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हिंदी जगत के उद्भट चिंतक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी

डॉ.अरविन्द जैन
भोपाल(मध्यप्रदेश)
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जन्म जयंती-१५ मई विशेष…

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी (१८६४-१९३८) हिन्दी के महान साहित्यकार, पत्रकार एवं युगप्रवर्तक थे। उन्होंने हिंदी साहित्य की अविस्मरणीय सेवा की और अपने युग की साहित्यिक और सांस्कृतिक चेतना को दिशा एवं दृष्टि प्रदान की। उनके इस अतुलनीय योगदान के कारण आधुनिक हिंदी साहित्य का दूसरा युग ‘द्विवेदी युग’ (१९००-१९२०) के नाम से जाना जाता है। उन्होंने १७ वर्ष तक हिन्दी की प्रसिद्ध पत्रिका ‘सरस्वती’ का सम्पादन किया। हिन्दी नवजागरण में उनकी महान भूमिका रही तो भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन को गति व दिशा देने में भी उनका उल्लेखनीय योगदान रहा।

महावीर प्रसाद द्विवेदी का जन्म उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले के दौलतपुर गाँव में १५ मई १८६४ को हुआ था। धनाभाव के कारण इनकी शिक्षा का क्रम अधिक समय तक न चल सका और इन्हें जीआईपी रेलवे में नौकरी मिल गई। स्वाभिमानी स्वभाव के कारण १९०४ में झाँसी में रेल विभाग की २०० रुपए मासिक वेतन की नौकरी से त्याग-पत्र दे दिया। आप अध्ययन में भी जुटे रहे और हिंदी के अतिरिक्त मराठी, गुजराती, संस्कृत आदि का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया।
सन् १९०३ में द्विवेदी जी ने ‘सरस्वती’ मासिक पत्रिका के सम्पादन का कार्यभार सँभाला और कुशलतापूर्वक निभाया। २०० की नौकरी को त्याग मात्र २० रुपए प्रतिमास पर सम्पादक के रूप में कार्य करना उनके त्याग का परिचायक है। अत्यधिक रुग्ण होने से २१ दिसम्बर (१९३८) को रायबरेली में इनका स्वर्गवास हो गया।
महावीरप्रसाद द्विवेदी हिन्दी के पहले लेखक थे, जिन्होंने केवल अपनी जातिय परंपरा का गहन अध्ययन ही नहीं किया था, बल्कि उसे आलोचकीय दृष्टि से भी देखा था। उन्होंने कविता, कहानी, आलोचना, पुस्तक समीक्षा, अनुवाद आदि विधाओं के साथ अर्थशास्त्र, विज्ञान, इतिहास आदि अन्य अनुशासनों में न सिर्फ विपुल मात्रा में लिखा, बल्कि अन्य लेखकों को भी इस दिशा में प्रेरित किया। द्विवेदी जी केवल कविता, कहानी, आलोचना आदि को ही साहित्य मानने के विरुद्ध थे। वे अर्थशास्त्र, इतिहास, पुरातत्व, समाजशास्त्र आदि विषयों को भी साहित्य के ही दायरे में रखते थे। वस्तुतः, स्वाधीनता, स्वदेशी और स्वावलंबन को गति देने वाले ज्ञान-विज्ञान के तमाम आधारों को वे आंदोलित करना चाहते थे। इस कार्य के लिए उन्होंने सिर्फ उपदेश नहीं दिया, बल्कि मनसा, वाचा, कर्मणा स्वयं लिखकर दिखाया।
उन्होंने वेदों से लेकर पंडितराज जगन्नाथ तक के संस्कृत-साहित्य की निरंतर प्रवाहमान धारा का अवगाहन किया था। उन्होंने श्रीहर्ष के संस्कृत महाकाव्य ‘नैषधीयचरितम्’ पर अपनी पहली आलोचना पुस्तक ‘नैषधचरित चर्चा ‘ नाम से लिखी (१८९९ ), जो संस्कृत-साहित्य पर हिन्दी में पहली आलोचना-पुस्तक भी है। फिर उन्होंने संस्कृत के कुछ महाकाव्यों के हिन्दी में औपन्यासिक रूपांतर भी किए, जिनमें कालिदास कृत रघुवंश, कुमारसंभव प्रमुख हैं। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने संस्कृत और अंग्रेजी से क्रमश: ब्रजभाषा और हिन्दी में अनुवाद-कार्य के अलावा प्रभूत समालोचनात्मक लेखन किया। उनकी मौलिक पुस्तकों में नाट्यशास्त्र (१९०४), विक्रमांकदेव चरितचर्या(१९०७), हिन्दी भाषा की उत्पत्ति (१९०७) और संपत्तिशास्त्र (१९०७ ई.) प्रमुख हैं।
द्विवेदी जी ने विस्तृत रूप में साहित्य रचना की। इनके छोटे-बड़े ग्रंथों की संख्या कुल मिलाकर ८१ है। पद्य के मौलिक-ग्रंथों में काव्य-मंजूषा, कविता कलाप आदि प्रमुख है तो गंगालहरी, ॠतु तरंगिणी आदि इनके अनुदित पद्य-ग्रंथ हैं। ऐसे ही गद्य के मौलिक ग्रंथों में तरुणोपदेश, हिंदी कालिदास की समालोचना, कालीदास की निरंकुशता आदि उल्लेखनीय हैं।
हिंदी भाषा के प्रसार, पाठकों की रूचि-परिष्कार और ज्ञानवर्धन के लिए द्विवेदी जी ने विविध विषयों पर अनेक निबंध लिखे।
द्विवेदी जी सरल और सुबोध भाषा लिखने के पक्षपाती थे। उन्होंने स्वयं सरल और प्रचलित भाषा को अपनाया। उनकी भाषा में न तो संस्कृत के तत्सम शब्दों की अधिकता है, न उर्दू-फारसी के अप्रचलित शब्दों की भरमार है। वे गृह के स्थान पर घर और उच्च के स्थान पर ऊँचा लिखना अधिक पसंद करते थे। द्विवेदी जी ने अपनी भाषा में उर्दू और फारसी के शब्दों का नि:संकोच प्रयोग किया, किंतु उन्होंने केवल प्रचलित शब्दों को ही अपनाया । द्विवेदी जी की भाषा शुद्ध परिष्कृत और व्याकरण के नियमों से बंधी हुई है। उनका वाक्य-विन्यास हिंदी की प्रकृति के अनुरूप है, कहीं भी वह अंग्रेज़ी या उर्दू के ढंग का नहीं।
द्विवेदी जी ने नए-नए विषयों पर लेखनी चलाई। विषय नए होने और ऐसे विषयों पर लिखते समय द्विवेदी जी ने एक शिक्षक की भांति एक बात को कई बार दुहराया है, ताकि पाठकों की समझ में वह भली प्रकार आ जाए।
हिंदी साहित्य की सेवा करने वालों में द्विवेदी जी का विशेष स्थान है। द्विवेदी जी की अनुपम साहित्य-सेवाओं के कारण ही उनके समय को द्विवेदी युग के नाम से पुकारा जाता है। द्विवेदी जी ने भाषा के अशुद्ध रूप को देखा और शुध्द करने का संकल्प किया। उन्होंने लेखकों को शुध्द तथा परिमार्जित भाषा लिखने की प्रेरणा दी।
द्विवेदी जी ने खड़ी बोली की कविता के लिए विकास का कार्य किया। उन्होंने स्वयं भी खड़ी बोली में कविताएं लिखीं और अन्य कवियों को भी उत्साहित किया। मैथिली शरण गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्याय जैसे खड़ी बोली के श्रेष्ठ कवि उन्हीं के प्रयत्नों के परिणाम हैं।

