कुल पृष्ठ दर्शन : 364

You are currently viewing प्रकृति संरक्षक व दिव्यज्ञान के प्रतीक श्री गणेश जी

प्रकृति संरक्षक व दिव्यज्ञान के प्रतीक श्री गणेश जी

डॉ.धारा बल्लभ पाण्डेय’आलोक’
अल्मोड़ा(उत्तराखंड)

**********************************************************

श्री गणेश चतुर्थी स्पर्धा विशेष…..

ईश्वर निराकार है। एक होकर भी उसने अनेक रूप धारण किए। स्वयं भगवान कहते हैं,-‘एकोऽहं बहुस्याम’,अर्थात में एक होकर भी अनेक रूप धारण करता हूँ। संसार में विभिन्न लीलाएं रचने,संसार को मार्गदर्शन देने,संसार में सभी प्रकार की मर्यादाएं व व्यवस्थाएं बनाने,भक्तों को विभिन्न रूपों में दर्शन देने आदि के लिए ईश्वर ने अनेक रूप धारण किए। निराकार ब्रह्म ने संसार को चलाने के लिए तथा तीन मुख्य कार्य-उद्भव,पालन एवं संहार के लिए अपने तीन रूप-ब्रह्मा,विष्णुु और महेश बनाए। तीनों ही रूप् अलौकिक शक्तियों के भण्डार हैं और कण-कण में व्याप्त हैं। उनकी सत्ता ‘अणोरऽणीयान महतोरमहीहान’ अर्थात् परमाणु से लेकर असीम संसार अथवा तीनों लोकों में व्याप्त है।

