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जागते रहो!

डॉ.पूजा हेमकुमार अलापुरिया ‘हेमाक्ष’
मुंबई(महाराष्ट्र)

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“चौकीदार चाचा नमस्ते,कैसे हो ?”
“अरे,बिटिया कब आए ससुराल से ? (थोड़ा रुक कर),सब बढ़िया है तुम्हारे परिवार में ?”
“हाँ चाचा सब बढ़िया हैI आप सुनाओI चाची कैसी है ?”
“बिटिया तुम इतने सालों में आती हो,खैर-खबर ही नहीं तुम्हेंI”
“क्यों चाचा ऐसा क्यों बोल रहे हो आप ? चाची तो ठीक है ना!”
“३ सालों से तुम्हारी चाची ने खाट पकड़ ली हैI उसे उठाने-बैठाने के लिए भी एक इंसान चाहिएI मैं ठहरा बूढ़ाI अब इस शरीर में
इतनी जान नहीं बची है,बस रामभरोसे ही गाड़ी खिंच रही हैI”
“चाचा आज ही आई हूँI एक दिन चाची से मिलने आती हूँI आपका बेटा शंकर है नाI क्या वह चाची का ख्याल नहीं रखताI अब तो काफी बड़ा हो गया होगाI उसकी शादी हुई या नहीं!”
“हाँ बिटिया,बेटा भी है और बहू भी,मगर दोनों ही बेकारI दोनों हमारे किसी काम के नहींI बहू को तो हम दोनों बुड्ढा-बुड्ढी बिल्कुल नहीं सुहाते हैंI बेटे को भी बहू की बातें सुनाई देती हैI छोड़ो बेटा यह तो कर्मों का फल है,जैसा बोया होगा,आज वैसा ही काट रहे हैंI”
“चाचा मुझे आज भी याद है आप अपना कर्तव्य पूरी निष्ठा और ईमानदारी से निभाया करते थे I और आज भी… आपके
स्वभाव और अपनेपन में भी कोई कमी नहीं आई हैI चाचा जब हम इस शहर में रहने आए थे,तब आधी रात को पहली बार आपकी आवाज सुनकर मैं काँप गई थीI कई दिनों
तक ज्वर से पीड़ित रही I रात होते ही भय मुझे जकड़ लेता कि अभी खूंखार,भयावह और विशालकाय वाला कोई आएगाI फिर
जोर-जोर से बजती सीटियों के साथ ‘जागते रहो! जागते रहो!’ की आवाज मेरे कानों को चीरतीI मेरे हृदय तल पर एक कौंध-सी
उभर गई थी। रह-रह कर मन में ही बात आती कि एक दिन यह व्यक्ति मुझे चुरा कर ले जाएगा।”
“अच्छा बिटिया! मुझे तो पता ही नहींI बिटिया तुम्हारे हृदय से मेरी भयावहता का भय कैसे निकला ?”
दोनों खिलखिला कर हँसते हैं। हँसते हुए बिटिया कहती है,-“चाचा आज मुझे हँसी आ रही है,मगर उन दिनों तो मेरी स्थिति बहुत
भयावह थी।”
“बिटिया हँसो,मगर बता तो दो……I”
“हाँ-हाँ,चाचा बताती हूँ। मम्मी-पापा ने खूब समझाया,मगर मैं मानने के लिए तैयार ना थी।”
“अरे! चाचा खड़े क्यों हो ? अंदर आ जाइएI क्या सारा किस्सा यहीं देहरी पर ही सुनोगेI”
“नहीं-नहीं बिटिया। मैं यही ठीक हूँ…।”
“अरे चाचा कैसी जिद करते हैं आप। अंदर आ जाइए।”
“नहीं बिटिया। यहीं देहरी पर बैठ जाता हूँ।अब तुम बताओ फिर क्या हुआ ?”