परिचय- डॉ.अरविन्द जैन का जन्म १४ मार्च १९५१ को हुआ है। वर्तमान में आप होशंगाबाद रोड भोपाल में रहते हैं। मध्यप्रदेश के राजाओं वाले शहर भोपाल निवासी डॉ.जैन की शिक्षा बीएएमएस(स्वर्ण पदक ) एम.ए.एम.एस. है। कार्य क्षेत्र में आप सेवानिवृत्त उप संचालक(आयुर्वेद)हैं। सामाजिक गतिविधियों में शाकाहार परिषद् के वर्ष १९८५ से संस्थापक हैं। साथ ही एनआईएमए और हिंदी भवन,हिंदी साहित्य अकादमी सहित कई संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आपकी लेखन विधा-उपन्यास, स्तम्भ तथा लेख की है। प्रकाशन में आपके खाते में-आनंद,कही अनकही,चार इमली,चौपाल तथा चतुर्भुज आदि हैं। बतौर पुरस्कार लगभग १२ सम्मान-तुलसी साहित्य अकादमी,श्री अम्बिकाप्रसाद दिव्य,वरिष्ठ साहित्कार,उत्कृष्ट चिकित्सक,पूर्वोत्तर साहित्य अकादमी आदि हैं। आपके लेखन का उद्देश्य-अपनी अभिव्यक्ति द्वारा सामाजिक चेतना लाना और आत्म संतुष्टि है।

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