हिन्दू परम्पराओं में किसी भी प्रकार की पूजा-अर्चना एवं कार्यों के सम्पादन से पूर्व गणेश जी का पूजन किया जाता है। पौराणिक कथाओं एवं मान्यताओं के अनुसार गणेश जी सर्व-शक्तिमयी माँ पार्वती के पुत्र कहे जाते हैं,जिन्हें माँ पार्वती ने अपनी शक्ति से उत्पन्न किया था। स्नान करने हेतु जाने पर पार्वती ने द्वार पर पहरेदार के रूप में गणेश को नियुक्त किया था। तत्काल शिवजी के आ जाने पर गणेश ने आदेश का पालन करते हुए शिवजी को अन्दर जाने से रोका तो शिवजी द्वारा अपने त्रिशूल से गणेश का सिर काट दिया गया। पार्वती ने विस्मित होकर गणेश के शीशोच्छेन की बात सुनी,तो शिवजी से अविलम्ब गणेश को पुनर्जीवित करने की बात कही। तब शिवजी ने तुरन्त अपने गणों के माध्यम से,उसी समय पैदा हुए हाथी के नवजात शिशु का शीश मँगाकर गणेश के धड़ से जोड़ कर उन्हें पुनर्जीवित किया। तब से गणेश ‘गजानन’ कहलाए।
यद्यपि,ईश्वर की विराट सत्ता अपार और असीम है,किन्तु मानव द्वारा सीमित बुद्धि से चिन्तन करते हुए सीमित दायरे में धरती के इस प्रकृति जगत में ईश्वर की सत्ता का प्रतीकात्मक रूप में चित्रांकन किया गया है। शिव का रूप धरती का वह समाधिस्थ रूप है,जो संपूर्ण वायुमंडल तथा जीव जगत के कल्याणार्थ प्राण वायु के रूप में घट-घट में विद्यमान है। धरती पर विकृति स्वरूप विषैली गैसें शिव ने अपने कंठ में धारण की हैं। वायुमंडल के जहरीले अवयवों को अवशोषित करने वाले सर्प शिव के गले में माला रूप में विद्यमान है। हिमालय रूपी शीश से गंगा धारा बहती हैं तथा चन्द्रमा शिव की जटाओं में विद्यमान है। सुरम्य प्रकृति ही पार्वती के रूप में शिव की अर्धांगिनी है। अतः,प्रकृति रूपी पार्वती ने अपनी सुरक्षा व संरक्षण के लिए जन कल्याणार्थ मर्यादा व पर्यावरण संरक्षण रूपी गणेश की उत्पत्ति की। इसी प्रकार सम्पूर्ण जल व आत्मतत्व रूप ‘विष्णु’ तथा समस्त रचनात्मक शक्ति व बुद्धितत्व रूप ‘ब्रह्मा’ हैं।
यह प्रतीक ईश्वर और उसकी शक्ति की विराट स्वरूप सत्ता का एक अंश मात्र विश्लेषण है,जो केवल इस धरती के पर्यावरण और उसके संरक्षण से जुड़ा है। जैसा कि ईश्वर का स्वरूप इस विराट सृष्टि के स्थूल से स्थूल व सूक्ष्म से सूक्ष्मतम में विद्यमान बताया गया है। इस आधार पर प्रत्येक जीव के अन्दर जीवनदाता प्राणतत्त्वरूप व संहारकरूप ‘शिव’ हैं,पालनकर्त्ता आत्मतत्व रूप ‘विष्णु’ हैं,जन्मदाता बुद्धितत्व रूप ‘ब्रह्मा’ है तथा सृष्टि की रक्षा करने वाली चैतन्य शक्ति ‘देवी’ है,जो विभिन्न रूप रखकर हमारी रक्षा करती है और हमें विघ्नों के आने से पहले सावधान करती है। इस प्रकार ‘ओउ्म्’ में भी ‘अकार’ विष्णु हैं,‘उकार’ ब्रह्म है,‘मकार’ शिव है और ‘प्रणव’ स्वरूप ‘नाद ब्रह्म’ रूप शक्तिमयी देवी है।
विज्ञान इस बात को सिद्ध कर चुका है कि हमारा वातावरण,पर्यावरण व हमारा शरीर असंख्य जीवाणुओं से निर्मित है किन्तु इन जीवाणुओं को हानि पहुँचाने वाले व नष्ट करने वाले असंख्य विषाणु और रोगाणु भी हैं,जो जीवों एवं मानव समूह द्वारा प्रकृति के विपरीत आचरण करने से उत्पन्न प्रदूषित वातावरण के कारण पैदा होते हैं। इन सब पर दृष्टि रखने वाले व नियंत्रण करने वाले गणों के स्वामी गणपति गणेश जी हैं,जो हमेशा हमारे स्मरण करने पर विघ्नों का नाश कर अशुभ को दूर करते हैं तथा शुभ कार्य में सहायता प्रदान कर सफलता देते हैं।
