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शिल्प की दृष्टि से सीमाओं में बंधी होती है ग़ज़ल-डॉ. आरती

पटना (बिहार)।

ग़ज़ल युवाओं में सर्वाधिक लोकप्रिय विधा है। शिल्प की दृष्टि से बहर, क़ाफ़िया, रदीफ़ की सीमाओं में बंधी होती है। ग़ज़ल में मतला, हुस्ने मतला, अशआर और मक़्ता महत्वपूर्ण अंग होते हैं। ग़ज़ल कहने के लिए व्याकरण जानने और उसके अभ्यास की ज़रूरत होती है।
यह बात भारतीय युवा साहित्यकार परिषद के तत्वाधान में अवसर साहित्य पाठशाला में मुख्य अतिथि डॉ. आरती कुमारी ने उदाहरण देते हुए कही। पाठशाला में आपने कहा कि, शुरू की पहली २ पंक्तियों (मिसरों) को मतला कहा जाता है, जिसमें दोनों मिसरों में रदीफ़ का दोहराव होता है। उन्होंने बताया कि संक्षिप्तता, गागर में सागर भरने की क्षमता, विचारों की सघनता और विषय वस्तु की स्वतंत्रता ही इसकी विशेषता है। उन्होंने मात्रा गणना पर भी प्रकाश डाला। डॉ. आरती ने बताया कि ग़ज़ल कहने के लिए अभ्यास सबसे ज़रूरी चीज़ है, मगर सिर्फ़ गुनगुनाकर ही बहर की कसौटी पर ग़ज़ल को नहीं रखा जा सकता है। इसलिए, ग़ज़ल कहने के लिए व्याकरण जानने और उसके अभ्यास की ज़रूरत होती है। उन्होंने अपनी ग़ज़ल “आप हमको गर मिले तो हर खुशी बढ़ जाएगी। आपके आने से थोड़ी ज़िंदगी बढ़ जाएगी॥” सुनाई।
परिषद की सचिव ऋचा वर्मा ने बताया कि, मध्यप्रदेश से जुड़े शायर सुभाष पाठक ‘ज़िया’ ने प्रचलित बहरों के उदाहरण के साथ कई शब्दों पर लघु और गुरु मात्राओं का अभ्यास कराया। उन्होंने कुछ प्रचलित बहरें जो आज अत्यधिक इस्तेमाल की जा रही हैं, को बताया।
पाठशाला का संचालन करते हुए संयोजक सिद्धेश्वर ने कहा कि, ग़ज़ल आज उर्दू मुशायरों से निकलकर हिंदी कवि सम्मेलनों में छा गई है, और हिंदी कवियों के लिए भी काव्य की एक प्रमुख विधा बन गई है। बहुत सारे ऐसे समकालीन कवि हैं, जिन्होंने अपनी पहचान ग़ज़ल के माध्यम से ही बनाई है। ग़ज़ल को हिंदी में प्रतिष्ठित करने वाले कवि दुष्यंत कुमार और फिर शेरजंग गर्ग, रामदरश मिश्र, कुंवर बेचैन जैसे कवियों से लेकर आज कविता के मैदान में सैकड़ों नए-पुराने ऐसे कवि हैं, जिन्होंने सिर्फ और सिर्फ ग़ज़ल के माध्यम से अपनी अलग और स्पष्ट पहचान बना रखी है।
इनके अतिरिक्त पुष्प रंजन, गार्गी रॉय, राज प्रिया रानी, अपूर्व कुमार, मंजू गुप्ता, इंदू उपाध्याय आदि ने भी चर्चा में भाग लिया।

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