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मातृभाषाओं को रोज़गार से जोड़ने वाले पहले वैज्ञानिक

डॉ. अमरनाथ
कलकत्ता (पश्चिम बंगाल)
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हिन्दी योद्धा:दौलत सिंह कोठारी(४ फरवरी पुण्यतिथि विशेष)…

आजादी के बाद जब १९५० में संघ लोक सेवा आयोग की पहली बार परीक्षा हुई तो उसमें ३६४७ अभ्यर्थी शामिल हुए थे,जिनमें से २४० उत्तीर्ण हुए। १९७० में ११७१० बैठे थे और १९७९ में यह संख्या बढ़कर १ लाख से ऊपर हो गई। इस वर्ष परीक्षा में कुल १००७४२ अभ्यर्थी शामिल हुए, जिनमें से ७०३ उत्तीर्ण हुए। परीक्षा में शामिल होने वाले अभ्यर्थियों की संख्या इस वर्ष बढ़कर लगभग दस गुनी हो गई। कारण यह था कि इसी वर्ष कोठारी आयोग की सिफारिशें लागू हुई थीं। इन सिफारिशों में अभ्यर्थियों की उम्र सीमा तो बढ़ाई ही गई थी, परीक्षार्थियों को अंग्रेजी सहित संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाओं में लिखने की छूट भी मिल गई थी। परिणाम यह हुआ कि देश के दूर-दराज क्षेत्रों के पिछड़े और गरीब किन्तु प्रतिभाशाली अभ्यर्थियों को भी इस सर्वाधिक प्रतिष्ठित परीक्षा में शामिल होने का पहली बार अवसर नसीब हुआ था। अपनी भाषाओं में उत्तर लिखने की छूट के कारण सदियों से वंचित दलितों और शोषितों के भीतर आत्मविश्वास तो पैदा हुआ ही, उनके भीतर अपनी भाषाओं के प्रति प्रेम और निष्ठा का भी विकास हुआ। इसके पहले तो आईसीएस करने के लिए अभ्यर्थियों को इंग्लैंड जाना पड़ता था और परीक्षा का माध्यम सिर्फ अंग्रेजी था।
भारत सरकार ने उच्च प्रशासनिक सेवाओं के लिए आयोजित सिविल सेवा परीक्षा की समीक्षा के लिए सन् १९७४ में प्रो. डी.एस कोठारी की अध्यक्षता में एक समिति बनाई। इसने १९७६ में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी और उसी के आधार पर १९७९ में भारत सरकार के उच्च पदों जैसे आईएएस, आईपीएस और २० दूसरे विभागों के लिए एक सामान्य परीक्षा का आयोजन आरंभ हुआ। इसमें सबसे क्रान्तिकारी सुझाव अंग्रेजी सहित भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाओं के माध्यम से परीक्षा देने का विकल्प था। देशभर में परीक्षा केन्द्र भी बढ़ाए गए,जिसके कारण ग्रामीण क्षेत्रों और कस्बों में रहने वाले पिछड़े और वंचित अभ्यर्थी भी इस परीक्षा में शामिल हो सकें। बाद में दिन-प्रतिदिन हिन्दी सहित दूसरी भारतीय भाषाओं के माध्यम वाले अभ्यर्थी बढ़ते गए और ग्रामीण क्षेत्र के प्रतिभाशाली अभ्यर्थी भी इस प्रतिष्ठित सेवा में आने लगे। हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा के क्षेत्र में यह ऐतिहासिक घटना थी,जिसका व्यापक और दूरगामी प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था।
कोठारी आयोग ने सुझाव दिया कि,-‘हम पूरे विश्वास से यह कहना चाहते हैं जो अभ्यर्थी अखिल भारतीय सेवाओं की नौकरी में आना चाहते हैं,उन्हें आठवीं अनुसूची में उल्लिखित भाषाओं का ज्ञान होना अनिवार्य है। जिन्हें ये भाषाएँ नहीं आतीं वे सरकारी सेवाओं के लिए कत्तई उपयुक्त नहीं हैं। वास्तव में एक सही व्यक्तित्व के विकास के लिए यह जरूरी है कि हमारे नौजवानों को हमारी भाषाओं और उसके साहित्य का ज्ञान हो। इसलिए हमारी जोरदार सिफारिश है कि पहले और दूसरे चरण दोनों पर ही आठवीं अनुसूची में उल्लिखित भाषाओं की परीक्षा अनिवार्य हो।’
सिविल सेवाओं में भारतीय भाषाओं की शुरुआत का असर था कि बाजार में विभिन्न विषयों में हिन्‍दी माध्यम की किताबें उपलब्ध होने लगीं। महत्वपूर्ण पुस्तकों के हिन्‍दी में अनुवाद होने लगे और बाजार ऐसी पुस्तकों से पट गया। राज्यों में विभिन्न भाषाओं की ग्रंथ अकादमियाँ स्थापित और सक्रिय होने लगीं।