प्राचीन परम्पराओं में हिंसक जन्तुओं के आक्रमण व संक्रामक रोगों के फैलने पर उसे देवी का प्रकोप माना जाता था और देवी की पूजा कर क्षमा याचना करके देवी की शान्ति की जाती थी। इसी प्रकार भूकम्प आने या अतिवृष्टि के कारण भयंकर आपदा आने पर शिव का कोप या ‘ताण्डव’ माना जाता था,जो मानव के अहंकार और प्रकृति से अनावश्यक छेड़-छाड़,अतिक्रमण व अस्वच्छ वातावरण बनने के कारण उत्पन्न होता था। इसी प्रकार विघ्नों का बढ़ना, अनायास विपत्तियाँ आना,अशुभ होना आदि गणेश का कोप माना जाता है। यद्यपि,ईश्वर का कोई भी स्वरूप अथवा ईश्वरीय शक्ति किसी का अनहित या किसी पर कोप नहीं करती,किन्तु उसके द्वारा बनाई गई मर्यादा या प्राकृतिक नियम के विपरीत कार्य करने पर स्वतः ही कष्ट अथवा अशुभ फल भोगना पड़ता है। ईश्वर के किसी भी रूप या तत्सम्बन्धित स्वरूप का ध्यान करने व पूजन करने से ईश्वर सहायता के लिए तत्पर फलदायी हो जाता है तथा विघ्नों को दूर कर देता है।
पौराणिक मान्यता है कि,धरती का चक्कर लगाने के बजाय गणेश जी ने अपने माता-पिता की परिक्रमा कर कार्तिकेय से पहले स्थान को प्राप्त किया और पूजा हेतु सर्व प्रथम गणेश पूजा की परम्परा प्रारम्भ हुई। यह दृष्टान्त भी यही प्रदर्षित करता है कि संपूर्ण सृष्टि और प्रकृति रूपी पर्यावरण (शिव-पार्वती) की केवल पूजा करने मात्र से श्रेष्ठ है,उसका संरक्षण और उसका संवर्धन। यही संरक्षण और संवर्धन हेतु किया जाने वाला प्रयास ही है ‘गणपति पूजन। ‘रूद्री अष्टाध्यायी’ के प्रथम अध्याय के प्रथम मंत्र में स्पष्ट हैं,-‘ऊँ गणानान्त्वा गणपतिं हवामहे। प्रियाणान्त्वा प्रियपतिं हवामहे। निधिनान्त्वा निधिपतिं हवामहे वसोमम् आहमजानि गर्भधम्म त्वमजासि गर्भधम्।’ (शुक्ल यजुर्वेद २३/१९) अर्थात्गणों के गणपति हम आपका आवाहन करते हैं,सदा दूसरों पर दया व प्रेम करने वालों के प्रियपति अर्थात् भक्त-वत्सल हम आपका आवाहन करते हैं तथा संसार के समस्त पदार्थों व सम्पदाओं (निधियों) के निधिपति हम आपका आवाहन करते हैं। आप हमारे हृदय में निवास करें। हे विघ्नेश्वर,आप ही गर्भ बीज द्वारा संसार को प्रकट करते हो और स्वयं भी प्रकट होते हो। अतः हमारी इच्छाओं की पूर्ति के लिए आप शक्ति प्रदान करें।`
इस प्रकार इस धरती पर सब जीवों के अधिपति गणेश जी हैं,तथा यह धरती समाधिस्थ शिव एवं समस्त प्रकृति सर्वशक्तिस्वरूपा माँ पार्वती (दुर्गा) है। यह सब स्वरूप मिलकर हमारा पर्यावरण है और इस पर्यावरण का संरक्षण ही लोक कल्याण हेतु पूजा अर्चना और हमारे कर्त्तव्य है।
श्रीगणेश जी को हम विभिन्न नामों से उच्चारित करते हैं। यथा-गजानन,गणपति, उमापुत्र,सिद्धिकर्ता,विघ्नहर्ता,विघ्नेश्वर,मंगलमूर्ति,गणाधिपति आदि। श्रीगणेश जी का जन्म भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को माना जाता है,इसे ‘गणेश चतुर्थी’ कहा जाता हैं।

