मत देकर उनका दीया जला सके। अगर मतदाता झांसे में आ जाता है तो वह दीए जला देता है,नहीं तो बुझा देता है। नेता कहते हैं ‘हमने चहुंमुख दीए जलाये,न जाने किस पथ से लक्ष्मी आ जाए। इसका मतलब है कि लोकतंत्र की दीपावली में नेता अपने चुनाव क्षेत्र में घूम-घूमकर मतदाताओं को रिझाते हैं यानी आश्वासन के दीए बांटते हैं ताकि वे मतदान के दिन बटन दबाकर उनके पक्ष में दीए जला सकें।
बटन दबते ही लोकतंत्र के धनतेरस और दीपावली का त्यौहार सम्पन्न हो जाता है। इस दिन मतदाता के साथ-साथ चुनाव आयोग और अन्य लोग धनकुबेर की जमकर पूजा करते हैं। इस प्रकार लोकतंत्र में मतदान के दिन त्यौहार संयुक्त रूप से मनाया जाता है।
अगर मतदाता न हों तो लोकतंत्र की दीपावली का कोई मतलब नहीं रह जाता है। लोकतंत्र की दीपावली मनाने के लिए मतदाताओं की जरूर वैसे ही पड़ती है,जैसे दीए को जलाने के लिए तेल की। दीपावली के दूसरे दिन न दीए की जरूरत पड़ती है और न मतदान के दूसरे दिन मतदाताओं की कोई अहमियम रह जाती है। दोनों ही भुला दिए जाते हैं। दीयों को लोग उठाकर फेंक देते हैं तो मतदाताओं की कोई की कोई सुध लेने वाला नहीं रहता। इसके बाद मतगणना के दिन छोटी दीपावली मनाई जाती है। इसके बाद मतदाताओं की कोई जरूरत नहीं पड़ती। इसका जश्न सिर्फ दल के कार्यकर्ता या नेता मनाते हैं।

परिचय–रांची(झारखंड) में निवासरत नवेन्दु उन्मेष पेशे से वरिष्ठ पत्रकार हैं। आप दैनिक अखबार में कार्यरत हैं।

Leave a Reply