“हाँ चाचा बताती हूँ। मुझे आज भी याद है कि किस तरह से आपका परिचय हुआ था। मैं उस दिन को कभी नहीं भूल सकती।”
“क्यों बेटा ? ऐसा क्या हुआ था जो मेरे परिचय का दिन तुम्हारी स्मृति में आज भी समाया हुआ है।”
“जी चाचा। रात की चौकीदारी के उपरांत अगली सुबह आप अपनी तनख्वाह लेने घर-घर दस्तक दे रहे थे। पापा घर पर ही थे। मैं
और पापा छत पर रखे पौधों पर पानी छिड़क रहे थे। तभी आपने पड़ोस वाले ताऊजी के घर का कुंडा खटखटाया। काफी देर तक दरवाजा खटखटाने पर भी भीतर से कोई प्रतिक्रिया न दिखाई दी। आपने एक बार और प्रयास किया,शायद कोई दरवाजा खोल दे,मगर ….। आप निराश हो हमारे घर की ओर कदम बढ़ा ही रहे थे कि ताऊ जी के बड़े बेटे ने दरवाजा खोला। दरवाजा खुलते ही आपके चेहरे पर उम्मीद की एक लहर दौड़ पड़ी। आप मुस्कुराते हुए मुड़े ही थे कि तभी संजीव भैया भर्राते स्वर में आप पर बरस पड़े।
“क्यों भई अँधा-बहरा है क्या तू ? समझ नहीं आता क्या ? जब एक बार में दरवाजा नहीं खोला तो उसे पीटने की क्या जरूरत है।”
(संजीव चौकीदार से कहता है। )
‘साब जी मैं तो …I’
‘क्या मैं तो ?’
“साब जी मैं तो अपने पैसे लेने आया था।”
“अरे! कैसे पैसे ? क्या हमने तुमसे लिए हैं ? या तू देकर भूल गया है।”
नहीं साब जीI मैं तो रात की चौकीदारी के पैसे मांग रहा था।”
“कैसी चौकीदारी ? तुम सबके सब निठल्ले हो। रात को मुहल्ले में जो चोरियाँ होती है, उसमें तुम लोगों का ही हाथ होता है। चौकीदारी के नाम पर रात को चोरियाँ करवाते हो तुम। आज तो आ गया है,फिर से दिखाई न देना यहाँ।चोर कहीं के…।”
“साब जी गाली मत दो। हम पूरी इमानदारी से चौकीदारी करते हैं।”
“हाँ,हाँ, हमें पता है कि तुम कितनी ईमानदारी से ….I”
“साब जी मेरा मेहनताना दे दो।”
“मेरे घर से तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा। अपना रास्ता नापो…I”
“संजीव भैया ने न जाने क्या-क्या आरोप आप पर थोपने शुरू कर दिए। आप बड़ी शालीनता और धैर्य बांधे चुपचाप खड़े रहे।”
संजीव भैया के ऊँचे और कटु स्वर ने पूरे मुहल्ले को इकट्ठा कर लिया I
पापा ने छत के छज्जे से जो दृष्टि गली में फेरी तो देखा पूरा मुहल्ला इकत्रित हो चुका है। पापा मुझे साथ लेकर गली की ओर दौड़े।
एक निर्दोष और इमानदार के साथ कैसी नाइंसाफी की जा रही है और सब तमाशा देख रहे हैंI
“क्या हुआ संजीव ?” पापा ने भैया से पूछाI
चाचा जी देखो,कैसी धौंस जता रहा है,ये दो टके का चौकीदारI एक तरफ कामचोरी करते हैं और दूसरी तरफ पैसे मांग रहा है।”
“हाँ संजीव तुम ठीक कह रहे हो।”
“पापा की बात सुन संजीव की ख़ुशी का ठिकाना न रहा,मगर आपकी (चौकीदार) निराशा स्पष्ट झलक रही थीI वहाँ उमड़ी भीड़ भी यही सोचने लगी की संजीव अब तक जो कह रहा था सब ठीक था I लोगों के चेहरे पर भी चमक सी आ गई I मैं चुपचाप सब सुन और देख रही थी।”
“संजीव एक बात बताओ-हमारे मुहल्ले में अब तक कितनी चोरियाँ हुई है ?”
‘एक भी नहीं चाचाजी।’
“कभी कोई हत्या या खून खराबे की वारदात हुई है क्या ?”
‘नहीं चाचाजी।’
‘आधी रात को किसी के घर में घुसने की कोई घटना ?’
‘नहीं चाचाजी।’
“देर रात को लौटते समय तुम्हारे या परिवार के साथ कोई छेड़-छाड़,बदतमीजी,झड़प, लूटपाट आदि ऐसा कुछ हुआ क्या ?”