हिन्दी के शुभचिन्तक आमतौर पर कहते हैं कि हिन्दी सहित अन्य सभी भारतीय भाषाओं को प्रतिष्ठा तभी मिलेगी,जब उन्हें रोजगार से जोड़ा जाएगा। आजाद भारत में प्रो. कोठारी पहले ऐसे व्यक्ति हैं,जिन्होंने भारतीय भाषाओं को रोजगार से जोड़ने का महान कार्य किया।
इसके पूर्व प्रो. कोठारी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (१९६४-६६) गठित हुआ था। दुनियाभर से शिक्षा-विशेषज्ञों के २० सदस्यों का एक समूह सलाहकार भी नियुक्त था।२९ जून १९६६ को आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की और उसके बाद भी हर स्तर पर भरपूर चर्चा के बाद २४ जुलाई १९६८ को भारत की यह प्रथम राष्ट्रीय शिक्षा नीति घोषित की गई। यह पूर्ण रूप से कोठारी आयोग के प्रतिवेदन पर ही आधारित थी। इसमें हिन्दी को सम्पर्क भाषा के रूप में विकसित करने पर विशेष जोर दिया गया और सबके लिए शिक्षा के समान अवसर की उपलब्धता का ख्याल रखा गया।
इस नीति की २ बातें बेहद चर्चित रहीं। पहली-समान विद्यालय व्यवस्था और दूसरी- विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा अपनी भाषाओं में देने का प्रस्ताव।
आयोग के सुझाव लागू होने के बाद शिक्षा के सभी चरणों में प्रादेशिक भाषाओं को शिक्षा का माध्‍यम बनाने का प्रयास हुआ। प्राथमिक शिक्षा को सिर्फ मातृभाषाओं के माध्यम से देने पर जोर दिया गया। कोठारी शिक्षा आयोग का सुझाव था कि प्राथमिक स्तर तक बच्चों को सिर्फ एक भाषा पढ़ाई जानी चाहिए और वह या तो मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा ही होनी चाहिए। सुझाव था कि गैर हिन्‍दी क्षेत्रों में हिन्‍दी के अध्‍ययन को प्रोत्‍साहित किया जाना चाहिए ताकि वह संघ की राजभाषा के रूप में अपना दायित्व निभा पाने में सक्षम हो सके और भारत की सभी भाषाओं के बीच सम्‍पर्क स्‍थापित करने में सहायक हो सके। आयोग ने सुझाव दिया कि पूरे देश में ईमानदारी से त्रिभाषा फार्मूला अपनाया जाना चाहिए।
कोठारी शिक्षा आयोग की शिक्षा नीति में हिन्दी और भारतीय भाषाओं को लेकर स्पष्ट निर्देश है। वहाँ ‘भाषाओं का विकास’ शीर्षक तीसरे अनुच्छेद में क्षेत्रीय भाषाओं,त्रिभाषा उपाय या रास्ता (फार्मूला),हिन्दी,संस्कृत और अंतरराष्ट्रीय भाषाओं को लेकर अलग-अलग निर्देश हैं। यहाँ देश में शैक्षिक और सांस्कृतिक विकास के लिए भारतीय भाषाओं और उसके साहित्य के विकास को अनिवार्य शर्त के रूप में रेखांकित किया गया है और कहा गया है कि क्षेत्रीय भाषाओं के विकास के बिना न तो लोगों की रचनात्मक ऊर्जा निखरेगी,न तो शिक्षा का स्तर उन्नत होगा और न ज्ञान का आम जनता तक प्रसार हो सकेगा।
त्रिभाषा उपाय को लेकर कोठारी शिक्षा आयोग के सुझाव अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। त्रिभाषा एक ऐसा प्रावधान है जिसके साथ हिन्दी क्षेत्र ने हमेशा से बेईमानी की है। आयोग द्वारा हिन्दी भाषी राज्यों के लिए स्पष्ट निर्देश था कि,-‘हिन्दी भाषी राज्य के लोग हिन्दी और अंग्रेजी के साथ दक्षिण की कोई एक आधुनिक भाषा अपनाएंगे और इसी के साथ अहिन्दी क्षेत्र के लोग एक अपनी राज्य की भाषा,एक अंग्रेजी और एक संघ की राजभाषा हिन्दी अपनाएंगे।’ किन्तु हिन्दी क्षेत्र के लोगों ने हिन्दी और अंग्रेजी के साथ उर्दू या संस्कृत को अपना लिया और खुद दक्षिण वालों से हिन्दी पढ़ने की अपेक्षा करते रहे। यह गलत था। संस्कृत,चाहे जितनी भी समृद्ध हो किन्तु वह आधुनिक भाषा नहीं है और इसी तरह उर्दू और हिन्दी एक ही भाषा की २ शैलियाँ मात्र हैं। ये अलग-अलग जाति की भाषाएँ नहीं हैं। प्रस्तावित त्रिभाषा रास्ता हमारे देश की भाषा समस्या को हल करने की दिशा में आज भी सर्वाधिक उपयुक्त तरीका है और जरूरत उस पर ईमानदारी से अमल करने की थी किन्तु ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति-२०२०’ के माध्यम से इसे अब विस्थापित कर दिया गया है।
