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मेला और तुलसी का पौधा

रोहित मिश्र
प्रयागराज(उत्तरप्रदेश)
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बात उन दिनों की है जब मेरी उम्र लगभग १२-१४ वर्ष रही होगी। हमारे प्रयागराज में हर साल माघ मेला लगता है। हम संयुक्त परिवार में ही रहते थे। मेरी चचेरे भाई से बहुत पटती थी। अब भी पटती है। हम दोनों बाहर साथ साथ ही आते-जाते थे। जनवरी-फरवरी में हमारे प्रयागराज में माघ मेला लगा था। हमने माघ मेला घूमने का निर्णय किया। माघ मेला स्थल हमारे घर से एक से डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर था। हम दोनों सुबह खाने-पीने के बाद मेला घूमने निकल दिए। माघ मेले में पुण्य कमाने के लिए कर्ई लोग भंडारा,प्रसाद आदि का वितरण करते रहते हैं। कंपनियाँ भी अपने सामान के प्रचार के लिए उनके छोटे-छोटे उत्पाद वितरित करती है।
हमारा माघ मेले में उद्देश्य रहता था मुफ्त के सामान को ढूँढना…। सरकार भी माघ मेले में मुफ्त की स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराती है।
हम मेला घूम ही रहे थे कि हमारी नजर सरकारी स्वास्थ्य सेवा पर पड़ गई। दोनों चुपचाप पर्ची लिखाने वाली कतार में खड़े हो गए। फिर अपने अपने नाम की पर्ची लेकर चिकित्सक के पास गए। वहाँ ऐसे कुछ तकलीफ जैसे..- डॉक्टर साहब पेट दर्द होता रहता है,छींक आती है, आदि… आदि…। डॉक्टर साहब भी समझ गए कि दोनों बच्चे ऐसे ही यहाँ चले आए हैं…। उन्होने ऐसे ही छुट-मुट गोलियां दे दी…। वहीं पर मरीजों को पौधे भी वितरित हो रहे थे,यानि स्वेच्छा से एक पौधा कोई भी ले जा सकता था। हमारी नजर पहले ही मुफ्त की वस्तुओं पर थी,तो हमने वहाँ रखे तुलसी के एक-एक पौधे उठा लिए…। तब वहाँ बैठे स्वास्थ्यकर्मियों ने कहा…अरे तुम दोनों तो भाई ही हो,तो एक ही ले जाओ…। मैंने तपाक से अपने चचेरे भाई की तरफ इशारा करके बोला…-इसके पापा का नाम चन्द्र देव मिश्रा है और मेरे पापा का नाम इन्द्र देव मिश्रा है…। वहाँ मौजूद सभी लोग समझ गए कि दोनों चचेरे भाई हैं,और सभी मुस्कुराने लगे।
हम माहौल को भाँपते हुए वहाँ से निकल लिए…। दोनों मन ही मन खुश थे,क्योंकि हमारे घर की महिलाएं तुलसी की पूजा करती थी। हमें उस समय ऐसा लगा,जैसे हमने बहुत कीमती वस्तु हासिल कर ली हो।

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