‘नहीं चाचाजी।’
“ऐसी कोई रात,जब तुम्हारा परिवार असामाजिक तत्वों की चिंता के कारण ठीक से सो न पाया हो ?”
‘नहीं चाचाजी। ऐसा कभी नहीं हुआ।’
“अच्छा एक बात और बताओ।”
‘हाँ,पूछिए न चाचा जी।’
“तुम्हें हर महीने ऑफिस से कितनी छुट्टियाँ मिलती है ?”
“यही कोई चार,मगर चाचा मैं आपकी बात समझा नहीं। और इन सब बातों से इस बहादुर का क्या मतलब ?”
“संजीव मतलब है। बहादुर पूरा साल एक भी दिन नागा किए बिना ही अपनी जिम्मेदारी और कर्तव्य को पूरी शिद्दत से निभाता है। कभी किसी से ज्यादा पैसा नहीं मांगता। जो कोई अपनी ख़ुशी से जो दे देता है,बेचारा चुपचाप ले लेता है। तुमने इस निर्दोष पर बिना सोचे-समझे न जाने कैसे-कैसे आरोप लगा दिए। अपने प्राणों की परवाह किए बिना पूरी रात निष्कपट भाव से हमारी रखवाली करता है।
संजीव अभी तुमने ही कहा,हमारे मुहल्ले में कभी भी ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जिसके लिए बहादुर को दोषी ठहराया जाए। इनको भी इज्जत प्यारी होती है। ये भी आत्म सम्मान की भावना रखते हैं। गरीब जरूर है, मगर सबसे पहले ये हमारी-तुम्हारी तरह ही इनसान है।
पापा की बात सुन सभी के चेहरे फीके से पड़ गए I
“चाचाजी मुझे माफ़ कर दो। मैं बिना वजह ही बहदुर पर चढ़ गया।” संजीव ने अपनी जेब से पैसे निकाले और बहादुर को थमाते हुए क्षमा मांगी।
“बिटिया तुम्हें तो सब याद है। मैं तो कब का भूल चुका था इस घटना को।
“चाचा यही तो खासियत है आपकी। बस फिर क्या था,पापा ने घर आकर मुझे बताया कि आप वही हैं जो रात भर जाग कर हमारी रक्षा करते हैं और जोर-जोर से सीटी
बजाकर कहते हैं-‘जागते रहो।’ (दोनों खिलखिला कर हँस पड़े।)

परिचय–पूजा हेमकुमार अलापुरिया का साहित्यिक उपनाम ‘हेमाक्ष’ हैl जन्म तिथि १२ अगस्त १९८० तथा जन्म स्थान दिल्ली हैl श्रीमती अलापुरिया का निवास नवी मुंबई के ऐरोली में हैl महाराष्ट्र राज्य के शहर मुंबई की वासी ‘हेमाक्ष’ ने हिंदी में स्नातकोत्तर सहित बी.एड.,एम.फिल (हिंदी) की शिक्षा प्राप्त की है,और पी.एच-डी. की शोधार्थी हैंI आपका कार्यक्षेत्र मुंबई स्थित निजी महाविद्यालय हैl रचना प्रकाशन के तहत आपके द्वारा आदिवासियों का आन्दोलन,किन्नर और संघर्षमयी जीवन….! तथा मानव जीवन पर गहराता ‘जल संकट’ आदि विषय पर लिखे गए लेख कई पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैंl हिंदी मासिक पत्रिका के स्तम्भ की परिचर्चा में भी आप विशेषज्ञ के रूप में सहभागिता कर चुकी हैंl आपकी प्रमुख कविताएं-`आज कुछ अजीब महसूस…!`,`दोस्ती की कोई सूरत नहीं होती…!`और `उड़ जाएगी चिड़िया`आदि को विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में स्थान मिला हैl यदि सम्म्मान देखें तो आपको निबन्ध प्रतियोगिता में तृतीय पुरस्कार तथा महाराष्ट्र रामलीला उत्सव समिति द्वारा `श्रेष्ठ शिक्षिका` के लिए १६वा गोस्वामी संत तुलसीदासकृत रामचरित मानस पुरस्कार दिया गया हैl इनकी लेखनी का उद्देश्य-हिंदी भाषा में लेखन कार्य करके अपने मनोभावों,विचारों एवं बदलते परिवेश का चित्र पाठकों के सामने प्रस्तुत करना हैl

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