यह भी उल्लेखनीय है कि थोपी जाने का आरोप हमेशा हिन्दी को लेकर ही लगता रहा है। हम संस्कृत का सम्मान करते हैं,उसमें भारत की सांस्क़तिक विरासत है,उसका अध्ययन होना ही चाहिए किन्तु हिन्दी को हटाकर नहीं। वह हिन्दी का विकल्प नहीं है।
राजस्थान के उदयपुर में निम्न मध्यवर्गीय जैन परिवार में दौलत सिंह कोठारी का जन्म हुआ था। उनके पिता का नाम फतेहलाल कोठारी और माँ का नाम लहर बाई था। जब दौलतसिंह कोठारी १२ साल के थे,तभी पिता का निधन हो गया। इसके बाद वे अपने पिता के मित्र के पास इंदौर आ गए। यहीं उनकी माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा हुई। इसके आगे की शिक्षा मेवाड़ के महाराणा द्वारा दी गई छात्रवृति से हुई। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से भौतिकी में एमएससी की। इसके बाद शोध के लिए वे कैम्ब्रिज चले गए। इसके बाद श्री कोठारी भारत लौट आए और १९३४ में दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए।
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की विज्ञान नीति में जो लोग शामिल थे उनमें होमी भाभा,डॉ. मेघनाथ साहा,सी.वी. रमन के साथ डॉ. कोठारी भी थे। वे भारत की शिक्षा व्यवस्था को आधुनिक और स्तरीय बनाने के लिए गठित पहले राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के अध्यक्ष थे। वे भारत में रक्षा विज्ञान के वास्तुकार थे। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग तथा एनसीईआरटी के गठन और स्थापना में उनकी केन्द्रीय भूमिका थी। वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुलाधिपति भी थे।
प्रेमपाल शर्मा ने लिखा है,-‘गाँधी,लोहिया के बाद आजाद भारत में भारतीय भाषाओं की उन्नति के लिए जितना काम डॉ. कोठारी ने किया,उतना किसी अन्य ने नहीं। यदि सिविल सेवाओं की परीक्षा में अपनी भाषाओं में लिखने की छूट न दी जाती तो गाँव,देहात के गरीब और आदिवासी लोग उच्च सेवाओं में कभी नहीं जा पाते…।’ शिक्षा आयोग की सिफारिशों के महत्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि १९७१ जब यूनेस्को द्वारा डॉ. एडगर फाउर की अध्यक्षता में शिक्षा के विकास पर अंतरराष्ट्रीय आयोग का गठन किया गया, तब उन्होंने कोठारी आयोग की रिपोर्ट को ही आधार बनाया था। इस आयोग ने अगले २ दशकों तक दुनिया के विभिन्न देशों में शिक्षा के विकास पर कार्य किया।
प्रो. कोठारी के व्यक्तित्व के बारे में उनकी पौत्री दीपिका कोठारी ने ‘सुनहरी स्मृतियाँ’ नाम से एक पुस्तक लिखी है। इसमें वे अपने दादा के व्यक्तित्व के बारे में कहती हैं कि विश्वविद्यालय में रहते हुए जब भी वेतन बढ़ाने की माँग आती वे अपने सहकर्मियों को यही कहते,-‘ऐसे अवसर तुम्हें कहाँ मिलेंगे जहाँ तुम्हें अपनी पसंद का कार्य करने के लिए पैसा भी मिलता हो और रुचि का काम भी करने दिया जा रहा हो। उसकी कुछ कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी।’ उन्हीं के शब्दों में -‘शिक्षण एक उत्कृष्ट कार्य है और किसी विश्वविद्यालय का शिक्षक होना उच्चतम अकादमिक सम्मान है।’ इसीलिये जीवन पर्यन्त वे शिक्षा और शिक्षण से जुड़े रहे।
‘नॉलेज एंड विज्डम’,‘शिक्षा विज्ञान और मानवीय मूल्य’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। अनेक पुरस्कारों के साथ उन्हें भारत सरकार का पद्मभूषण और पद्मविभूषण सम्मान भी प्राप्त हुआ था। हम प्रो. कोठारी की पुण्यतिथि पर उनके द्वारा हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा के लिए किए गए कार्यों का स्मरण और उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन,मुंबई)

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