कुल पृष्ठ दर्शन : 161

हर दिन को ‘हिंदी दिवस’ बनाना होगा

संदीप सृजन
उज्जैन (मध्यप्रदेश) 
***************************************************

हिंदी दिवस विशेष…..

सितम्बर की हवाओं में न जाने कौन-सी मादकता है कि हिंदी के दिवाने झूमने लगते हैं। देश के कोने-कोने से समाचार आने लगते है कि हिंदी को बढ़ावा मिले इसके लिए महानगर,शहर,गाँव,गली, मुहल्लों में संगोष्ठी-कवि गोष्ठी की जा रही है। लोगों को हिंदी के प्रति आकर्षित करने के लिए तरह-तरह के आयोजन किए जा रहे हैं। इस वर्ष ‘कोरोना’ के चलते सारे आंदोलन अन्तरजाल पर संचलित हो रहे हैं।
हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की मांग पर इस तरह की गतिविधियों का संचालन कुछ हिंदी प्रेमी करते हैं,लेकिन ८-१० हजार की जनसंख्या वाले किसी गाँव में होने वाले इन आयोजनों में भागीदारी करने वालों की संख्या देखें तो चौंकाने वाली होगी। मात्र १०-२० लोग ही इस तरह के आयोजनों में भागीदार दिखेंगे। नगर हो या महानगर, अधिकतम सौ-डेढ़ सौ लोग हिंदी के नाम पर किसी चर्चा में उपस्थित होते हैं,जो आंदोलन को अपने बलबूते पर चला रहे हैं,अपनी मांग रखते आ रहे हैं,लेकिन हिंदी को राजभाषा से राष्ट्रभाषा बनाने के तमाम प्रयास पिछले सात दशक से आज तक ज्यों के त्यों हैं। हिंदी के नाम पर संघर्ष के लिए तीसरी पीढ़ी तैयार हो गई,पर संघर्ष खत्म होने के आसार नहीं दिख रहे।
साहित्यिक आंदोलनों से परिवर्तन की पहल सदा से होती रही है,पर जब तक राजकीय इच्छा-शक्ति का साथ नहीं हो,तब तक हिंदी दिवस या हिंदी माह मना लेने भर से हिंदी को राष्ट्रभाषा हम नहीं बना सकते। नई शिक्षा नीति में मातृभाषा के लिए जो प्रावधान किए गए हैं,वो सुखद है। उम्मीद की किरण है,और एक मजबूत राह है हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए।
हिंदी को सम्मान दिलाने के लिए सरकार से अपनी मांग बनाए रखना तो ठीक है,पर हिंदी से पहले मातृभाषा याने लोकभाषाओं को जीवित रखने के लिए व्यवहारिक प्रयास हमें करने होंगे। लोगों को अपनी मातृभाषा के आरंभिक संस्कार घर से ही मिलते हैं,जिसमें परिवार की महिलाओं की अहम भूमिका होती है। जो भाषा घुट्टी में मिली हो,उसी भाषा को मातृभाषा कहा जाता है। मातृभाषा शब्द केवल माँ का पर्याय नहीं होता है,वह हमारे मूल परिवेश को इंगित करता है जिसमें व्यक्ति का बचपन बीता है।
हिन्दी की समृद्धि में लोकभाषाओं का, बोलियों का अहम योगदान रहा है। आज जो हिंदी का स्वरूप है,उसमें भारत की हर बोली, हर भाषा का अंश है,जो हिंदी को वैश्विक पटल पर बड़ी पहचान दिलाता है। हम रहन-सहन से कितने भी आधुनिक हों,पर आने वाली पीढ़ी की जड़ यदि मजबूत रखना चाहते हैं,संस्कार और सभ्यता को बचाना है तो स्थानीय व्यवहार-व्यापार और बोलचाल में लोकभाषा को महत्व देना होगा। बाहरी व्यवहार में जहाँ उस बोली को समझा नहीं जा सके,वहाँ हिंदी को महत्व दें। आज हिंदी पूरे भारत में पढ़ी और आसानी से समझी जा रही है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अब हिंदी का डंका बज रहा है। गूगल जैसा वैश्विक मंच हिंदी को पूरा महत्व देते हुए सारी जानकारी हिंदी में उपलब्ध करवा रहा है।
अंग्रेजी या अन्य विदेशी भाषा में दक्षता प्राप्त करना बुरा नहीं है। यह अतिरिक्त योग्यता है,जो हर किसी में होना चाहिए लेकिन अपनी बोली,भाषा और अपनी राष्ट्रभाषा को छोड़ कर नहीं। हिंदी को और स्थानीय भाषाओं को यदि सम्मान दिलाना है तो पाठ्य पुस्तक से निर्मित मानव से कुछ नहीं होगा। इसके लिए हमें अपने परिवेश अपनी विचारधारा और अपने कर्तव्यों में हिंदी का उपयोग करना होगा।
वे तमाम लोग जो हिंदी के लिए आंदोलन कर रहे हैं,उनको सबसे पहले अपने लिए नियम बनाना होंगे कि हम बच्चों से पढ़ाई के समय को छोड़कर हिंदी का अधिकतम उपयोग करेंगे। हमारा जोर हिंदी के शब्दों और अभिव्यक्तियों के प्रयोग पर रहेगा। हमारे बच्चे का दिमाग हिंदी में भी अन्य भाषाओं की अपेक्षा समान रूप से चलेगा,उनकी हिंदी कामचलाऊ या हिंग्लिश ना होकर स्तरीय होगी। केवल १४ सितम्बर को ही नहीं हर दिन को ‘हिंदी दिवस’ बनाना होगा,तभी हिंदी को राष्ट्रभाषा का सम्मान प्राप्त होगा।

Leave a Reply