श्रीगणेशजी का स्वरूप-

सर्वप्रथम गणेश जी के सिर के अलग-अलग भागों का वर्णन करते हैं-गणेश जी की लंबी नाक मान-सम्मान व प्रतिष्ठा की प्रतीक होती है। कहा जाता है,-‘लंबी नाक ऊँची नाक’ या अपने को बड़ा समझने पर अन्य लोगों द्वारा व्यंग्य के रूप में कहा जाता है,-‘‘बड़ी नाक लगा रहा है।’’ अर्थात् अपने-आपको बहुत इज्जतदार मानता है।
श्रीगणेश जी को लम्बी नाक हाथी की सूंड के रूप में दी गई है,जिसका आशय एक ओर ईश्वर को सर्वशक्तिमान,बहुत अधिक प्रतिष्ठित,गुणों के सागर व आदर्श का प्रतीक माना गया है। दूसरी ओर मानव के लिए प्रेरणा है कि हमें अच्छे कर्म करके लम्बी नाक वाला अर्थात् मान-सम्मान व प्रतिष्ठा वाला बनने का प्रयास करना चाहिए,ताकि समाज में प्रतिष्ठा मिल सके।
श्री गणेश जी के बहुत बड़े कान हाथी के कान के रूप में हैं। कान बड़े होना सोच विचार कर गम्भीरता से निर्णय लेने के प्रतीक होते हैं। व्यवहार में कहा जाता हैं कि-‘‘अमुक व्यक्ति कानों का कच्चा है।’’ अर्थात् वह लोगों से सुनी बातों पर या काना-फूसी करने वालों की बातों पर विश्वास कर बिना सोचे-समझे गलत निर्णय ले लेता है। कानों का कच्चा होना या कानों का छोटा होना उतावले पन में निर्णय लेने का प्रतीक होता है। अतः गणेश जी के लम्बे बड़े कान ईश्वर के गम्भीर स्वभाव व गहन विचार कर सही निर्णय लेने के प्रतीक तथा अति दीर्घ उम्र के भी प्रतीक हैं। मानव के लिए शिक्षा है कि सुनी हुई बातों पर बिना सोचे-समझे निर्णय नहीं लेना चाहिए। यदि बात महत्वपूर्ण हो तो उसकी प्रमाणिकता जाँचकर सोच-विचार कर निर्णय किया जाए।
श्री गणेश की आँखें हाथी की आँखें होती हैं। हाथी की आँखों की विशेषता होती है कि वह सामने की वस्तु या प्राणी को बहुत बड़ा देखता है और आगे बढ़ने के बजाय या तो भाग जाता है या क्रोध में आकर उससे भिड़ जाता है। इसलिए महावत हाथी की आँखों में कुछ रसायन छलका देता है,जिससे हाथी को आगे कुछ भी नहीं दिखाई देता है और वह एक ही चाल में चलते रहता है। ईश्वर का स्वरूप भी ऐसा ही है। वह हमेशा बालक के समान निष्पक्ष,निःस्वार्थ और शान्त भाव से रहता है,हमेशा सबको अपने से बड़ा समझता है। जो जिस भाव से पूजता है,उसे उसी भाव से सहायता पहुँचाने पहुँच जाता है। गीता में कहा गया है,-‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तास्तथां भजाम्यहम्।’ इस प्रकार मनुष्य के लिए भी शिक्षा है कि अपने सामने आने वाले को तुच्छ मत समझो बल्कि उसे बड़ा ही समझो,चाहे वह अच्छे या बुरे किसी भी भाव से आया हो। उससे हमेशा अपने को कम समझ कर बराबरी करने या उस पर विजय प्राप्त कर श्रेष्ठ बनने का प्रयास करना चाहिए।
श्री गणेश जी का सिर भी हाथी का सिर होता है। हाथी का सिर बड़ा नाजुक होता है। कहा जाता हैं कि हाथी के सिर में अंडकोश होता है,इसीलिए महावत हाथी को वश में करने के लिए उसके सिर पर अंकुश से वार करता है, जो शाम तक ठीक हो जाता है।
ईश्वर का भी स्वरूप ऐसा है। ईश्वर को कोई पूजे या न पूजे या उसके बारे में किसी भी प्रकार की अनुचित बहस करे,वह किसी से भी भिड़कर कोई प्रतिक्रिया या तुरंत दंड देने की बात नहीं सोचता। हाथी की तरह मस्त गम्भीर मुद्रा से अपने मर्यादित निर्णय पर अडिग रहता है। इस तरह मनुष्य के लिए शिक्षा है कि उसे कभी भी किसी के साथ विद्रोह या द्वेष की भावना से भिड़ना नहीं चाहिए। अपना ज्ञान बड़ा नहीं समझना चाहिए।
श्री गणेश के २ दाँत दिखाने के होते हैं किन्तु उनमें से बायां दाँत टूटा होता है। दिखावे के दायां दाँत का आशय है कि सामने वाले व्यक्ति को,भटकने की स्थिति में थोड़ा भय दिखाकर सही मार्ग पर लाने का प्रयास करना है,किंतु जो बिल्कुल भ्रष्ट हों,निर्दयी हों, बहुत बड़े अपराधी हों,उन पर दिखावे का भय कुछ असर नहीं डालता है।
ईश्वर का स्वरूप भी ऐसा ही है,जो अच्छे आदमी को भ्रम की स्थिति में या कुमार्ग पर चलने की स्थिति में हों,उसे सही मार्ग पर लाने के लिए किसी न किसी रूप में प्रकट हो जाता है। इसमें मानव के लिए भी शिक्षा है कि कभी भी अपना ज्ञान,उपदेश या दिखावे का भय उसी को दिखाना चाहिए जिससे उम्मीद हो कि यह सही मार्ग पर आ जाएगा किन्तु जो दुष्ट और निरंकुश होते हैं,उनके लिए कोई भी ज्ञान,उपदेश,सुझाव या भय दिखाना अनुपयुक्त होता है। उनके लिए दंड की परम्परा ही उचित है। अतः दाँया दाँत दक्षिण मार्गी व्यक्तियों को दिखाने के लिए भय का प्रतीक है तथा बाँया टूटा हुआ दाँत बाम मार्गी दुष्टों को ऐसा ज्ञान या भय दिखाना अपने लिए प्रतिघात का कारण बन सकता है। अतः उनको उपदेश न देकर सतर्क रहना ही उचित है।
श्री गणेश जी को भारी भरकम पेट और वाहन चूहे का दिया गया है। पेट ही होता है जो हमारे हर तरह के भोजन को पचाकर शरीर को पुष्ट करता है। इसी प्रकार ईश्वर भी मानव द्वारा दी गई श्रद्धा,पूजा,तिरस्कार,मान- अपमान आदि को पचाकर उसे समाज के लिए उपयोगी ही बनाता है कभी वमन करने की स्थिति नहीं आती है।
मनुष्य के लिए शिक्षा है कि कभी भी अपनी पाचन क्रिया अर्थात् सहन करने की क्षमता को कमजोर मत होने दो। अपनी निन्दा, प्रशंसा,राग-द्वेष,मान-अपमान आदि को अपने अन्दर पचा डालो उसका वमन के रूप में प्रतिकार मत करो। पेट बड़ा अर्थात् सहनशीलता गणेश जी जैसी होनी चाहिए।
इसी प्रकार चूहा सब कुछ कुतरने की प्रवृत्ति रखता है। सबको हानि पहुंचाने का काम करता है। ईश्वर का स्वरूप है कि वह अपने अन्दर इतने गुणों व योग्यताओं को बनाए रखता है कि चूहे की तरह समाज को हानि पहुँचाने वाले तुच्छ व्यक्ति अपने भारी-भरकम शरीर रूप योग्यताओं व गुणों से स्वतः ही दबकर रह जाते हैं और हार मान लेते हैं। अर्थात् वाहन बनने को मजबूर हो जाते हैं। मनुष्य के लिए शिक्षा है कि अपने अन्दर बड़े पेट की तरह इतनी योग्यताएं और ज्ञान भर लो कि तुम्हें हानि पहुँचाने वाले लोग खुद ही तुमसे दब कर हार मानकर तुम्हें सहयोग करने लगेंगे।
श्रीगणेश जी को सरल स्वभाव के कारण ‘गोबर गणेश’ भी कहते हैं किंतु उनके स्वभाव के विपरीत चलने पर विघ्न आने में भी देर नहीं लगती है। इस प्रकार श्रीगणेश जी का स्वरूप,उनका चित्रांकन ईश्वर के स्वरूप को प्रकट करता है तथा हम मानवों के लिए एक प्रेरणा भी देता है कि हम तदनुरूप ही अपने जीवन को आगे बढ़ाएं। ‘गणपतिबप्पा मोरिया।’

परिचय–डॉ.धाराबल्लभ पांडेय का साहित्यिक उपनाम-आलोक है। १५ फरवरी १९५८ को जिला अल्मोड़ा के ग्राम करगीना में आप जन्में हैं। वर्तमान में मकड़ी(अल्मोड़ा, उत्तराखंड) आपका बसेरा है। हिंदी एवं संस्कृत सहित सामान्य ज्ञान पंजाबी और उर्दू भाषा का भी रखने वाले डॉ.पांडेय की शिक्षा- स्नातकोत्तर(हिंदी एवं संस्कृत) तथा पीएचडी (संस्कृत)है। कार्यक्षेत्र-अध्यापन (सरकारी सेवा)है। सामाजिक गतिविधि में आप विभिन्न राष्ट्रीय एवं सामाजिक कार्यों में सक्रियता से बराबर सहयोग करते हैं। लेखन विधा-गीत, लेख,निबंध,उपन्यास,कहानी एवं कविता है। प्रकाशन में आपके नाम-पावन राखी,ज्योति निबंधमाला,सुमधुर गीत मंजरी,बाल गीत माधुरी,विनसर चालीसा,अंत्याक्षरी दिग्दर्शन और अभिनव चिंतन सहित बांग्ला व शक संवत् का संयुक्त कैलेंडर है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में बहुत से लेख और निबंध सहित आपकी विविध रचनाएं प्रकाशित हैं,तो आकाशवाणी अल्मोड़ा से भी विभिन्न व्याख्यान एवं काव्य पाठ प्रसारित हैं। शिक्षा के क्षेत्र में विभिन्न पुरस्कार व सम्मान,दक्षता पुरस्कार,राधाकृष्णन पुरस्कार,राज्य उत्कृष्ट शिक्षक पुरस्कार और प्रतिभा सम्मान आपने हासिल किया है। ब्लॉग पर भी अपनी बात लिखते हैं। आपकी विशेष उपलब्धि-हिंदी साहित्य के क्षेत्र में विभिन्न सम्मान एवं प्रशस्ति-पत्र है। ‘आलोक’ की लेखनी का उद्देश्य-हिंदी भाषा विकास एवं सामाजिक व्यवस्थाओं पर समीक्षात्मक अभिव्यक्ति करना है। पसंदीदा हिंदी लेखक-सुमित्रानंदन पंत,महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’,कबीर दास आदि हैं। प्रेरणापुंज-माता-पिता,गुरुदेव एवं संपर्क में आए विभिन्न महापुरुष हैं। विशेषज्ञता-हिंदी लेखन, देशप्रेम के लयात्मक गीत है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का विकास ही हमारे देश का गौरव है,जो हिंदी भाषा के विकास से ही संभव है।”

Leave a Reply